प्रधानमंत्री जी द्वारा 12 मई को 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की घोषणा के बाद 13 मई से ही वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा उस ‘भारी-भरकम’ पैकेज की प्रतिदिन की जा रही धारावाहिक व्याख्या और माहात्म्य की पांचवीं और अंतिम कड़ी 17 मई को समाप्त हुई। अपनी घोषणा के दौरान ही प्रधानमंत्री जी ने जब बताया था कि इस पैकेज में इससे पहले घोषित राहतें भी शामिल हैं, तभी से अर्थशास्त्रियों ने आशंकाएं व्यक्त करना शुरू कर दिया था कि इस पैकेज का हश्र ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’ जैसा होने वाला है। खैर, वित्तमंत्री जी के धारावाहिक की अंतिम कड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उस चुहिया की पूंछ ही बरामद हो सकी है।
इस बीच भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कुछ परेशान करने वाली आशंकाएं जाहिर की गई हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में आकलन के क्षेत्र में अपनी साख स्थापित कर चुकी संस्था ‘नेशनल कौंसिल ऑफ अप्लाएड इकोनॉमिक रिसर्च’ (एनसीएईआर) ने बताया है कि अगर संभालने के ठोस उपाय नहीं किए गए तो जिस तरह से आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ चुकी हैं, ऐसी हालत में 2020-21 में भारतीय अर्थव्यवस्था 12.5 प्रतिशत सिकुड़ जाएगी। उसने यह भी बताया है कि केंद्र और राज्यों द्वारा किया जाने वाला सार्वजनिक खर्च जब जीडीपी के विकास दर से 3 प्रतिशत और बढ़ाकर किया जाएगा तब जाकर कहीं अर्थव्यवस्था की विकास दर शून्य से ऊपर हो पाएगी, अन्यथा विकास दर ऋणात्मक ही रहने वाली है।
इसी तरह से वैश्विक निवेश बैंकिंग फर्म गोल्डमैन सैक्स ने भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में अप्रैल में एक अनुमान लगाया था कि जीडीपी के विकास दर में 0.4 प्रतिशत की कमी आएगी लेकिन अपने हालिया आकलन में उसने 5 प्रतिशत की कमी होने का अनुमान लगाया है।लेकिन पहले से ही जिस तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं, वित्तमंत्री जी के विस्तृत विवरण के बाद यह और भी स्पष्ट हो गया है कि घोषित 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का बड़ा हिस्सा तो लिक्विडिटी के रूप में है, जो केवल बैंकों को प्रोत्साहित करेगा कि वे कंपनियों को और ऋण दें। यह सुविधा अर्थव्यवस्था की सामान्य अवस्था में निवेश को बढ़ा सकती थी।
लेकिन आज की हालत में, जब पहले से भी बेरोजगारी दर पिछले 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर थी, उस समय उद्योग-धंधों के ठप पड़ जाने के कारण जब करोड़ों की संख्या में और लोग बेरोजगार हो चुके हैं। महानगरों और क़स्बों से भारी संख्या में मजदूरों का पलायन पहले से ही तबाही के दौर से गुजर रही और कराह रही ग्रामीण-कृषि अर्थव्यवस्था पर असहनीय बोझ डाल देगी। इस बोझ को केवल राजकोष से वास्तविक नगदी खर्च द्वारा ही संभाला जा सकता था। इसी खर्च से अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ सकती है जो अपने प्रभाव में औद्योगिक क्षेत्र में निवेशों को प्रोत्साहित कर सकती है। किंतु सरकार ने इस पैकेज में वास्तविक खर्च की केवल छौंक लगाई है।
नोबेल पुरस्कृत अर्थशास्त्रियों ने सुझाव भी दिया था कि गरीब लोगों को सीधे-सीधे प्रति व्यक्ति 5000 से 7000 रुपये दिए जाने चाहिए। इस संबंध में जब वित्तमंत्री जी से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि “मदद के कई तरीके हो सकते हैं, हमने जो अपनाया है वह ज्यादा असर डालेगा।” व्यवस्था के आंतरिक सूत्रों के अनुसार सरकार ज्यादा नगदी खर्च से लगातार बचने की कोशिश कर रही है, ताकि पहले अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान का सही-सही अंदाज लग जाए। लेकिन अर्थव्यवस्था के इस पिरामिड के सबसे नीचे, इसके बोझ तले चपाए हुए गरीब और मेहनतकश के लिहाज से देखा जाए तो, ग़ालिब के शब्दों में “खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक”।

भारत का राजकोषीय घाटा 2019-20 में 7.7 लाख करोड़ रुपये था जो जीडीपी का 3.8 प्रतिशत था। 1 फरवरी को पेश बजट में 2020-21 के लिए राजकोषीय घाटे का अनुमान 8 लाख करोड़ रुपये लगाया गया है। अब इसमें कितनी बढ़ोत्तरी होती है, उसी से वास्तविक खर्च पता चलेगा। हाल ही में 12 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त उधारी की घोषणा की गई है। इससे यह अनुमान लग रहा था कि घोषित राहत पैकेज का वास्तविक खर्च वाला हिस्सा मात्र 4 लाख करोड़ रहने वाला है, जो जीडीपी का केवल 2 प्रतिशत है। लेकिन इंडियनएक्सप्रेस द्वारा सभी घोषणाओं के एकत्रित आंकड़ों के विश्लेषण से 20 लाख करोड़ के इस पूरे पैकेज का राजकोष पर वास्तविक असर मात्र 194295 करोड़ रुपये, यानि जीडीपी का मात्र 0.975 प्रतिशत पड़ रहा है, जो 1 प्रतिशत से भी कम है।
इस बीच 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा के समय ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ की खूबसूरत पैकिंग को दिखाते समय प्रधानमंत्री जी ने एक बात बहुत महत्वपूर्ण कही कि “हमने आपदा को अवसर में बदल लिया है”। उन्होंने अपने संबोधन में जब अंग्रेजी के चार ‘एल’—लैंड, लिक्विडिटी, लेबर और लॉ की बात किया तभी सबको मंतव्य समझ में आ गया था। हमें इस “हम” से भ्रमित नहीं होना चाहिए। निश्चित रूप से इस सत्ताधारी “हम” ने कृषि, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और रक्षा उत्पादन जैसे क्षेत्रों में निजी और विदेशी भागीदारी को बढ़ाकर और श्रम और ट्रेड यूनियनों से संबंधित कानूनों को भोथरा और अर्थहीन बनाते हुए मजदूरों को निरीह बना कर मालिकों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। ‘आपदा को अवसर में बदलने’ के हुनर का इससे उम्दा प्रदर्शन भला और क्या हो सकता है!
अगर अमरीका, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन, डेनमार्क आदि देशों की तरह हमारे देश में भी जो मजदूर जहां काम कर रहे थे वहां उनके वेतन का 67 से 80 प्रतिशत तक पैसा सरकार ने खुद भुगतान करना शुरू कर दिया होता तो न तो उन मालिकों और मकान मालिकों ने उन्हें अपने यहां से निकाला होता, न ही मजदूर लोग बेरोजगारी, भुखमरी और महामारी की मार के कारण बदहवास होकर शहरों से अपने गांवों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए होते। आज भी इनकी दुर्दशा के प्रति पूरे तंत्र की बेरुखी और हिकारत का भाव बेचैन कर देने वाला है।
(शैलेश का पूरा लेख।)
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