आज भी यदि दलित अपने सामान्य नागरिक अधिकारों को अमल में लाना शुरू कर दें, तो भारत के अधिकांश गांवों में हिंसा का वैसा ही कहर टूटेगा, जैसा महाड़ चावदार तालाब में अंजुली भर पानी पीने के चलते दलितों पर हिंसा का कहर टूटा था- संदर्भ महाड़ सत्याग्रह दिवस (20 मार्च)- संदर्भ मेरा गांव
आज से करीब 98 साल पहले आंबेडकर ने एक सार्वजनिक तालाब में अपने दलित साथियों के साथ पानी पी लिया था, जिस तालाब का नाम चावदार तालाब था। पानी पीने की इस कोशिश के चलते दलितों को लाठी-डंडों से पीटा गया, उन्हें घसीटा गया, उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां दी गईं। दलितों के टोले पर द्विज-सवर्ण कहर बनकर टूट पड़े थे।
सवाल यह है कि 98 साल बाद इस स्थिति में कोई बुनियादी (गुणात्मक तौर पर भिन्न) परिवर्तन आ गया है। मेरा अनुभव बताता है कि नहीं कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया।
मेरे गांव में यदि दलित, संविधान ने उनको जो सामान्य नागरिक अधिकार प्रदान किए हैं, उसे लागू करने की कोशिश करें तो क्या होगा?
उसके पहले थोड़ा सा परिचय गांव की सामाजिक संरचना की देते हैं, गांव में मुख्यत: चार टोले हैं- एक टोला दलितों का है, जिसे गांव का हर कोई गैर-दलित आज भी दलित टोला नहीं कहता है, उसी नाम से उसे पुकारता है, जिस नाम से पुकारना कानूनी तौर पर अपराध घोषित किया जा चुका है, जिसके आधार पर एससी-एसटी एक्ट लग सकता है। वह नाम है-च.. रौटी ।
न दलित ज्यादा इसका विरोध करते हैं, गैर-दलितों के लिए यह नाम सहज है, स्वाभाविक है, क्योंकि उनके बाप-दादे यही कहते आए हैं, यह उनके संस्कार में है। इस बात को दलित छोड़ देते हैं, सोचते हैं, इसी गांव में रहना, इन्हीं लोगों के साथ रहना है, कौन हर बात पर झगड़ा करे।
दूसरा टोला सैंथवारों का है, वैसे उन्हें ओबीसी का सर्टिफिकेट मिला हुआ है, लेकिन तथाकथित असली ठाकुरों से ज्यादा ठाकुर बनते हैं, ठाकुर द्वारा न ठाकुर मानने की कुंठा से ग्रसित होने के चलते आक्रामक ज्यादा हैं। उसी टोले में धोबी (एक दलित जाति), नाई और कहार रहते हैं।
तीसरा टोला ठाकुर बहुल है, जिसमें असली क्षत्रिय (खुद को श्रीनेत कहने वाले), दूसरे नंबर अहीर (कुछ दबंग अहिर), तीन परिवार बाभन और कुछ कहार रहते हैं।
इस परिचय के बाद आपसी नागरिक व्यवहार की चर्चा करते हैं:
सबसे पहला उदाहरण पोखरा (तालाब) से देता हूं, क्योंकि महाड़ सत्याग्रह का संबंध तालाब (पोखरा) से है। पहले की बातें छोड़ देते हैं, आज की बात करते हैं। गांव में एक मुख्य पोखरा है, जो द्विजों-सवर्णों-अहिरों और सैंथवारों के टोले के बीच है। पोखरा में अब तो कोई पानी नहीं पीता, पीने लायक है भी नहीं। कोई जरूरत भी नहीं है।
आज भी पोखरे में दलित अपनी भैंस या कोई अन्य जानवर ले आकर आमतौर नहलाते नहीं हैं, यदि वह ऐसा सामूहिक तौर पर करने लगें, तो गैर-दलित दोनों टोले इसे स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसा करते ही एक संघर्ष शुरू हो जाएगा, क्योंकि भैंस आएगी, तो आदमी भी तालाब में घुसेगा। अभी भी एक अघोषित समझौता है कि यह पोखरा आपकी भैंसों या जानवरों के लिए नहीं है।
छठ पूजा:
