क्यों है मानवाधिकार आंदोलन को जन आंदोलन बनाने की ज़रूरत ?

10 दिसम्बर 1948 को‌ संयुक्त राष्ट्र संघ ने 30 सूत्री सार्वभौम मानवाधिकार चार्टर घोषित किया था। इस वर्ष इस घोषणा के 75वें वर्ष में हीरक जयन्ती है।

यह घोषणापत्र ब्रिटेन में तेरहवीं सदी के जन विद्रोह के प्रभाव से घोषित ‘स्वतंत्रता के महान चार्टर’ मैग्नाकार्टा, उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता के लिए 1776 में जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में अमेरिकी क्रांति, रूसो के सामाजिक समझौते के विचार से प्रेरित सामंतवाद के ख़िलाफ़ महान फ्रांसीसी क्रांति के घोष ‘स्वतंत्रता समानता और भाईचारा’ के साथ नागरिक अधिकारों के घोषणा की धारावाहिकता है,इस पर मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से मुक्त साम्यवादी समाज के लिए कार्ल मार्क्स के सिद्धांत और 1917 में रूस में लेनिन के नेतृत्व में की गई महान सर्वहारा क्रांति का भी प्रभाव है।

इस घोषणापत्र के 75 वर्ष बीत जाने के ‌बाद‌ समूची दुनिया में और हमारे देश में मानवाधिकारों की क्या स्थिति है,इसका सार संकलन तथा आगे की रणनीतियों पर भी कुछ विचार आज ज़रूरी है। यूं तो इस घोषणापत्र के जारी होने के बाद भी दुनिया भर में मानवाधिकारों का हनन होता रहा है।

युद्ध और गृहयुद्धों आदि में बड़े पैमाने पर इस तरह के हनन देखे जाते रहे हैं, परन्तु दो दशक पहले दुनिया भर में नव उदारवादी नीतियों के लागू होने तथा इसके फलस्वरूप दक्षिणपंथी शासनों के उदय के बाद व्यापक रूप से एक ओर आर्थिक संकट बढ़ा, दूसरे इसके ख़िलाफ़ प्रतिरोध भी फूट पड़ा। व्यापक पैमाने पर इनका दमन किया गया।     

यूरोप, अमेरिका, एशिया और अफ्रीका हर जगह लोकतंत्र तेजी से सिकुड़ रहा है और फासीवादी शासक सत्ता पर काबिज़ हो रहे हैं, जिनके खिलाफ़ हो रहे आंदोलनों का व्यापक दमन किया जा रहा है, इसलिए आज मानवाधिकार आंदोलन का महत्व और जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है।

धार्मिक कट्टरपंथ की नीतियों ने धार्मिक-नस्ली-जातीय कट्टरपंथ के लिए उर्वर ज़मीन तैयार की है। समाज का रहा-सहा जनवादी स्पेस भी विगत दो दशकों के दौरान तेज़ी से सिकुड़ा है और कमज़ोर तबकों पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। पिछले क़रीब ढाई दशकों का समय अनेक‌ भीषण धार्मिक जातीय जनसंहारों का गवाह रहा है।

सामाजिक ताने-बाने में जाति और लिङ्ग के आधार पर मौजूद रही निरंकुश उत्पीड़क प्रवृत्तियों को पूंजी की नयी मानवद्रोही संस्कृति ने नयी ताक़त और नये रूप देने का काम किया है। 

आज के समय में मानवाधिकार आंदोलन अपने सामाजिक अधिकार को व्यापक बनाने और ‌अपने को सशक्त बनाने के बारे में गहराई से सोचे। बुनियादी सवाल यह है कि क्या मानवाधिकार आंदोलन को व्यापक जन भागीदारी और व्यापक सामाजिक आधार वाले एक आंदोलन के रूप में ढालने की ज़रूरत नहीं है? 

 भारत में मानवाधिकार आंदोलन का इतिहास काफी पुराना है। 24 अगस्त 1936 को ऑल इंडिया सिविल लिबर्टीज यूनियन (आईसीएलयू) का गठन हुआ था, जिसके मुख्य अगुआ जवाहरलाल नेहरू थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर इसके अध्यक्ष चुने गए, सरोजिनी नायडू कार्यकारी अध्यक्ष, के बी मेनन मुख्य सचिव और 21 सदस्य वाली एक कार्यकारी समिति बनाई गई।‌

आईसीएलयू की अंतर्निहित भावना की सटीक अभिव्यक्ति इसके उद्घाटन समारोह में नेहरू के भाषण के अंतिम वाक्य में मिलती है “नागरिक अधिकारों का मतलब है सरकार का विरोध करने का अधिकार”। आज़ादी के आंदोलन के समय, विशेष रूप से 1942‌ में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान राज्य के दमन के ख़िलाफ़ आंदोलन खड़ा करने में इस संगठन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

सीमाओं और कमियों के बावज़ूद आईसीएलयू ने एक औपनिवेशिक ढांचे में लोगों के अच्छे खासे तबके में नागरिक अधिकारों की चेतना पैदा करने में प्रशंसनीय कार्य किया। आज़ादी के बाद बने अनेक संगठनों के निर्माण में इससे मिली प्रेरणा से इंकार नहीं किया जा सकता। आज़ादी के बाद भारत में मूलतः तीन तरह के संगठन देखने में आते हैं।

