इंटरनेट बंदी: राजनीतिक नियंत्रण का एक उपकरण 

Estimated read time 1 min read

भारत इंटरनेट बंद करने के मामले में दुनिया में नंबर बन चुका है और पिछले पांच सालों में किसी भी अन्य देश के मुकाबले ज्यादा बार इंटरनेट बंदी की है, जिससे करीब 12 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। 

पूर्वोत्तर के मणिपुर में ब्रायन अकोईजाम को अपनी मनोरंजन कंपनी खड़ी करने में कई साल लग गये। हर माह 90 लाख व्यूज़ के साथ यूट्यूब चैनल, एक स्थानीय सिनेमा और क्षेत्रीय फिल्मों के प्रमोशन का कार्य करते हुए उनके यहां बीस से ज्यादा लोगों का स्टाफ था। वह कहते हैं कि व्यवसाय अच्छा था लेकिन तीन मई तक ही मतलब जिस दिन अचानक और मनमाने तरीके से सरकार ने इंटरनेट बंद कर दिया। 

शनिवार को, आखिरकार 140 दिन बाद मोबाइल इंटरनेट की वापसी हुई। लेकिन अकोईजम जैसों के लिए लगभग पांच महीने के इंटरनेट ब्लैकआउट के परिणाम विनाशकारी रहे हैं। फिल्म और मनोरंजन सामग्री प्रमोट करने वाले उनके यूट्यूब चैनल पर मई में बैन के बाद व्यूज़ में लगभग 90 फीसदी की गिरावट आई। आखिर उन्हें अपना कारोबार बंद करना पड़ा। 

वह बताते हैं, “मेरे यहां 27 कर्मचारी थे, सबको निकालना पड़ा। मुझे बहुत बुरा लगा कि मैं उनका रोज़गार नहीं बचा पाया लेकिन कोई चारा नहीं था। सरकार की तरफ से की गयी इंटरनेट बंदी से मेरे जैसे लोगों का कारोबार तबाह हो गया।”

मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी समुदायों के बीच छिड़े जातीय संघर्ष के कारण इंटरनेट बंदी को सरकार ने सही ठहराया था। यह हिंसा अब तक 175 जानें ले चुकी है और अब भी थम नहीं रही।

लेकिन कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिए राज्य की तरफ से छोटे इंटरनेट ब्लैक आउट के रूप में शुरू की गई बंदी महीनों चली, जिसका भयावह असर क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और लोगों की आजीविका पर पड़ा। कड़े नियंत्रण के साथ ब्रॉडबैंड इंटरनेट हालांकि थोड़ा पहले बहाल किया गया लेकिन चूंकि लगभग 95 फीसदी लोग मोबाइल कनेक्शन के ज़रिये इंटरनेट पाते हैं, इस दौरान मणिपुर में अधिकांश लोग ऑनलाइन नहीं हो पा रहे थे। 

यह पहली बार नहीं है कि भारत सरकार ने अनिश्चितकाल के लिए इंटरनेट बंदी की है। सरकारों की तरफ से इंटरनेट बंदी के मामलों को ट्रैक करने वाली गैर मुनाफेकारी संस्था एक्सेस नाओ के अनुसार पिछले पांच सालों में भारत ने किसी भी अन्य देश के मुकाबले सर्वाधिक बार इंटरनेट बंदी की है, केवल पिछले साल 84 बार इंटरनेट बंदी की गई, जिससे करीब 12 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं।

संकटग्रस्त क्षेत्र कश्मीर में, राज्य का दर्जा छीनने के बाद सरकार ने अगस्त 2019 से फरवरी 2021 तक 18 महीने की इंटरनेट बंदी लागू की थी जो किसी भी लोकतंत्र के इतिहास में सबसे बड़ी अवधि है। उससे पहले दार्जिलिंग में 2018 में अशांति भड़कने के बाद इंटरनेट बंदी की गई थी जो सौ से ज़्यादा दिन चली। 

