जंग जश्न नहीं, जनाब- टीआरपी के बाजार में बिकता हुआ मातम है!

जंग कोई तमाशा नहीं होती, जिसे एंकरों की जुबान से शाम के शो की तरह पेश किया जाए। ये कोई स्क्रिप्टेड ड्रामा नहीं, जहां चीख़ों और धुनों के बीच राष्ट्रवाद का तिलक लगाया जाए। जंग- वो लफ्ज़ है जिसे सुनकर सरहदों पर वर्दी पहने सिपाही की मां की नींद उड़ जाती है, और जिसे देखकर मीडिया स्टूडियो की कैमरा लाइटें और तेज़ हो जाती हैं।

भारत और पाकिस्तान के दरम्यान फिर से वो हवा गाढ़ी होती जा रही है, जिसमें बारूद की बू और TRP की प्यास साथ बह रही है। सियासत का संयम जहां ठहरा हुआ है, वहीं गोदी मीडिया की जुबानें तलवार बन चुकी हैं- और जंग की आरती गा रही हैं।

लेकिन कोई इनसे पूछे- क्या मौत को माइक से बुलाना ही अब पत्रकारिता का फ़र्ज़ रह गया है?

टीवी चैनलों की स्क्रीनों पर जो युद्धोन्माद परोसा जा रहा है, वह सिर्फ़ एक ख़तरनाक खेल नहीं, बल्कि एक अंधी भीड़ की ताली बजाने की आदत बन चुकी है। वहां एंकर, कम और उकसावेबाज़ ज़्यादा हैं। स्टूडियो के भीतर बैठकर फर्ज़ी ग्राफिक्स, जलील बयानबाज़ियां और “हमले कब होंगे” की उल्टी गिनतियां गढ़ी जा रही हैं। किसी ने जैसे इनको सरहदों पर तैनात फौज की जगह न्यूज़ रूम में बिठाकर ‘युद्ध घोषणाओं’ का लाइसेंस दे दिया हो।

जंग कोई महफिल नहीं होती, जिसमें आप सोशल मीडिया की दीवारों पर दिलचस्प पोस्टें ठोंकते फिरें।

जंग की कोख़ से जनाज़े पैदा होते हैं।

जंग, इंसानियत की कब्रगाह होती है- जहां जीतने वाला भी कुछ खोकर ही लौटता है। जंग की सबसे बड़ी हार, ज़मीर की होती है- और वो सबसे पहले उन्हीं की होती है, जो उसकी तारीफ़ करते फिरते हैं।

वो एंकर, जो आज “जंग ज़रूरी है” की जुमलेबाज़ी करते हैं, क्या कभी उन्होंने किसी शहीद के घर का रास्ता देखा है? क्या उन्होंने वो बच्चा देखा है, जो बाप के बूटों से खेलकर नींद पूरी करता है? क्या उन्होंने किसी गांव की टूटी मस्जिद और उजड़े मंदिर की तस्वीर को एक बार भी बिना फिल्टर देख पाने की हिम्मत की है? नहीं। क्योंकि ये लोग जंग नहीं लड़ते, जंग को बेचते हैं।

ये जंग नहीं दिखाते, ये जंग का ट्रेलर बनाकर हर रात उसे रील में तब्दील कर देते हैं। इनकी स्क्रिप्ट में खून की स्याही होती है, लेकिन उंगलियों पर एक खरोंच तक नहीं।

और जब हकीकत में जंग का आग़ाज़ होता है- तो शहीद की माओं को “कैसा लग रहा है?” पूछने वाले वही चेहरे स्क्रीन पर लौट आते हैं, जिनके लिए मौत भी अब ‘मॉन्टाज’ बन चुकी है।

सवाल ये नहीं कि युद्ध होगा या नहीं, सवाल ये है कि युद्ध को खेल बना देने की इस घिनौनी साज़िश को रोका कौन करेगा?

कौन इस मुल्क में इतना ज़िम्मेदार बचेगा जो कहे- कि जंग से ज़्यादा ज़रूरी जिंदगियां हैं, कि सरहदें महज़ लाइनें हैं, लाशें नहीं, कि देशभक्ति का मतलब यह नहीं कि हम खून के सौदागर बन जाएं।

जिन्हें जंग का उन्माद है, उन्हें पहले एक दिन सरहद पर बिताना चाहिए। जहां हर कदम पर मौत सांस लेती है, और हर रात बंदूकें तक़दीर तय करती हैं।

वो वहां जानें, कि जंग सिर्फ़ दुश्मन की नहीं होती-

वो अपनी नींदों की, अपनी मां की, अपनी मासूमियत की भी होती है।

अब भी वक़्त है- जंग का शोर नहीं, सोच का सन्नाटा पैदा कीजिए। मुल्क को नफ़रत की गोद में मत सुलाइए। हर जंग लड़ने से पहले, अगर शांति की एक राह बचती हो, तो उसे आख़िरी सांस तक बचाइए।

क्योंकि याद रखिए- जब आख़िरी बारूद चलती है, तो सिर्फ़ जिस्म नहीं जलते, ज़मीर भी राख़ हो जाते हैं।

(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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