Friday, April 19, 2024

खेतिहर मजदूरों की खुदकुशी नहीं दिखती सरकारों को

पंजाब के कृषि मजदूरों ने अतीत से लेकर वर्तमान तक खेतों को अपना पसीना ही नहीं, लहू भी दिया है। कभी अन्नदाता और हरित क्रांति का जनक कहलाने वाला यह सरहदी सूबा आज किसानों और कृषि मजदूरों की बड़े पैमाने पर हो रही खुदकुशियों के लिए भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। विडंबना है कि किसानों की खुदकुशी बड़ी खबर बनती है, लेकिन कृषि मजदूरों की बदहाली और आत्महत्याओं की ओर वैसी तवोज्जोह नहीं दी जाती, जिसकी दरकार है। बेजमीन खेत मजदूरों की हालत किसानों से कहीं ज्यादा बदतर है और उनका जीवन स्तर भी।

बेशक निम्न किसानी के लिए कृषि अब पंजाब में भी मुनाफे का धंधा नहीं रही और छोटे किसान भी धीरे-धीरे वस्तुतः खेत मजदूरों में तब्दील हो रहे हैं। यह संक्रमण अपनी अंतरवस्तु में जितने बड़े पैमाने पर हो रहा है, उतना फिलहाल बाहर से दिखाई नहीं देता। खैर, पंजाब के खेत मजदूरों की बाबत एक ताजा और पुख्ता सर्वेक्षण रिपोर्ट काफी कुछ ऐसा बताती है, जिसे जानना निहायत अपरिहार्य है। इसे ‘पंजाब खेत मजदूर यूनियन’ द्वारा बठिंडा में करवाए गए एक विशेष सेमिनार में प्रस्तुत किया गया।

इस सेमिनार में ख्यात कृषि अर्थशास्त्री डॉ. दविंदर शर्मा, डॉ. सुखपाल सिंह, जोरा सिंह नसराली और मानवधिकारों की नामवर कारकुन डॉ. नवशरण समेत बेशुमार बुद्धिजीवियों ने शिरकत की। इस विचार चर्चा और रिपोर्ट के निष्कर्ष आंखें खोल देने वाले हैं। केंद्र और राज्य की सरकारों को आइना दिखाने तथा शर्मसार करने वाले भी, जिनका दावा है कि पंजाब खुशहाली की राह पर चलता सूबा है! आइए, रिपोर्ट से गुजर कर देखते हैं कैसी है इस खुशहाली और विश्व बैंक तक रखे जाते आंकड़ों की सच्ची तस्वीर।

पंजाब खेत मजदूर यूनियन राज्य की कृषि मजदूरों की सबसे बड़ी और भरोसेमंद संस्था है। इस यूनियन ने दक्ष विशेषज्ञों और कृषि अर्थशास्त्रियों की निगरानी और निर्देशन में राज्य के छह जिलों बठिंडा, मुक्तसर, फरीदकोट, जालंधर, मोगा और संगरुर के 12 गांवों के 1640 परिवारों के बीच जमीनी स्तर पर बहुकोणीय विशेष सर्वेक्षण करवाकर तथ्यात्मक रिपोर्ट तैयार और जारी की।

रिपोर्ट के मुताबिक खेत मजदूरों के 444 परिवार बेघर हैं। (प्रसंगवश, इन पंक्तियों को पढ़ते हुए याद रखिए कि सरकार कहती है कि पंजाब में एक भी स्थानीय परिवार बेघर नहीं है)। इनमें से 19 परिवार, जो किए गए सर्वेक्षित परिवारों का 1.16 फीसदी हैं, समूचे तौर पर बेघर हैं। वे जागीरदारों के बाड़ों, धर्मशालाओं और सरकारी अस्पतालों के नाकारा लावारिस खोलियों में जैसे-तैसे पनाह लेकर गुजारा कर रहे हैं।

इसके अतिरिक्त 425 परिवार भी बेघरों की श्रेणी में हैं। 3-4 या 6-7 मरले में बने घरों में कई कई परिवार एक साथ किसी तरह रह रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार 67 घर एक कमरे के मकान में कई परिवारों के साथ रहते हैं। बेघर ज्यादातर कृषि कामगर नारकीय हालात में उतनी जगह में सपरिवार गुजर बसर करते हैं, जितनी जगह में दो लोगों का भी एक साथ रहना मुहाल है।              643 परिवार (39.21 प्रतिशत) एक कमरे के घरों  में रहते हैं। जबकि 493 परिवार (30.6 फीसदी) शौचालय से पूरी तरह मरहूम हैं।

यह स्वच्छ भारत अभियान की भी एक हकीकत भरी तस्वीर है! इन बुनियादी सुविधाओं से सिरे से वंचित ज्यादातर परिवार दलित वर्ग से संबंधित हैं। पंजाब खेत मजदूर यूनियन के महासचिव लक्ष्मण सिंह सेवेवाला कहते हैं, “हमारी यह रिपोर्ट तथाकथित विकास की राह पर रफ्तार पकड़ते भारत व पंजाब का एक पहलू भर दिखाती है। 1640 कृषि मजदूरों के परिवारों की यह हालत है तो बाकियों की भी इससे ज्यादा अलग नहीं होगी।”