मेरे गांव में छट्ठ पूजा सामान्य बात हो गई है, सब सामाजिक समूहों में, कम या ज्यादा। इस मुख्य पोखरे पर गैर-दलित जातियों की महिलाएं ही पूजा कर सकती हैं, दलित महिलाएं किसी अन्य पोखरी या नाले के किनारे जाती हैं। यदि वह यहां आती भी हैं, तो उन्हें अलग किसी कोने में करना होगा। जहां सभी महिलाएं छट्ठ पूजा कर रही हैं, वे नहीं कर सकती हैं। यदि उनके बीच जाकर दलित महिलाएं करने लगें तो हंगामा मच जाना तय है। उसके बाद संघर्ष और हिंसा की पूरी आशंका।
होलिका दहन:
हालांकि होली के एक दिन पहले इस मुख्य पोखरे के किनारे होलिका दहन में आमतौर पर दलित नहीं जाते (ध्यान रहे, जब मैं दलित की बात कर रहा हूं, सिर्फ गांव के च… की बात कर रहा हूं, क्योंकि हमारे गांव के धोबी जाटवों के साथ ज्यादा नजदीकी महसूस करते हैं, जाटवों की तुलना में गैर-दलितों के साथ एका महसूस करते हैं)। लेकिन यदि दलित सामूहिक तौर पर चले जाएं, वह सब करने लगें, जो गैर-दलित सहज अधिकार के साथ करते हैं, तो संघर्ष और हिंसक झड़प तय है। यहां सवाल होलिका में जाना ठीक है या नहीं, इस बात का नहीं है। सवाल सामान्य नागरिक अधिकार का है।
घर बनाने की जमीन और घर बनाना:
वैसे करीब सभी गावों की तरह मेरे गांव में कोई दलित समृद्ध होता है, तो आमतौर पर गांव में बसने की जगह शहर ही चुनता है या सड़क का किनारा। लेकिन यदि गांव में घर बनाना चाहता है, तो गैर-दलित टोले में किसी खाली घर या जमीन खरीद कर घर बनाने के बारे में सोच भी नहीं सकता है, खासकर द्विज-सवर्ण या सैंथवार टोले में। ऐसा करते ही हंगामा मच जाएगा। एक अलिखित समझौता है, कोई दलित गैर-दलित टोले के भीतर घर नहीं बनाएगा, कोई घर नहीं खरीदेगा। यदि वह ऐसा करने की जुर्रत करेगा, तो परिणाम बहुत भयानक हो सकते हैं।
गैर-दलित टोले में दलित के बैठने का अधिकार और दलित टोले में दलित गैर-दलित के बैठने का नागरिक अधिकार:
दलित टोले में कोई गैर-दलित आकर आराम से कहे बिना जो भी खाट है, कुर्सी या स्टूल पर शान से बैठ सकता है, साथ में अहसान भी जता सकता है, प्रगतिशीलता भी दिखा सकता है कि वह दलित के यहां आराम से बैठता है। खास कर नेता टाइप के लोग।
लेकिन गैर-दलित टोले में, खासकर द्विज-सवर्णों-सैंथवारों और कुछ दबंग अहिरों के घरों और दरवाजे पर स्थिति बिल्कुल अलग है। दलित के लिए पहले तो कुर्सी है, स्टूल या खाट-तख्त तय है या नहीं। यदि है, तो तय है कि कौन सी कुर्सी या तख्त। यदि तख्त पर, तो किसी कोने की तरफ, यदि उस पर कोई गैर दलित बैठा है, खासकर द्विज-सवर्ण।
अलिखित और अघोषित समझौता है। दलित के यहां गैर-दलित, खासकर द्विज-सवर्ण शान से जाकर उसके यहां कहीं और किसी कुर्सी या तख्त या खाट पर बैठ सकते हैं। उम्मीद यह होती है कि वह बैठा है, तो उठ जाए, सबसे बेहतर जगह उन्हें दे दे।
यदि दलित गैर-दलितों, विशेषकर द्विज-सवर्णों के घरों-दरवाजों पर जाकर शान से, बिना किसी संकोच के बैठ जाएं, अधिकार के साथ। संघर्ष शुरू हो जाएगा, कब यह हिंसा तक पहुंचेगा, कहा नहीं जा सकता।
गांव के मुख्य दुर्गा मंदिर में प्रवेश का अधिकार:
गांव में दुर्गा का मंदिर बना है। यह आजकल मुख्य मंदिर है, जहां आमतौर पर हर साल दुर्गापूजा द्विज-सवर्ण मनाते हैं। इस मंदिर में आज भी दलितों के प्रवेश का सहज-स्वाभाविक अधिकार नहीं। जबकि यह सार्वजनिक जमीन पर बना है। चंदे से बना है। यदि इस मंदिर में दलित भी उसी अधिकार से प्रवेश करना शुरू कर दें, जैसे गैर-दलित करते हैं, तो हिंसा और संघर्ष लाजिमी है।
शादी-ब्याह-मरनी-जियनी में खाने का अधिकार:
आमतौर पर गैर-दलित, विशेषकर द्विज-सवर्ण किसी भी दलित के शादी-ब्याह में खाने नहीं जाते हैं। हां कोई धनी और ताकतवर दलित उनके लिए विशेष इंतजाम ( खाने क्वालिटी और बैठने दोनों का विशेष इंतजाम) तो कुछ लोग जाएंगे। मरनी-जियनी में तो दलित के यहां गैर-दलित के जाने की बात छोड़ ही दीजिए।
लेकिन गैर-दलित के शादी-ब्याह-मरनी-जियनी में उम्मीद की जाती है कि सारे दलित आएं, लेकिन आज भी वे सामूहिक तौर पर सबके साथ घुल मिकर-बराबरी के हक के साथ, बराबरी के हंसी-मजाक, बहस-ठिठौली के साथ नहीं। ऐसा करते ही कहर टूट पड़ेगा।
इस मामले में भी अलिखित और अघोषित समझौता है। जिसकी मूल बात है कि दलित अपनी सीमा में रहें, यह सीमा रेखा तो बढ़ गई है, बस।
नाच-गाना देखने का अधिकार:
गैर-दलित दलितों के टोले में आकर उनकी औरतों-लड़कियों को शादी-ब्याह में या किसी अन्य अवसर पर नाचते-गाते आराम से देख सकते हैं, वाह-वाह कर सकते हैं, ताली बजा सकते हैं, लेकिन द्विज-सवर्णों-सैंथवारों और दबंग अहिरों के दरवाजे या घर पर जाकर दलित समूह में यह ऐसा नहीं कर सकते। वाह-वाह या आह-आह की आवाज नहीं निकाल सकते।
पंचायत की मीटिंग:
यदि पंचायत की सामूहिक मीटिंग होती है, तो टोले के आधार पर बैठना होता है, लेकिन द्विज-सवर्ण, सैंथवार-अहिर आराम से एक दूसरे से सटकर बैठ सकते हैं, एक दूसरे की पीठ ठोंक सकते हैं, चुहलबाजी कर सकते हैं, लेकिन यदि दलित उनके बीच घुसकर ऐसा करे, तो हंगामा मच जाएगा। लाठी-गोली निकल पड़ेगी।
पंचायत की जगह सामूहिक होगी, लेकिन दलित टोले के लोग एक किनारे बैठेंगे।
होली में रंग डालने या चुहलबाजी या मजाक का अधिकार:
गैर-दलित खासकर द्विज-सवर्ण दलितों की महिलाओं पर रंग डालना या चुहलबाजी करना अपना सहज-स्वाभाविक अधिकार समझते हैं, उनके टोले में जाकर भौजी-चाची कहकर आज भी रंग डाल सकते हैं।
अभी हाल में एक क्रांतिकारी द्विज सवर्ण चर्चा कर रहे थे, कैसे वे अपने पुराने दलित हलवाहे के यहां गए, बैठे गुजिहा खाए, पुराने हलवाहे की बहु (जिन्हें वे भौजी कहते हैं) को रंग डाला, भिगो दिया।
मैंने पूछा आपकी बीबी को भी आपके घर आकर वे भौजी पुकार कर रंग डाल सकते हैं, क्या? आपकी मां या बीबी की बनाई गुजिहा आपकी थाली या प्लेट में आप ही के घर में बैठकर आपके साथ और आपकी मां या बीबी के साथ खा सकते हैं क्या? उनकी आवाज नहीं निकली।
नयन-मटक्का या प्रेम करने का अधिकार:
गैर-दलित, विशेषकर द्विज-सवर्ण ठाकुर-बाभन, सैंथवार और दबंग अहिर दलितों की लड़कियों और बहुओं के साथ आज भी हंसी-मजाक, नयन-मटक्का, प्रेम प्रस्ताव या कुछ और करने का अधिकार सहज नागरिक अधिकार मानते हैं, लेकिन यदि दलित लड़के या पुरुष ऐसा सहज-स्वाभाविक तौर करने लगें, तो हिंसा कोई रोक नहीं सकता।
