दिल्ली। मुकेश चंद्राकर बस्तर की पत्रकारिता का वह नाम जिसे देश-विदेश से आने वाले सभी पत्रकार मिलने की इच्छा रखते थे। एक युवा पत्रकार जिसे बीजापुर जिले समेत आस-पास के जिलों की अच्छी जानकारी के साथ-साथ घने जंगलों का रास्ता याद था।
यही कारण था कि बाहर से आने वाला प्रत्येक पत्रकार उनसे मिलना ज़रूर चाहता था, और मुकेश भी सभी का सहृदय स्वागत करते थे। उनका काम करवाने के साथ-साथ आप-पास की जानकारी ज़रूर देते थे।
मेरी मुलाकात मुकेश से होने के पहले उनके ‘बस्तर जंक्शन’ की वीडियो से हुई थी। जनचौक द्वारा मुझे साल 2023 में बस्तर में रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया था। इसी दौरान जब मैं बस्तर से संबंधित रिसर्च कर रही थी तो ‘बस्तर जंक्शन’ की रिपोर्ट दिखाई दी।
वीडियो थी नक्सलियों से संबंधित। यहीं से मुकेश की वीडियो को देखने का सिलसिला शुरू हुआ जो चुनाव के दौरान इंटरव्यूज तक चला।

जनचौक के लिए की गई स्टोरी में उन्होंने कई बार मुझे सहयोग दिया था। साल 2023 में चुनाव से ठीक पहले सुकमा जिले के तालमेटला के जंगलों में पुलिस द्वारा दो आदिवासियों को नक्सली बताकर मार दिया गया था।
इस घटना के बाद मुकेश और विकास तिवारी रिपोर्ट करने के लिए जाते हैं और खबर आती है कि मारे गए दो लोग रवा देवा और सोढ़ी कोसा किसी काम से अपने बहनोई के घर गए थे। रास्ते में फायरिंग के दौरान उन्हें मार दिया गया।
इस खबर के आने के बाद ही दिल्ली की मीडिया ने इस पर संज्ञान लिया और साल 2023 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान यह अहम मुद्दा बन गया। यह युवा पत्रकार की हिम्मत थी कि जब लोग स्टूडियो में बैठकर रिपोर्टिंग कर रहे थे, उन्होंने बस्तर के आदिवासियों के लिए ग्राउंड पर जाना चुना।
जनचौक में भी इसी स्टोरी को प्रमुखता से छापा गया। मैंने इस स्टोरी के लिए मुकेश से फुटेज और ग्राउंड रियलिटी के बारे में फोन पर पूछा। वह बिना झिझक बोले ‘मैम आपको सारे फुटेज भेज देता हूं। ज़रूरी है ऐसी खबरों को दिखाया जाए ताकि आदिवासियों की आवाज सरकार तक पहुंचे’।
मुकेश बस्तर के सबसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में रिपोर्टिंग करते थे। भोपालपट्टनम में आए बाढ़ से लेकर पुल न होने के कारण ग्रामीणों को होने वाली परेशानियों तक, उन्होंने ऐसी खबरों को हमेशा तवज्जो दिया है।

पिछले साल जब पूरा देश नये साल के जश्न में मगन था तब बीजापुर में माओवादी और सुरक्षाबल के बीच मुठभेड़ चल रही थी। तीन जनवरी के दिन इसी मुठभेड़ में एक दुधमुंही बच्ची को उस वक्त गोली लग गई जब वह अपनी मां की गोद में दूध पी रही थी।
इस खबर को अपने चैनल के लिए प्रमुखता से कवर करने के साथ-साथ उन्होंने लगातार उसके लिए न्याय की मांग करते रहे पुलिस अधिकारियों से इसका जवाब-तलब करने की कोशिश की।
मुकेश ने हर तरह की खबरें कीं। सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने को लेकर उनकी खबरों द्वारा सकारात्मक असर पड़ने तक।
जिस गांव में दुधमुंही बच्ची की मौत की खबर दिखाई बाद में उसी गांव में स्कूल बनने को भी प्रमुखता से अपने चैनल में जगह दी।