पंजाब खेत मजदूर यूनियन की सर्वेक्षण रिपोर्ट बारीकी से बताती है कि पंजाब के कृषि क्षेत्र में खुदकुशी की फसल कैसे उग और फल-फूल रही है। मंदहाली और बदहाली खेत मजदूरों के लिए लगातार कफन बुन रही है। वे थोड़े से धन के लिए खुद और अपने परिवारों को जागीरदारों, सूदखोरों और फाइनेंसरों के पास गिरवी रखने को मजबूर हैं। इस मजबूरी का खाता खुदकुशी के बाद भी बंद नहीं होता और परिवार के बाकी बचे सदस्यों के खून से नए इंदराज करता रहता है। कई खेत मजदूर परिवार ऐसे हैं जिनके एक से ज्यादा सदस्यों ने खुदकुशी की राह अख्तियार की और उनकी अगली पीढ़ियां भी इसी मानसिक बनावट का शिकार हैं। हालात बेहद भयावह तो हैं ही, यकीनन अंधी सुरंग सरीखे भी हैं।

कृषि अर्थशास्त्री डॉ. सुखवाल सिंह के मुताबिक, “कृषि सेक्टर के मजदूरों की ऐसी बदहाली के लिए सीधे तौर पर सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। महंगाई बढ़ रही है और काम का बोझ भी, लेकिन मजदूरी वही हैं। जीडीपी में कृषि मजदूरों का हिस्सा 20 फीसदी की जगह महज 14.5 फीसदी रह गया है। इस जारी वित्त वर्ष में ही कामगारों को 4.5 लाख करोड़ रुपये का सीधा घाटा हुआ है। सरकारों को बड़े किसानों की मुश्किलें तो यदाकदा दिखती हैं, लेकिन कृषि मजदूरों और धीरे-धीरे खुद कृषि मजदूर बनते छोटे किसानों की दिक्कतें दिखाई नहीं देतीं। उनके बुनियादी हकों से खुला खिलवाड़ हो रहा है। शासन-व्यवस्था चलाने वालों के एजेंडे से वे बाहर हैं।” डॉ. सुखपाल विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले से कहते हैं कि प्रतिदिन 20 खेत मजदूर और 40 किसान खुदकुशी की कोशिश करते हैं। 

भारत के नामचीन कृषि अर्थशास्त्री डॉ.. दविंदर शर्मा कहते हैं, “सरकारी विसंगतियों के चलते पंजाब के खेत मजदूरों का छह हजार करोड़ रुपये का कर्जा माफ नहीं किया जा रहा। कर्ज का यह कुचक्र भस्मासुर की मानिंद फैलता जा रहा है। जबकि कारपोरेट बड़े समूहों को 50 लाख करोड़ रुपये की छूट देने के बाद भी अतिरिक्त रियायतों का सिलसिला अनवरत जारी है।”

चर्चित मानवाधिकारवादी डॉ. नवशरण पंजाब खेत मजदूर यूनियन की इस विशेष सर्वेक्षण रिपोर्ट को सरकारों के मुंह पर जोरदार तमाचा मानती हैं। वह कहती है कि सरकारों का मजदूरों के साथ दुश्मनी वाला रिश्ता-रवैया ही उनकी बदहाली के लिए गुनाहगार है। यूनियन के प्रदेशाध्यक्ष जोरा सिंह कहते हैं, “पंजाब की कांग्रेस सरकार पंचायती जमीनों को औद्योगिक विकास के नाम पर पूंजीपतियों, कॉरपोरेट घरानों को कौड़ियों के दाम पर लुटाने जा रही है।

सन् 2014 में हाईकोर्ट ने सरकार को आदेश दिया था कि खेत मजदूरों को शामलाट (पंचायती) जमीनों में से मकान बनाने के लिए प्लाट अलॉट किए जाएं। इसे पांच साल बीतने के बाद भी लागू नहीं किया जा रहा है। हाईकोर्ट के उस फैसले के वक्त पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन का शासन था और अब कांग्रेस की सरकार है।”

बहरहाल, खेत मजदूरों और छोटे किसानों के प्रति केंद्र और राज्य सरकार का सुलूक एक सरीखा है। उनके हितों की हत्या चंडीगढ़ से दिल्ली तक एक जैसी निर्ममता के साथ की जा रही है। कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार मजदूरों को मिलने वाली पंचायती जमीन खुशी-खुशी, उद्योग-धंधों के विकास तथा खुशहाली के नाम पर धनवानों को बांट रही है तो दिल्ली में बैठे नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री आवास योजना यहां कागजों तक दिखाई नहीं देती!
(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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