झारखंड। आज भी बहंगी का उपयोग बुजुर्गों,बीमारों को ले जाने लाने में सहारा बना हुआ है। आज आजादी के आठ दशक बाद और इस डिजिटल इंडिया के दौर में जब सड़क के अभाव में किसी बीमार या बुजुर्ग को बहंगी यानी टोकरी में बैठाकर चिकित्सा या अन्य कामों के लिए ले जाया जाता है। तो जाहिर है कि ऐसे दृश्य सरकार की जहां डपोरशंखी घोषणाओं की पोल खोलते हैं, वहीं प्रशासनिक निकम्मेपन का भी बोध कराते हैं।
ऐसा ही दृश्य पिछले दिनों झारखंड के लातेहर जिले के महुआडांड़ के प्रखंड मुख्यालय में देखने को मिला। दरअसल जिले के महुआडांड़ प्रखंड की ग्वालखाड़ गांव की रहने वाली 64 वर्षीय कोरवा आदिम जनजाति की एक वृद्ध महिला को उसके पति और उसके पुत्र उसकी वृद्धा पेंशन दिलाने के लिए अपने गांव से करीब 7 किलोमीटर दूर एक टोकरी में बैठा कर कंधे पर लाद कर प्रखंड मुख्यालय लेकर आए।
जबकि बैंक का लिंक फेल होने के कारण महिला को पेंशन भी नहीं मिल पाया। इस वजह से उन्हें उसी तरह खाली हाथ घर वापस लौटना पड़ा। महिला के पति देवा कोरवा ने बताया कि गांव तक आने-जाने का कोई रास्ता नहीं है। लोग पैदल ही गांव तक आते जाते हैं।
उसकी पत्नी चलने-फिरने में असमर्थ हो गई हैं। इस कारण पेंशन के पैसे निकालने के लिए उसे टोकरी में बैठा कर लाना पड़ता है। उन्होंने बताया कि तीन चार महीने में एक बार पेंशन का पैसा निकालने के लिए उन्हें महुआडांड़ प्रखण्ड मुख्यालय अपनी पत्नी को ले आना पड़ता है। हालांकि, इस बार पैसे नहीं मिलने के कारण उन्हें थोड़ी निराशा भी हुई। क्योंकि एक बार महुआडांड़ आने में पूरा दिन निकल जाता है।
लातेहार जिले के पूर्व उपायुक्त ने पेंशन को लेकर जिले में एक व्यवस्था लागू की थी। इसके तहत चलने में असमर्थ पेंशनधारियों को उनके घर तक पेंशन की राशि पहुंचाने की व्यवस्था की गई थी। इससे लाचार पेंशनधारियों को भी सुविधा मिलती थी। लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था खत्म हो गई। इस कारण लाचार पेंशनधारियों को भी पेंशन के पैसे निकालने के लिए बैंक या प्रज्ञा केंद्र के चक्कर लगाने पड़ते हैं।
शहरी क्षेत्र या वाहन से आने-जाने की व्यवस्था वाले गांव में रहने वाले लाभुकों को तो ज्यादा परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता लेकिन सुदूरवर्ती इलाकों में रहने वाले गरीब ग्रामीणों को पेंशन के पैसे लेना किसी बड़ी समस्या से कम नहीं है।
ऐसा मामला सामने आने पर महुआडांड़ के प्रखंड विकास पदाधिकारी कहते हैं कि सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में रहने वाले असमर्थ लोगों के पेंशन की राशि उनके घर तक पहुंचे इसके लिए वे जल्द ही प्रज्ञा केंद्रों को दिशा निर्देश जारी करेंगे।
लेकिन उन्होंने यह आश्वासन नहीं दिया कि जिन क्षेत्रों में आने-जाने के लिए सड़क की सुविधा नहीं है वहां सड़क बनवाई जाएगी।
ऐसा नहीं है कि ऐसी असुविधा केवल इसी क्षेत्र में है। ऐसी स्थिति कमोबेश पूरे राज्य में है। खासकर आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जहां के लोग बीमार और चलने-फिरने में असमर्थ हैं उनके परिवार के सदस्यों को इसी व्यवस्था के तहत इलाज या अन्य कामों के लिए ले जाया जाता है।
राज्य के इस जिले लातेहार में सामने आई इस तस्वीर ने राज्य सरकार के तमाम दावों की पोल खोल कर रख दी है। एक तरफ सरकार यह दावे करती है कि गांव से लेकर शहर तक सड़कों के जाल बिछाए जा रहे हैं। ताकि शहर और गांव के बीच की दूरियां खत्म हो सके। ग्रामीण इलाकों में रहने वाले वृद्धजन जो चलने में असमर्थ हैं उन्हें बैंक और प्रज्ञा केंद्र के चक्कर न लगाने पड़ें।
