Friday, March 29, 2024

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भोपालियों के बहाने: अविवेकी फतवे से विवेक न खोयें प्लीज

एक स्टुपिड, मीडियोकर, उथला व्यक्ति भोपाल के बारे में कोई भी झाड़ूमार बयान झाड़ दे यह बेहूदगी है, यह उसका अज्ञान और मूर्खों की संगत से हासिल बड़े वाला ओवरकॉन्फीडेंस है। विवेक रंजन अग्निहोत्री का भोपाल के बारे में...

झूठ पर आधारित है गोडसे पर बनी फिल्म ‘वाय आई किल्ड गांधी’

हाल में रिलीज हुई फिल्म ‘वाय आई किल्ड गांधी‘ महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करने का प्रयास है। इस फिल्म की एक क्लिप, जो पंजाब हाईकोर्ट में नाथूराम गोडसे की गवाही के बारे में है, सोशल...

जन्मदिन पर विशेष: करिश्माई और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे कमलेश्वर

कमलेश्वर एक बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार थे। कमलेश्वर ने उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, पटकथा विधाओं में लेखन किया। वे हिन्दी के बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कमलेश्वर का नाम नई कहानी...

जन्मदिन पर विशेष: ‘सरदार ऊधम’ फिल्म के बहाने शहीद ऊधम सिंह की शख्सियत पर एक नज़र

13 अप्रैल, 1919, बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में रौलेट एक्ट के विरोध में सभा कर रहे विशाल जनसमूह पर जनरल रेगीनाल्ड डायर नाम के अंग्रेज अफसर के आदेश पर अंधाधुंध गोलियां चलायी गयीं। सरकारी आंकड़ों के...

फिल्म निर्माताओं ने पत्र लिख कर सरकार से बिमल जुल्का समिति की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग की

फिल्म प्रभाग (FD) और भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार (NFAI) सहित कई कई सार्वजनिक वित्त पोषित फिल्म संस्थानों के विलय/बंद होने की एमआईबी की घोषणा के जवाब में फिल्म निर्माताओं के एक समूह ने सरकार से अधिक पारदर्शिता की मांग...