ये तो था मुकेश के रिपोर्टिंग का सिलसिला, मेरी निजी तौर पर उनसे अच्छी पहचान और बातचीत थी। साल 2023 में विधानसभा चुनाव के दौरान उनसे पहली बार मुलाकात हुई। बीजापुर बाजार में बीचों-बीच उनका ऑफिस था। जहां नक्सलवाद पर कई सारी किताबों के साथ-साथ पत्रकारिता से संबंधित अन्य सामान रखा हुआ था।
इसी जगह बीजापुर के अन्य पत्रकार भी आकर बैठते थे। छोटा कद, भूरी दाढ़ी, घुंघराले बाल पैरों में कैंची चप्पल और हाफ शर्ट यही मुकेश की पहचान थी। पहली बार शाम के समय अपनी ऑफिस पर मुझे मिले।
सबसे पहले पूछा ‘मैम क्या कवर करना चाह रही हैं वह बता दीजिए फिर मैं कुछ करता हूं’ मैंने उन्हें बताया चुनाव से संबंधित कुछ कवर करना है साथ ही टॉपिक की जानकारी दी। बोले सुबह तैयार हो जाएंगे, हम लोगों के साथ ही चल लीजिएगा। हम लोगों को भी इस पर ही काम करना है। इस तरह उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई।
इसके बाद बात का सिलसिला चलता रहा। हर मुद्दे पर गहरी चर्चाएं हुईं। यहां तक की चुनाव के बाद भी कई जगहों में रिपोर्टिंग के लिए उन्होंने मदद की।

पिछले साल अक्टूबर की बात है मैं पूरे साल में पुलिस और नक्सली मुठभेड़ में मारे गए आदिवासियों पर स्टोरी कर रही थी। मुझे पता था बीजापुर की जानकारी मुकेश अच्छे से दे पाएंगे। उनके चैनल पर प्रसारित खबरों से भी इनपुट लेने की स्वीकृति भी मिली।
मैंने उन्हें फोन कर कई तरह की जानकारी ली और पूछा कि आपके चैनल में जो जानकारी है उसे इस्तेमाल कर सकती हूं? बड़े सहज भाव से बोले ‘इसके लिए अनुमति की क्या ज़रूरत है, आप आराम से खबरों के लिए कंटेंट ले सकती हैं। इससे बस्तर की खबर बाहर तक जा पाएगी”।
इसके बाद सामान्य हाल चाल के दौरान उन्होंने पूछा बस्तर कब आ रही हैं? मैंने कहा जल्द ही, बोले आइये ‘फिर मिलकर बात होगी’।
फोन पर मुकेश से मेरी यही आखिरी बात हुई।
इसके बाद बात नहीं हो पाई लेकिन व्हाटसऐप पर उनकी खबरों का लिंक आता रहा था। 17 दिसंबर की दोपहर मैंने उनके दोनों नंबर पर कॉल लगाया लेकिन लगा नहीं और इसी दिन आखिरी बार मुकेश चंद्राकर के नंबर को डायल किया था।
साल की शुरुआत में तीन जनवरी के दिन जब युकेश चंद्राकर का फेसबुक पर मैसेज देखा तो मेरे होश उड़ गए कि एक जनवरी से उनका भाई (मुकेश) लापता है। प्लीज उसे खोजने में मदद की जाए।
मैंने तुरंत अपना व्हाटसऐप खोला मुझे याद था कि एक जनवरी की शाम खबर का एक लिंक आया था।
मैने तुरंत मुकेश के मित्र को फोन लगाया और बताया कि शाम को खबर का लिंक आया था फिर ये सब कब हुआ? बोले रात के 9 बजे के बाद से ही फोन स्विच ऑफ है। फिलहाल कुछ पता नहीं चल रहा है।
इतने में शाम को एक मैसेज आया छत्तीसगढ़ के युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या- शव सेप्टिक टैंक में मिला।
मैं इस खबर को मानने को तैयार नहीं थी। वजह सिर्फ एक थी इतने बड़े पत्रकार को भी बिल्डर कुछ नहीं समझ रहे हैं। मुकेश के एक ट्वीट और खबर से बीजापुर में कई काम हो जाते थे।
आखिरी खबर में ही शिक्षादूतों को तीन महीने की तनख्वाह दिलाने की प्रभावशाली रिपोर्टिंग थी। ऐसे में किसी पत्रकार को कैसे मार दिया जा सकता है। यह सवाल मुझे शायद जीवनभर सालता रहेगा कि भ्रष्टाचार को उजागर करने की कीमत एक युवा पत्रकार को अपनी जान देकर क्यों चुकानी पड़ी और कैसे बेखौफ माफियाओं का मन इतना बढ़ा हुआ है कि उसे सेप्टिक टैंक में मार कर डाल देता है।
अंतिम जोहार साथी।
(जनचौक के लिए पूनम मसीह का संस्मरण।)