गैर कानूनी है काम के घंटे 12 करने का यूपी सरकार का फैसला

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9 अगस्त भारत छोड़ो दिवस के दिन कल उत्तर प्रदेश के ट्रेड यूनियन संगठनों ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाए काम के घंटे 12 करने के कानून का विरोध करने का फैसला लिया है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 1 अगस्त को कारखाना (उत्तर प्रदेश संशोधन) विधेयक 2024 को विधानसभा से और 2 अगस्त को विधान परिषद से पास कराया गया है। इसके जरिए सरकार ने कारखाना अधिनियम की धारा 54 समेत कई धाराओं में संशोधन करके काम के घंटे 12 कर दिए हैं और धारा 66 में संशोधन करके महिलाओं से रात्रि पाली में काम कराने की छूट प्रदान की है। 

इसके उद्देश्य में कहा गया है कि प्रदेश की अर्थव्यवस्था में एक ट्रिलियन डॉलर की उपलब्धि को हासिल करने, औद्योगिक विनिधान और उद्योगों को प्रोत्साहन देने, राज्य में औद्योगिक विकास को गति देने और अधिक आर्थिक क्रियाकलापों और नियोजन के अवसर सृजित करने के लिए यह संशोधन विधेयक लाया गया है। वास्तव में सरकार की यह पूरी कार्यवाही गैरकानूनी है। विधिक स्थिति यह है कि कारखाना अधिनियम 1948 की धारा 5 के अनुसार राज्य सरकार कारखाना अधिनियम के कुछ प्रावधानों में संशोधन कर सकती है। लेकिन वह ऐसा पब्लिक इमरजेंसी होने की स्थिति में ही कर सकती है।

पब्लिक इमरजेंसी को भी कारखाना अधिनियम में स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। जिसमें कहा गया है कि भारत की सुरक्षा पर कोई आक्रमण हो जाए, देश के अंदर कोई आंतरिक गृह युद्ध हो या इंटरनल डिस्टर्बेंस बड़े पैमाने पर पैदा हो जाए तो ऐसी आपातकालीन स्थितियों में राज्य सरकार कारखाना अधिनियम में संशोधन कर सकती है। लेकिन यह संशोधन तीन माह के लिए ही प्रभावी होगा। गौरतलब है कि आपातकाल जैसी कोई भी स्थिति न तो देश में है और ना ही उत्तर प्रदेश में है।

दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार प्रदेश में पूंजी लाने के लिए बेताब है। दो-दो बार इन्वेस्टर सबमिट और ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी करने के बावजूद हालत यह है कि उत्तर प्रदेश में कोई पूंजी का निवेश नहीं हो रहा है। उल्टा प्रदेश से पूंजी का पलायन ही लगातार जारी है। बैंकों में लोगों की जमा डेबिट का 60% दूसरे राज्यों में पलायन कर जाता है। ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस के नाम पर सरकार मजदूरों को आधुनिक गुलामी में धकेल देने की कोशिश कर रही है।

काम के घंटे बढ़ाने के लिए पूरे देश की तमाम राज्य सरकारें लगी हुई हैं। कोरोना महामारी के समय असम, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने काम के घंटे 12 करने का नोटिफिकेशन जारी किया था। गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों ने कोरोना महामारी को पब्लिक इमरजेंसी बताते हुए काम के घंटे 12 करने का अध्यादेश जारी कर दिया था।

इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में वर्कर्स फ्रंट ने जनहित याचिका दायर की थी जिसमें सरकार से पूछा था कि वह बताएं कि क्या संविधान और कारखाना अधिनियम में दी गई पब्लिक इमरजेंसी लागू है। मुख्य न्यायाधीश द्वारा इस सवाल पर जवाब तलब करने के बाद सरकार इसका जवाब नहीं दे पाई थी और अंतत: उसे इस अध्यादेश को वापस लेना पड़ा था। 

अब कोरोना महामारी के बाद जमीनी स्तर पर सोनभद्र से पलायन करके देश के विभिन्न राज्यों में जाने वाले मजदूरों से हम लोगों ने जब बातचीत की तो यह पाया कि देश के अधिकांश राज्यों में काम के घंटे 12 कर दिए गए हैं। कर्नाटक में तो जहां कांग्रेस की सरकार है वहां तो आईटी सेक्टर में काम के घंटे 14 करने का आदेश जारी कर दिया गया है। जिसके खिलाफ पिछले एक हफ्ते से आईटी के मजदूर व कर्मचारी आंदोलन में उतरे हुए हैं। काम के घंटे 12 करने का प्रावधान भारत सरकार द्वारा बनाए गए लेबर कोडों में भी किया गया है। जिनको अक्टूबर से लागू करने की तैयारी हो रही है।