एक्सेस नाओ के एशिया पैसिफिक नीति निदेशक रमनदीप सिंह चीमा कहते हैं, “हम ऐसे बिंदु पर हैं जहां इंटरनेट बंदी का इस्तेमाल भारत में आम हो चुका है। यह राजनीतिक नियंत्रण का उपकरण बन चुका है। विरोध, अशांति या किसी तरह के प्रतिरोध की हल्की झलक मिलते ही वह पहला काम यही करते हैं कि बिना किसी जवाबदेही के इंटरनेट बंद कर देते हैं।”

इंटरनेट बंदी के मामले में विश्व नेता का खिताब रूस, सूडान, ईरान, म्यांमार और इथियोपिया जैसे एकाधिकारवादी देशों से भी ज़्यादा 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही मोदी के बहुप्रचारित “डिजीटल इंडिया” दर्शन के विपरीत जा रहा है। 

इसी महीने की शुरुआत में जब दिल्ली ने जी-20 सम्मेलन में विश्व के कुछ बड़े शक्तिशाली नेताओं की मेज़बानी की, मोदी ने इसका इस्तेमाल डिजीटल क्रांति में खुद को वैश्विक नेता के रूप में प्रचारित करने के लिए किया और दावा किया कि देश की डिजीटल भुगतान प्रणाली ऐसी है कि इसका इस्तेमाल एक महीने में 10 करोड़ से अधिक सौदे किये जाते हैं और इस प्रणाली का विश्व भर में अनुसरण किया जा रहा है। 

चीमा कहते हैं, “यह पूरी तरह विरोधाभासी है। एक तरफ देश अपनी डिजिटाइज्ड प्रणालियों की शेखी बघारता है और दुनिया से अनुसरण करने के लिए कहता है, दूसरी तरफ वह लगातार इंटरनेट बंदी थोपते हैं कि कोई डिजिटाइज़्ड प्रणाली काम न कर पाए और लाखों लोगों की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, लाखों डॉलरों का नुकसान होता है। 

मणिपुर में 140 दिन तक इंटरनेट बंदी का काफी प्रभाव हुआ है। बंदी से संघर्ष के बारे में सूचनाबंदी की स्थिति पैदा हो गई, जिसका नतीजा भ्रामक जानकारी के प्रसार और हिंसा के दौरान खासकर अल्पसंख्यक कुकी समुदाय के विरुद्ध बलात्कारों, हत्याओं भयावह अत्याचारों को ढंकने के रूप में निकला। आर्थिक प्रभाव भी काफी हुआ है। इंटरनेट फ्रीडम सोसायटी की गणना के अनुसार मणिपुर में बंदी से राज्य को छह मिलियन अमरीकी डॉलर और देश को चार बिलियन अमरीकी डॉलर का नुकसान हुआ है। 

मुनाफे में चल रहे कारोबार ठप हो गये, छात्र अपनी पढ़ाई नहीं पूरी कर पा रहे और ऐसे लोग जो ई-कॉमर्स क्षेत्रों में कार्यरत हैं यानी या उबर जैसे एप के लिए काम करते हैं या अपने उत्पाद ऑनलाइन बेचते हैं, उनके लिए मोबाईल इंटरनेट न होने का मतलब है, रोज़गार नहीं। राज्य के स्वास्थ्य, कल्याणकारी और फूड सब्सिडी कार्यक्रम, जिनमें से अधिकतर डिजिटाइज़्ड हैं, बुरी तरह प्रभावित हुए और हिंसा के कारण विस्थापित अस्थायी शिविरों में रह रहे 60,000 लोगों की मुश्किलें और बढ़ गईं। 

सदाम हंजबाम मणिपुर में एक स्वास्थ्य गैर सरकारी संस्था चलाते हैं, जो मानसिक स्वास्थ्य और ट्रॉमा मशविरे में मदद करती है। उन्होंने बताया कि इंटरनेट के बिना वह खुद को ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचने या निधि जुटाने में असमर्थ पा रहे हैं। उन्होंने बताया, “आम तौर पर हम हर महीने 200 लोगों तक की मदद करते हैं। पिछले चार महीने से इंटरनेट बंद होने के कारण इक्का दुक्का लोगों की ही मदद कर पाए। हमारी अधिकांश सेवाएं ठप हो गई हैं।

