और हमें लग रहा था कि हम सिर्फ मुस्लिम को मारेंगे 47 के विभाजन में, भिवंडी में, मुजफ्फरपुर में, गोधरा में, बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद, और तमाम तरह के लिंचिंग करके – हम सिर्फ सिखों को मारेंगे 1984 में, लीजिये अब धर्म गुरुओं को मार रहे हैं – बधाई – वसुधैव कुटुम्बकम, जग सिरमौर बनाने वालों तुम सबकी जय हो – हम भीमा कोरेगांव में, ऊना में, विदर्भ में दलितों को मारेंगे, हम आदिवासियों को मारेंगे छग, झारखंड तथा उड़ीसा में, हम गौरी लंकेश, पानसरे और दाभोलकर को मारेंगे क्योंकि हम समाज नहीं हम कबीलों में रहने वाले वहशी जानवर हैं।
1947 के पहले से जो जहर हमने बोया था, जो जाति सम्प्रदाय के इंजेक्शन खून में लगा दिए थे आखिर उनका रंग रुप या प्रभाव तो एक दिन सामने आना ही था – बहुसंख्यक भीड़ आवारा होती है। जो ना साधु देखती है ना पहरेदार सुबोध सिंह – उसे अपनी खून की प्यास और वर्चस्व की भूख मिटाने के लिए टारगेट चाहिये और हमने यह अच्छे से सीख लिया है कि कैसे संगठित होकर जन भावनाएं भड़काकर हत्याएं की जायें।
पैटर्न देखिये और समझने की कोशिश करिये – कहीं भी कहा नहीं जाता कि जुलूस निकालो – पर निकलते हैं, कोई नहीं कहता कि जय सियाराम के नारे लगाओ – पर कोरोना काल मे विक्षिप्तों की तरह से अंधेरे में लोग चिल्लाते हैं, कोई नहीं कहता कि घर की ओर सड़कों पर अराजकों की तरह निकल पड़ो – पर लोग चल देते हैं।
हमने 73 सालों में सीखे अनुशासन, पक्का इरादे, दृढ़ संकल्प, गरिमा, दृष्टि सब खो दिया है, हमारा कोई चरित्र नहीं, हम सब दुष्ट, दुराचारी, व्यभिचारी, निरंकुश और अराजक हैं – और इसके लिए ना संघ को दोष दीजिये, ना भाजपा को, ना कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों को, ना हिन्दू-मुस्लिमों को – जब मायावती की रैली होती है तो ट्रेन में आप घुस नहीं सकते, कोलकाता में ममता की रैली में दुकान बंद करना ही बेहतर है, आरती और अजान के लिए भोंपुओं के खिलाफ आप ना बोलें तो ही बेहतर है – हम जाति – सम्प्रदाय और वर्ग-वर्ण के रूप में आजाद हुए थे – आदम की संतानों और मनुष्य के रूप में तो कत्तई नहीं।
ये दो साधु विधायिका एवं कार्यपालिका हैं और न्याय रूपी ड्राइवर जिनकी आजाद हिंदुस्तान की आवारा भीड़ द्वारा की गई हत्या पुण्य है- सामूहिक मोक्ष की कामना में की गई हत्या, जानते बूझते हुए खुली आँखों से प्रायोजित हत्या और चौथा स्तम्भ वो कार है – जो क्षतिग्रस्त है – जिसमें से खींचकर भीड़ ने इन तीनों को निकाला है और गलती इन तीनों की भी है जो कड़े कानून और लागू नियम के बावजूद कार में लोकतंत्र के अंतिम संस्कार में हिस्सेदारी करने जा रहे थे।
अभी भी हमें ना समझ आएगा, ना हमारे नियंताओं को – एक दिन ये भीड़ दिल्ली और अपनी-अपनी राजधानियों पर चढ़ाई करेगी और कुचलकर रख देगी तंत्र को – जैसे राजस्थान के हाईकोर्ट पर झंडा लहरा दिया था या जैसे बसों और सार्वजनिक सम्पत्ति को पलभर में जलाकर राख कर देती है। कर्फ्यू और दंगों में।
पर शर्म मगर हमको आती नहीं है, मुस्लिम तो 25-30 करोड़ हैं साला एक घँटे में निपटा देंगे- पर ये जो 100 करोड़ हिन्दू, सिख, ईसाई और तमाम दलित आदि हैं इनका नम्बर नहीं आएगा क्या? – आज दो वृद्ध पूजनीय साधु मरे हैं – कल आपका भी नम्बर आएगा और दूसरा कोई नहीं आपका बेटा ही आपको भीड़ में ले जाकर आपका वध करेगा – इंतज़ार करिये – क्योंकि आप कुछ बोलते नहीं। उसे और प्रश्रय देते हैं। हम सब भस्मासुर हैं, कितना भी रामायण-महाभारत दिखा दो हम मूल्य नहीं वध करना सीखेंगे, हम लक्ष्मण रेखा तो बनाएंगे पर सीता अपहरण करेंगे, हम अपनी मौत के खुद जिम्मेदार हैं – अल्लाह ईश्वर क्या मारेगा हमें।
सबका टाईम आएगा – आज नहीं तो कल।
(लेखक संदीप नाईक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और आजकल भोपाल में रहते हैं।)
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