अन्यायी और अत्याचारी सिस्टम पर ‘जय भीम’ का पर्दा

"जय भीम" फ़िल्म आजकल चर्चे में है। जो भी इस फ़िल्म को देख रहा है। वो अपने-अपने अंदाज में फ़िल्म की समीक्षा लिख रहा है। संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां जिनको किसी फिल्म में बस लाल झंडा दिख जाए या किसी दीवार पर पोस्टर या दराती-हथौड़ा का निशान दिख जाए, बस इसी बात से वो फ़िल्म को कम्युनिस्ट फ़िल्म घोषित कर देते हैं।इस फ़िल्म को देख कर भी ऐसे कम्युनिस्ट लोट-पोट हो रहे हैं। इस फ़िल्म को संशोधनवादी कम्युनिस्टों ने बेहतरीन फ़िल्म बताया है वहीं कुछेक कम्युनिस्टों ने इसकी सार्थक आलोचना भी की है।   इसके विपरीत लाल झंडा देखकर ही विदकने वाले या डॉ अम्बेडकर के नाम को सिर्फ जपने वाले इस फ़िल्म के खिलाफ ही बात कर रहे हैं। उनको इस फ़िल्म की कहानी पर चर्चा करने की बजाए आपत्ति इस बात से है कि पूरी फिल्म में डॉअम्बेडकर की न कहीं फोटो है, न अम्बेडकर पर चर्चा है।इसके विपरीत कम्युनिस्टों के झंडे हैं, लेनिन हैं, मार्क्स हैं लेकिन कहीं भी अम्बेडकर नहीं हैं।इसलिए ये सब फ़िल्म के खिलाफ खड़े हैं।इनका फ़िल्म निर्माता पर ये आरोप कि  फ़िल्म का नाम "जय भीम" सिर्फ लोकप्रिय नारे "जय भीम" को भुनाने के लिए रखा गया है। मूर्खता की चरम सीमा है। फ़िल्म की कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है यह फिल्म 1993 में हुई सच्ची घटना से प्रेरित है।इरुलर जनजाति के राजाकन्नू नाम के एक व्यक्ति को चोरी के झूठे मामले में फंसाया जाता है। फ़िल्म दक्षिण भारत की ‘इरुलर’जाति के उन आदिवासी लोगों की कहानी कहती है जो चूहों को पकड़कर खाते हैं। मलयालम में इरुलर का शाब्दिक अर्थ "अंधेरे या काले लोग" है। वास्तव में यह मामला कोरवा जनजाति के लोगों के पुलिस द्वारा किए गए उत्पीड़न का था। पीड़ित की पत्नी सेनगेनी वकील चंद्रू के पास मदद के लिए जाती है और पुलिस हिरासत में दी गई यातना चंद्रू के लिए एक चुनौतीपूर्ण और ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई बन गई। चंद्रू बाद में मद्रास हाई कोर्ट के जज भी रहे। मद्रास हाईकोर्ट ने इस केस का फैसला 2006 में सुनाया था।   "जय भीम" का फिल्माकंन व एक्टिंग काबिले तारीफ है। फ़िल्म को 4.5 स्टार रेटिंग मिली है। फ़िल्म में दिखाया गया अमानवीय अत्याचार जो आम आदमी के रोंगटे खड़ा कर देता है। लेकिन असलियत जिंदगी में सत्ता, पुलिस व तथाकथित उच्च जातियों ने सदियों से गरीब, दलित, आदिवासियों पर अत्याचार किये हैं व वर्तमान में भी ये अत्याचार जारी हैं। फ़िल्म देख कर जिस दर्शक के रोंगटे खड़े हो रहे हैं। जब उस दर्शक के इर्द-गिर्द अत्याचार हो रहे होते हैं, उस समय उसको ये अत्याचार कभी नहीं दिखायी देते हैं। बस फ़िल्म में ही दिखाया जाए, तभी ये अत्याचार उसको दिखायी देते हैं।   अगर दर्शक को असली सिस्टम के ये अत्याचार दिखते तो सोनी सोरी दिखतीं, तेजाब से जलाया उनका चेहरा दिखता, अनगिनत आदिवासी महिलाएं दिखतीं, जिनकी फोर्स के जवानों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी या जेलों में डाल दिया। हजारों आदिवासियों के सलवा जुडूम के गुंडों द्वारा जलाए गए मकान दिखते, फोर्स द्वारा आदिवासियों का हर रोज होता जन संहार दिखता, पुलिस लॉकअप में होते बलात्कार दिखते, हर रोज देश के किसी न किसी थाने के लॉकअप में पुलिस द्वारा की गई हत्या दिखती, हरियाणा के मिर्चपुर व गोहाना की वो दलित बस्ती दिखती, जिसको जातिवादी गुंडों ने जला दिया था। लेकिन आपको ये सब नहीं दिखेगा क्योंकि आपको अत्याचार बस तब दिखता है जब कोई फिल्मकार उसको आपके सामने पर्दे पर पेश करे। पर्दे पर दिखाए अत्याचार को देख कर आप थोड़े भावुक होते हो, ये ही आपकी असलियत है।  फ़िल्म इस दौर में कहना क्या चाहती है...   फ़िल्म निर्माता ने फ़िल्म का नाम "जय भीम" बड़े ही शातिराना तरीके से रखा है। किसी भी मुल्क में न्याय प्रणाली का चरित्र मुल्क में स्थापित सत्ता के चरित्र जैसा होता है। जैसी सत्ता वैसी ही न्याय प्रणाली।भारत की न्याय प्रणाली का चरित्र भी भारतीय सत्ता के चरित्र जैसा ही अर्ध सामंती-अर्ध पूंजीवादी है। सत्ता अगर थोड़ी सी प्रगतिशील होती है तो न्याय प्रणाली भी प्रगतिशील दिखती है। वर्तमान में सत्ता धार्मिक फासीवादी है तो न्याय प्रणाली का भी चरित्र धार्मिक फासीवाद है।   भारत मे न्याय प्रणाली किसी भी दौर में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब व महिला हितैषी नहीं रही। यहाँ सामंती जातीय सेनाओं ने अनेकों बार दलितों की बस्तियां जलाई, नरसंहार किये। आदिवासियों, कश्मीरियों, असमियों के...

अच्छे विषय पर अधूरा फिल्मांकन की मिसाल है फिल्म ‘छोरी’

सबसे पहले तो ये बात जान लें कि Chhori साल 2017 में आई एक मराठी फ़िल्म लपाछपी की रीमेक है।  गन्ने के खेत में बदहवास हालत में भागती औरत के साथ फ़िल्म की शुरुआत होती है, यह दर्शकों को फ़िल्म...

मनोरंजन की दुनिया का नया बादशाह है ओटीटी

सरदार उधम और जय भीम जैसी फिल्मों में ओटीटी पर रिलीज़ होने के बाद भी जिस तरह से सफलता पाई है, उसे देख अब फिल्मकारों का विश्वास ओटीटी पर ही बन गया है।           कोरोना की वज़ह...

जिसे देख हम मुंह फेर रहे हैं वही दिखाती है ‘जय भीम’

राजस्थान के भीलवाड़ा के एक गांव में बकरी चोरी करने के आरोप में दलित युवक को पेड़ से बांधकर पीटने का मामला सामने आया है। सोशल मीडिया पर एक दलित युवक की पिटाई का वीडियो वायरल हो रहा है। वीडियो...

ए स्युटेबल गर्ल: आखिर क्यों इतना उलझा है हमारा समाज?

उधम सिंह, रश्मि रॉकेट की गम्भीरता के बाद मैं फिर कुछ ऐसा ही गम्भीर विषय देखना चाहता था तो मुझे 'ए स्युटेबल गर्ल' के रूप में डाक्यूमेंट्री सुझाई गई, डॉक्यूमेंट्री देख जान पड़ता है कितना उलझा हुआ है हमारा...

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भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत से कौन डरता है?

भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत से कौन डरता है? इस वर्ष मार्च तक आते-आते भारत में राजनीतिक सामाजिक...