  • एक अनुमान के अंदर भारत में क़रीब दर्जन भर नागरिक अधिकार संगठन सक्रिय हैं। बड़ी संख्या उन संगठनों की‌ है, जो किसी न किसी एनजीओ से जुड़े हैं। उनके सामने समस्या यह है कि उस राज्य के ख़िलाफ़ वे नहीं खड़े हो सकते, जिससे वे अनुदान और फंड लेते हैं।‌ इनका कार्य कुछ हद तक प्रचारात्मक है, ये एनजीओ सेक्टर केवल व्यवस्था के सेफ्टी वॉल्व का काम करते हैं तथा राज्य से ही फंड लेकर मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियां और सेमिनार करते रहते हैं।
  • 1975 में आपातकाल के बाद देश में अनेक बड़े मानवाधिकार संगठन बने। निश्चित रूप से मानवाधिकार के हनन के ख़िलाफ़ इन्होंने लोगों के भीतर कुछ चेतना ज़रूर विकसित की, परन्तु इन संगठनों की दिक्कत यह है, कि ये‌ मध्यवर्गीय दायरे में ही सिमटे रहते हैं। किसी इलाके विशेष या आम जनसमुदाय को इन जनवादी अधिकार आंदोलन के बारे में पता तब चलता है, जब जनवादी आंदोलनकर्मियों की कोई टीम जांच-पड़ताल के लिए उनके पास पहुंचती है। वे लोग इन बुद्धिजीवियों को राजधानी व महानगरों से आए ऐसे भले मानुषों के रूप में देखते हैं, जो उनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं या काले कानूनों या सरकारी दमन-उत्पीड़न का विरोध करते हैं। ये पढ़े-लिखे एक हद तक जागरूक मध्यवर्गीय लोग जनवादी आंदोलन की रिपोर्ट छापने,याचिकाएं दाखिल करने, जांच टीम भेजने, हस्ताक्षर अभियान चलाने जैसे प्रबुद्ध जनों के आंदोलन के रूप में देखते हैं, क्योंकि इनका आम जनता से बहुत संपर्क नहीं रहता है, इसलिए आम‌ मध्यवर्गीय जनता इन्हें आतंकवादियों का‌ समर्थक तक समझने लगती है। 
  • एक तीसरे प्रकार के नागरिक अधिकार संगठन भी मौजूद हैं, जो किसी वामपंथी संगठन के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन जैसी भूमिका निभाते हैं। ये संगठन अपने संगठन के लोगों पर हो दमन को बड़े जोर-शोर से ज़रूर उठाते हैं, लेकिन इनकी समस्या यह है कि जब इन वाम संगठनों का दमन होता है, तब सरकार इन लोगों के जनवादी संगठनों का भी दमन करती है। मैंने देखा है कि आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तर-पूर्व और कश्मीर तक ऐसे ढेरों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं।

आज जनवादी आंदोलनों का मुख्य एजेंडा राजनीतिक आंदोलनों के दमन के विरुद्ध अभियान चलाने, राजनीतिक बंदियों के मुक्ति अभियान और राजनीतिक लोगों पर काले कानूनों के तहत फर्ज़ी मुकदमे का विरोध करने तक सीमित कर दिया जाता है।

राज्य के दमन के ख़िलाफ़ अभियान चलाना निश्चित रूप से एक ज़रूरी काम है, लेकिन जब तक जनता के भीतर अपने मानवाधिकारों के प्रति चेतना नहीं विकसित की जाएगी और मानवाधिकारों के मुद्दों को प्रचार और उद्देलन का मुद्दा नहीं बनाया जाएगा।

इन मुद्दों पर उन्हें जागरूक करके लामबंद नहीं किया जाएगा, तब तक मानवाधिकार आंदोलन की छवि और संरचना राजनीतिक रूप से सचेत ऐसे शहरी बुद्धिजीवियों के आंदोलन की बनी रहेगी, जो मात्र दौरा करने, रिपोर्ट जारी करने, ज्ञापन देने, हस्ताक्षर अभियान चलाने और याचिकाएं दाखिल करने का काम किया करते हैं।

अपने मानवाधिकार के प्रति लोगों के बीच चेतना विकसित करना एक लम्बा और धैर्य भरा काम है। आज प्रबुद्ध जनों तक को नहीं पता है कि उनके मानवाधिकार आखिर क्या हैं?

आज सब को सुलभ सस्ती चिकित्सा व्यवस्था, शिक्षा के अधिकार की गारंटी, पितृसत्ता के ख़िलाफ़ महिलाओं का संघर्ष और पर्यावरण की रक्षा का सवाल भी मानवाधिकार आंदोलन के साथ अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। इन सबको साथ लेकर ही एक व्यापक आधार वाले मानवाधिकार आंदोलन का गठन किया जा सकता है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

More From Author

इस दौर के फरियादी जाएं तो कहां जाएं

विद्युत क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ कर्मचारी लामबंद, सरकार दमन की तैयारी में

Leave a Reply