सभी लोग जानते हैं कि काम के घंटे 8 का अधिकार मजदूरों ने लंबे संघर्षों के बाद हासिल किया था। 19वीं सदी की शुरुआत में 1810 में राबर्ट ओवेन ने 10 घंटे कार्य दिवस की मांग उठाई थी और स्काटलैंड के न्यू लैनार्क के समाजवादी उद्यम में इसे लागू किया गया था। 1817 आते-आते उन्होंने 8 घंटे काम का नारा देते हुए कहा था कि ‘8 घंटे काम का, 8 घंटे मनोरंजन का, 8 घंटे आराम का।’  तब से शुरू हुई लड़ाई 1886 में अमेरिका के शिकागो के हे मार्केट स्क्वायर में हुए आंदोलन में परिणित हुई।

जिसमें कई मजदूरों की शहादत हुई और इसी की याद में 1889 से पूरी दुनिया में मजदूर दिवस के रूप में मई दिवस को मनाया जाता है। रूस की क्रांति के बाद बने इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ने 1919 में अपने पहले कन्वेंशन के पहले प्रस्ताव के रूप में काम के घंटे 8 का प्रस्ताव पारित किया था। जिसका हस्ताक्षर कर्ता भारत भी है। इसलिए काम के घंटे 12 करने का निर्णय इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन के कन्वेंशन का उल्लंघन भी है।

बेरोजगारी की मार से पीड़ित मजदूरों की मजबूरी का फायदा उठाकर यह जो काम के घंटे 12 करने का कानून बनाया जा रहा है इसका उत्पादन पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि उत्पादन करने वाला जो मजदूर है वह यदि 12 घंटे काम करेगा तो दैनिक जरूरतों और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण उसकी नॉर्मल वर्किंग 17-18 घंटे होगी। इस अत्यधिक काम के कारण वह बहुत ही कम उम्र में तमाम बीमारियों का शिकार होगा और उसकी उत्पादन क्षमता में गिरावट आएगी। काम के घंटे के इस कानून से देश में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी भी बढ़ेगी। जो अभी तीन शिफ्ट में मजदूर काम कर रहे हैं उनमें से 33 प्रतिशत मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया जाएगा। इससे पहले से ही बढ़ रही बेरोजगारों की फौज में और इजाफा होगा।

उत्तर प्रदेश में तो मजदूर की हालत और भी बुरी बनी हुई है यहां सरकार ने न्यूनतम वेतन का वेज रिवीजन पिछले 5 वर्षों से नहीं किया है। उत्तर प्रदेश में 2014 में वेज रिवीजन किया गया था और न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948 की धारा तीन के तहत अगले 5 वर्ष बाद यानी 2019 में इसे होना था, जो 2024 में भी नहीं किया गया है। स्पष्ट तौर पर यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और 43 का उल्लंघन है। जो एक मजदूर के गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी करता है।

देशभर में ई-श्रम पोर्टल पर 28 करोड़ और उत्तर प्रदेश में 8 करोड़ से ज्यादा असंगठित मजदूर पंजीकृत हैं। इनकी सामाजिक सुरक्षा के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट बराबर केंद्र सरकार को निर्देश दे रहा है बावजूद इसके सरकार ने अभी तक कुछ भी नहीं किया है। इन मजदूरों के लिए बीमा लाभ, आवास, पेंशन, पुत्री विवाह योजना, मुफ्त शिक्षा आदि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को देना सुनिश्चित करने और 2008 के बने असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा कानून को लागू करने की मांग को अनसुना कर दिया गया है।

ऐसे हालात में मजदूर संगठनों की तरफ से स्थानीय प्रशासन के माध्यम से राष्ट्रपति महोदया को पत्र भेजा जाएगा। दरअसल श्रम का विषय संविधान की समवर्ती सूची में आता है और इसके संबंध में केंद्र और राज्य सरकार दोनों कानून बना सकती हैं। लेकिन यदि केंद्र सरकार के बने हुए कानून में राज्य सरकार कोई संशोधन करती है तो उसे राष्ट्रपति की अनुमति लेना आवश्यक है। इसलिए मजदूर संगठनों ने यह फैसला किया है कि राष्ट्रपति महोदया से अपील की जाए कि वह उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाए गए गैर कानूनी कारखाना (उत्तर प्रदेश संशोधन) विधेयक 2024 को अनुमति देने से इंकार करें और इसे उत्तर प्रदेश सरकार को वापस भेज दें।

(दिनकर कपूर यूपी वर्कर्स फ्रंट के अध्यक्ष हैं।)

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