चलने-फिरने में असमर्थ लोगों को परेशानी न हो इसके लिए सरकार ने एक व्यवस्था लाई थी जिसके तहत उनके घर पर जाकर उनकी राशि मुहैया कराई जा सके लेकिन सरकार के ये तमाम दावे और वादे अभी भी पूरे नहीं हो सके हैं।
2014 के बाद से ‘’डिजिटल इंडियाʼ’ और “मेक इन इंडिया” के नारे देश में बड़े जोर-शोर से लगते रहे हैं। गांव को शहर से जोड़ने के लिए बेहतर सड़क बनाने का दावा किया जाता रहा है। झारखंड सरकार भी केंद्र सरकार के राग में राग मिलाती रही है। लेकिन यह राग सिवाय ढपोरशंखी घोषणाओं के कुछ भी साबित नहीं हुआ।
यह महुआडांड़ प्रखंड के ग्राम ग्वालखाड़ की तस्वीर ने साफ साबित कर दिया। चंपा पंचायत अंतर्गत ग्वालखाड़ गांव प्रखंड मुख्यालय से मात्र सात किमी की दूरी पर है। 24 मई को लालो कारवाईन 64 वर्ष की हैं और वृद्धावस्था एवं बीमारी के कारण चलने-फिरने में असमर्थ हैं।
उन्हें टोकरी में बैठा कर कंधे पर लादकर उनके पति देवा कोरवा और बेटा सुंदर लाल कोरवा वृद्धा पेंशन के पैसे निकलवाने के लिए महुआडांड़ प्रखंड कार्यालय स्थित प्रज्ञा केंद्र ले गए। लेकिन बैंक का सर्वर डाउन और बायोमेट्रिक काम नहीं करने की वजह उन्हें खाली हाथ पुन: ग्वालखाड़ लौटना पड़ा।
गांव से प्रखंड कार्यालय तक पहुंचने के लिए सड़क नहीं है। इस कारण वे लोग 4 या 5 महीने में एक बार लालो कारवाईन को टोकरी में बैठा कर पैसा निकलवाने के लिए प्रखंड कार्यालय लाते हैं।
ग्रामीण बताते हैं कि सड़क के अभाव में अगर गांव में कोई बीमार पड़ जाए तो उसे अस्पताल तक ले जाने के लिए परिवार के लोगों के पास एक ही विकल्प होता है। टोकरी को डंडों से बांधकर उसमें बैठाकर अस्पताल ले जाना। कई बार ऐसा भी होता है कि बीमार को अस्पताल पहुंचाते हुए देर हो जाती है तो वह रास्ते में ही दम तोड़ देता है।
इस गांव में सड़क, स्वास्थ्य केन्द्र की बात छोड़िए, पेयजल हेतु एक चापानल तक नहीं है। जिस कारण गांव के लोग खेतों में बना डाड़ी का पानी पीने को मजबूर हैं। जिस कारण उनके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है। वाहनों का आवागमन नहीं होने से बीमार या गर्भवती महिला को प्रसव के लिए परिजन कंधे पर ढोकर प्रखंड मुख्यालय स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लाते हैं।
यहां कोई अधिकारियों या जनप्रतिनिधियों का जल्द आगमन नहीं होता है, यही कारण है कि यहां समस्या से ये लोग महरूम रहते हैं। यहां लोगों में इतनी चेतना या जानकारी नहीं है वे अपनी समस्या उन तक पहुंचा सकें।
मामला सोशल मीडिया पर आने के बाद इस मामले पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा लातेहार के उपायुक्त को टि्वटर पर टैग कर निर्देश दिया गया कि उक्त मामले की जांच कर लालो कारवाईन को लाभ दे, साथ सुनिश्चित करें कि ग्वालखाड़ गांव में कोई मूलभूत योजनाओं से वंचित ना रहे।
इसके बाद लातेहार उपायुक्त के निर्देश पर 25 मई को महुआडांड़ प्रखंड विकास पदाधिकारी अमरेंग डांग, चंपा पंचायत सचिव रामलखन यादव तथा अन्य अधिकारी पैदल ग्वालखाड़ गांव पहुंचे और लालो कारवाईन को भारतीय स्टेट बैंक के महुआडांड़ शाखा से पेंशन का पैसा दिया गया।
(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं।)