2017 में भाजपा सरकार ने औपनिवेशिक काल के 1885 के टेलीग्राफ अधिनियम में चुपके से नये नियम जोड़े जो अदालत जाये बिना सरकार को इंटरनेट बंदी के असीमित लेकिन अस्पष्ट अधिकार देते हैं। तब से ही इंटरनेट बंदी भारत में आम हो चुकी है। जुलाई में हरियाणा में एक राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी समूह की रैली के बाद सांप्रदायिक दंगे भड़कने पर कई दिनों तक इंटरनेट बंदी की गई। इससे पहले मार्च में एक अलगाववादी नेता के पुलिस के चंगुल से भागने पर पंजाब में राज्यव्यापी बंदी की गई। स्कूल परीक्षाओं के दौरान भी अक्सर नकल रोकने के लिए इंटरनेट बंद की है। 

भाजपा सरकार ने इंटरनेट सेंसरशिप को कानून एवं व्यवस्था के आधार पर जायज़ करार दिया है। गृह मंत्री अमित शाह दावा करते हैं कि इसने कश्मीर जैसे मामलों में “रक्तपात” रोका और “बच्चों को बचाया”। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार प्रमाण के रूप में इसका खास आधार नहीं है बल्कि मोदी सरकार के तहत इन बंदियों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक स्वतंत्रताओं का हनन हुआ है। ऑनलाइन इकोसिस्टम के अभाव में मानवाधिकार हनन और हिंसा को बढ़ावा मिला है और सत्ता को विफलताओं की जवाबदेही से बचाव मिला है। 

मणिपुर में, एक कुकी महिला को निर्वस्त्र घुमाने के वीडियो और सामूहिक बलात्कार की घटना को इंटरनेट तक पहुंचने और वायरल होने में तीन महीने लगे। तब जाकर लोगों को वहां हो रही बर्बरता का पता चला जबकि बगैर किसी चुनौती के भ्रामक जानकारी और फेक न्यूज़ महीनों फैलाई जाती रहीं। मणिपुर में एक कुकी कार्यकर्ता सुआन नौलक कहते हैं, “लंबी इंटरनेट बंदी का इस्तेमाल सरकार ने नैरेटिव नियंत्रण के लिए और अपना एजेंडा चलाने के लिए किया, यह पूरी तरह एकतरफा था।”

इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के नीति निदेशक प्रतीक वाघरे कहते हैं कि इंटरनेट बंदी में राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर जवाबदेही और पारदर्शिता में अभाव भी “बेहद गलत” है। कानूनन, सरकार 15 दिन से ज़्यादा अवधि इंटरनेट बंदी नहीं कर सकती और सभी आदेश बाकायदा सार्वजनिक किये जाने चाहिए। वाघरे कहते हैं, वास्तव में ऐसा लगभग नहीं ही होता। मणिपुर के मामले में 25 जुलाई के बाद से बंदी पर कोई अपडेटेड आदेश नहीं प्रकाशित किया गया और मोबाईल इंटरनेट शुरू करने के निर्णय की घोषणा मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने शनिवार को अचानक की। 

विभिन्न पार्टियों का एक संसदीय समूह जो इंटरनेट रेगुलेशन पर नज़र रखता है, ने लगातार इंटरनेट बंदी के तरीकों पर सवाल उठाया है पर उसकी अनदेखी ही की गई है। कइयों ने इसकी तरफ ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है कि बंदी से सबसे वंचित तबका सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है। अधिकांश कल्याणकारी योजनाएं ऑनलाइन और डिजिटाइज़्ड हैं और इंटरनेट के अभाव में कई उनके लाभ, नकदी हस्तांतरण और फूड सब्सिडी तक नहीं ले पाते। 

डिजीटल पर ज़ोर देने के कारण पिछड़ जाने वाले लोगों के लिए कार्यरत समूह लिबटेक इंडिया के वरिष्ठ अनुसंधानकर्ता चक्रधर बुद्धा कहते हैं, “इंटरनेट बंदी भोजन के अधिकार से लेकर, कार्य के अधिकार और स्वास्थ्य सेवा के अधिकार को प्रभावित करती हैं। यह केवल कोई असुविधा नहीं हैं, बल्कि मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन हैं। 

(“द गार्डियन” से साभार। अनुवाद : महेश राजपूत)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments