2021 की आज की तारीख (18 जनवरी 2021) में एक घटना घट रही है। आदिवासी विमर्श के पैरोकारों, हाशिये के समाज के लिए आंदोलनरत लोगों, बहुजन की परिकल्पना को लेकर बढ़ने वाले लोगों, वामपंथी कहलाने वाले लोगों और मूलनिवासी की अवधारणा को पकड़े हुए लोगों।
आप सभी को संबोधित है आज की वर्तमान कथा…..
27 साल पहले NET, JRF की पात्रता पाने वाली मेरी मां की कहानी। जो आज रांची में 58 वर्ष की आयु में भी सारी योग्यता रखते हुए इंटरव्यू बोर्ड के सामने पेश हुई।।
11 महीने की कॉन्ट्रैक्ट की नियुक्ति का यह भव्य आयोजन गाहे बगाहे कभी कभार यूनिवर्सिटियां advertisment निकाल लिया करती हैं….
विषय जानना बेहद जरूरी है – “आदिवासी भाषाएं” ,
” ट्राइबल लैंग्वेजेज”
कुड़ुख भाषा में यह पहली UGC द्वारा JRF (जूनियर रिसर्च फ़ेलोशिप) पाने वाली शोधार्थी रही हैं। 1994 से लेकर आज तक सत्ता, आंदोलन किन्ही ने भी इन आदिवासी भाषाओं की नियुक्ति की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।।

बिहार में उपेक्षित रहीं।।
(1997 में BPSC ने इंटरव्यू लिया, रिजल्ट गायब)
झारखंड में उपेक्षित रहीं।।
(2007 में JPSC ने इंटरव्यू लिया, वह आज तक सीलबंद)
फ्री फोकट में TRL राँची यूनिवर्सिटी में 12 साल तक बिना पैसे के शिक्षण किया।
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड में कई बार “ट्राइबल स्टडीज”, “endangered language”, “कस्टमरी लॉज़” आदि डिपार्टमेंट्स में सालों साल इंटरव्यू देती रहीं पर हर बार आदिवासी भाषाओं को, कल्चर को अंग्रेजी में न पढ़ा पाने के नाम पर इंटरव्यू बोर्ड ने उन्हें अयोग्य करार दिया।।
पर हर बार एक मोटे से CV, बॉयोडाटा के साथ, निरंतर बढ़ते पब्लिकेशन्स के साथ, 7 देशों में अपने आदिवासी धर्म और संस्कृति को रिप्रेजेंट करने वाली, सैकड़ों राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों की रिसोर्स पर्सन और उनके पढ़ाने की लालसा देखकर सिलेक्शन हो ही गया पर……..इस बार सेलेक्शन की सूचना मिली पर उस वर्ष भी बात यह बताई गई कि इस साल आदिवासी विभाग में कोई विद्यार्थी नहीं आया है, सो स्टूडेंट्स खोजकर लाइये न तब आपको जॉइनिंग करा सकेंगे।
सो यह नियुक्ति भी बाधित।।
ख़ैर
उनकी पढ़ने-पढ़ाने की इच्छा शक्ति इतनी प्रबल है कि 1200 रुपये प्रति क्लास मिलने पर भी 2 घंटे की दूरी जाकर 400 रुपये खर्च कर हज़ारीबाग़ के कुड़ुख विभाग में 2 सालों तक गेस्ट फैकल्टी के तौर पर पढ़ाती रहीं।
और हौसला यह कि आज हो रहे श्याम प्रसाद मुखर्जी यूनिवर्सिटी में 38 कैंडिडेट्स में सबसे बड़ी उम्र की माँ मेरी। 1990, 1992, 1993 तक के कैंडिडेट्स के बीच, अपनी पूरी दावेदारी के साथ दिल्ली से दो दिन पहले ही राँची पहुंच गई हैं।।

पहली बार नानी बनी हैं सो नन्हें को इस ठिठुरती ठंड में छोड़कर अपने पढ़ाने के सपने को पाना चाहती हैं।
उनका यह जज्बा इतना मजबूत है कि कहती हैं- ” सरकार कितने दिन आदिवासी भाषाओं के साथ यह दोमुंहा व्यवहार करेगी, ओड़िया, बंगाली, उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी आदि कई भाषाएं झारखंड में पल सकती हैं, फूल सकती हैं, साहित्य और इतिहास बना सकती हैं तो हमारी आदिवासी भाषाएं क्यूँ नहीं?”
“कोई एक समय तो आएगा जहां से बाकी लोगों के लिए रास्ते खुलेंगे।। अभी 58 की ही हुई हूँ, 65 की उम्र होती है रिटायरमेंट की एक प्रोफेसर की, सो मैं 64 तक जाऊंगी ही inteview देने।”
Irony यह है कि उनकी किताबें सिलेबस में रेफेरेंस के लिए डाली जरूर गई हैं, पर उनको खुद कभी किसी संस्था ने सम्मानजनक तरीके से ग्रहण नहीं किया है।
फुल salaried के रूप में।
आप भ्रम में न रहें कि यह एक इंडिविजुअल कथा है। संथाली, हो, खड़िया, मुंडारी आदि आदिवासिस भाषाओं के ऐसे कई पात्र मैंने अपने इस जीवन में देखें हैं।
यह किसी एक का नहीं, बल्कि समाज का प्रश्न है।
सलाम माँ, आपके जज्बे को।
सलाम।।
आपकी बेटी
नीतिशा खलखो
(नीतिशा खलखो दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापिका हैं।)
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