ऐसी सैकड़ों-हजारों बातें। किस-किस की चर्चा करूं। यह सब सामान्य नागरिक अधिकार हैं, जो संविधान सबको प्रदान करता है, यदि ऊपर के या ऐसे अन्य नागरिक अधिकार दलित अमल लाना (व्यवहार में लागू करना) शुरू कर दें, तो कम से कम द्विज-सवर्ण बहुल हर गांव में हिंसा और तीखा संघर्ष रोज-ब-रोज की घटना बन जाएगी।
गांव में शांति, अमन-चैन इसलिए है, क्योंकि दलित विभिन्न कारणों से अपने संविधान सम्मत नागरिक अधिकार अमल में नहीं लाते।
ऐसा नहीं है कि इन अधिकारों के हासिल हो जाने से दलितों की गांव कोई बहुत सुखद जगह बन जाएगी, उनकी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी, उनके सारे दुख-दर्द मिट जाएंगे, खुशियां ही खुशियां आ जाएंगी, गांव रैदास बेगमपुरा बन जाएगा या आंबेडकर समता, स्वतंत्रता आधारित आदर्श समाज या समाजवाद आ जाएगा।
लेकिन आंबेडकर द्वारा महाड़ में कहे गए शब्दों को उधार लेकर कहें तो यह सामान्य अधिकार सबके समान इंसान होने के अधिकार से जुड़े हैं। दलितों को समान स्तर का इंसान मानने से जुड़ा हुआ है। आज भी दलितों का बड़ा हिस्सा नागरिक जीवन में इस बात के लिए संघर्ष कर रहा है कि उसे भी सभी इंसानों की तरह ही इंसानी दर्जा प्राप्त हो। चाहे, बातें कितनी बड़ी-बड़ी क्यों ने हो रही हों।
(क्या यहां हम इसलिए आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है? क्या यहां हम इसलिए आए हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? नहीं! दरअसल, इंसान होने का हमारा हक जताने के लिए हम यहां आए हैं: आंबेडकर ’)
ऐसा नहीं है कि हमारे गांव के द्विज-सवर्ण या सैंथवार कोई धन्ना सेठ हैं या बड़ी-बड़ी जमीनों के मालिक हैं, ज्यादातर निम्न मध्यवर्ग, कुछ एक मध्य वर्ग की हैसियत वाले हैं। ज्यादातर के बेटे बड़े महानगरों, विशेषकर मेट्रो शहरों में कार्पेंटर, पेंटिंग-पॉलिश या इसी तरह के अन्य काम करते हैं, कुछ इन सब चीजों के ठेकेदार हो गए हैं, लेकिन वे भी गांव में दलित को अपने बराबर का नागरिक मानने को तैयार नहीं हैं।
यह एक पूर्वांचल के गांव की चर्चा है, गुजरात में द्विज-सवर्णों की भूमिका में पटेल हैं, महाराष्ट्र में मराठा और ब्राह्मण हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में जाट हैं, हरियाणा में इस भूमिका में द्विज-सवर्णों-बनियों के साथ जाट हैं, बंगाल में द्विज-सवर्ण हैं, केरल में नायर और कुछ अन्य पिछड़ी कही जाने वाली जातियां हैं, तमिलनाडु में पिछड़े वर्ग की कही जाने वाली जातियां हैं, कहीं कोई और है, दलितों का सवाल आते ही सबके सब अलग-अलग प्रदेशों या एक ही प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में थोड़े-बहुत अंतरों के साथ एक भूमिका या एक मानसिकता में आ जाते हैं। सब के सब यह मानते हैं कि आप हमारे जैसे इंसान नहीं हैं, आपके अधिकार और हमारे अधिकार बराबर नहीं हो सकते हैं। आप अपनी औकात में रहें, हो सकता है, हां 98 वर्षों बाद औकात का दायरा थोड़ा से कहीं-कहीं बढ़ गया है।
महाड़ सत्याग्रह के 98 वर्ष बाद आज भी दलित इंसान होने के हक के लिए देश के एक बड़े हिस्से में संघर्ष कर रहे हैं। इसके आगे की बात तो छोड़ ही दीजिए, फिलहाल।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)
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