Friday, April 26, 2024

राजद्रोह कानून: विधि आयोग ने की सजा अवधि बढ़ाने की सिफारिश, नये केस दर्ज करने पर सुप्रीम कोर्ट की रोक बरकार

एक ओर केंद्र सरकार के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि देशद्रोह को अपराध बनाने वाली आईपीसी की धारा 124ए की समीक्षा की जा रही है। उन्होंने कहा कि आईपीसी की धारा 124-ए की समीक्षा पर चर्चा अंतिम चरण में है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट में धारा 124-ए को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर की गई हैं। अटॉर्नी जनरल का पक्ष जानने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं पर सुनवाई अगस्त तक के लिए टाल दी है। वहीं दूसरी ओर भारत के विधि आयोग ने राजद्रोह के मामलों में जेल की न्यूनतम अवधि तीन साल से बढ़ाकर सात साल करने की सिफारिश की है। आयोग ने इसके पीछे दलील दी कि यह अदालतों को किए गए कृत्य के पैमाने और गंभीरता के अनुसार सजा देने की अनुमति देगा।

देश में अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे देशद्रोह कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई 2022 को बेहद सख्त फैसला दिया है। कोर्ट ने आदेश दिया है कि जब तक आईपीसी की धारा 124-ए की री-समीक्षा प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक इसके तहत कोई मामला दर्ज नहीं होगा। कोर्ट ने पहले से दर्ज मामलों में भी कार्रवाई पर रोक लगा दी है। वहीं, इस धारा में जेल में बंद आरोपी भी जमानत के लिए अपील कर सकते हैं।

विधि आयोग ने ‘राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल’ रिपोर्ट में कहा है कि उसकी पहले की रिपोर्ट में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124-ए (राजद्रोह कानून) की सजा को बहुत अजीब बताया गया था, क्योंकि इसमें आजीवन कारावास या तीन साल की सजा का प्रावधान है, लेकिन बीच में कुछ भी नहीं है। राजद्रोह कानून के तहत न्यूनतम सजा ‘जुर्माना’ देना है। आयोग ने कहा कि आईपीसी के अध्याय छह में अपराधों के लिए दिए गए वाक्यों की तुलना से पता चलता है कि धारा 124-ए के लिए निर्धारित सजा में स्पष्ट असमानता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि आईसीपी का अध्याय छह राज्य के खिलाफ अपराधों से जुड़ा है। इसलिए सुझाव दिया जाता है कि प्रावधान को संशोधित किया जाए ताकि इसे अध्याय छह के तहत अन्य अपराधों के लिए प्रदान की गई सजा की योजना के अनुरूप लाया जा सके। इससे अदालतों को कृत्य के पैमाने और गंभीरता के अनुसार राजद्रोह के मामले के लिए सजा देने की अधिक अनुमति मिलेगी। आयोग ने धारा 124-ए के वाक्यांश में बदलाव का भी सुझाव दिया। विधि आयोग ने इसमें ‘हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति’ शब्द जोड़ने का सुझाव दिया।

आईपीसी की मौजूदा धारा 124-ए में कहा गया है, राजद्रोह- जो बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों या दृश्य प्रस्तुति द्वारा, जो कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, असंतोष पैदा करेगा या करने प्रयत्न करेगा, उसे आजीवन कारावास, या तीन वर्ष की कैद और जुर्माना अथवा सभी से दंडित किया जाएगा।

लेकिन, विधि आयोग ने अब इस धारा को इस प्रकार बदलने की सिफारिश की है- जो कोई भी मौखिक या लिखित या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा घृणा या अवमानना करता है या प्रयास करता है, या उत्तेजित करता है या भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष भड़काने का प्रयास करता है, उसे आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी। जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है या सात साल तक की अवधि के लिए कारावास के साथ जुर्माना जोड़ा जा सकता है या जुर्माना लगाया जा सकता है।

केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि सरकार राजद्रोह कानून (भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए) पर अंतिम निर्णय लेने से पहले सभी हितधारकों के साथ परामर्श करेगी। मंत्री ने कहा कि भारत के विधि आयोग द्वारा कुछ संशोधनों और बढ़ी हुई सजा के प्रावधान को बनाए रखने की सिफारिश बाध्यकारी नहीं है। कानून मंत्री ने कहा कि राजद्रोह पर विधि आयोग की रिपोर्ट व्यापक परामर्श प्रक्रिया में एक कदम है। रिपोर्ट में की गई सिफारिशें बाध्यकारी नहीं हैं। अंतत: सभी हितधारकों से परामर्श करने के बाद ही अंतिम निर्णय लिया जाएगा।

कांग्रेस ने भाजपा सरकार पर राजद्रोह कानून को और अधिक “कठोर” बनाने की योजना बनाने और आम चुनावों से पहले यह संदेश देने का आरोप लगाया कि इसका इस्तेमाल विपक्षी नेताओं के खिलाफ किया जाएगा। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने एआईसीसी मुख्यालय में कहा कि इसके जरिए औपनिवेशिक मानसिकता का संदेश दिया गया है। इसमें कहा गया है कि शासक और शासित के बीच एक दूरी होगी और इस कानून के माध्यम से गणतंत्र की नींव को उखाड़ फेंका जाएगा।

विधि आयोग की सिफारिशों को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता ने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि इसके जरिए आम चुनाव से पहले एक संदेश दिया गया है कि इसका इस्तेमाल एकतरफा तरीके से खासकर विपक्षी नेताओं के खिलाफ किया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से देशद्रोह की सीमा परिभाषित करने को कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने आलोचकों, पत्रकारों, सोशल मीडिया यूजर्स और नागरिकों के खिलाफ देशद्रोह कानून के गलत इस्तेमाल को लेकर भी चिंता जाहिर की है। बीते साल सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर रोक लगा दी थी। तत्कालीन सीजेआई एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा था कि नई प्राथमिकी दर्ज करने के अलावा, इस कानून के तहत दर्ज मामलों की जांच समेत सभी कार्यवाही पर रोक रहेगी। पीठ ने अपने आदेश में कहा कि आईपीसी की धारा 124-ए की कठोरता वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है।

पीठ ने कहा कि जब तक इस कानून के प्रावधानों की जांच पूरी नहीं होती, तब तक कानून के प्रावधानों का उपयोग जारी रखना ठीक नहीं होगा। इससे पहले, बीते साल 31 अक्तूबर को शीर्ष अदालत ने देशद्रोह कानून की समीक्षा के लिए सरकार से उचित कदम उठाने के लिए कहा था। इसके लिए सरकार को अदालत ने अतिरिक्त समय भी दिया था। साथ ही देशद्रोह कानून और एफआईआर के परिणामी पंजीकरण पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट अपने 11 मई के निर्देश को बढ़ा दिया था। बीते साल अक्टूबर में केंद्र सरकार ने पीठ से समीक्षा के लिए कुछ और समय मांगते हुए कहा था कि संसद के शीतकालीन सत्र में भी इस पर कुछ हो सकता है।

1951 में पंजाब हाईकोर्ट और 1959 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धारा 124-ए को असंवैधानिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जड़ें काटने वाला माना। 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में कहा कि सरकार या राजनीतिक दलों के खिलाफ दिए वक्तव्य गैर-कानूनी नहीं होते। लेकिन जन व्यवस्था बिगाड़ने वाले वक्तव्य देशद्रोह की श्रेणी में आएंगे।

विधि आयोग की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि 1837 में आईपीसी का ड्राफ्ट बनाने वाले अंग्रेज अधिकारी थॉमस मैकॉले ने देशद्रोह कानून को धारा 113 में रखा। लेकिन किसी भूलवश इसे 1860 में लागू आईपीसी में शामिल नहीं किया जा सका। 1870 में विशेष अधिनियम 17 के जरिये सेक्शन 124-ए आईपीसी में जोड़ा गया। यह ब्रिटेन के ‘देशद्रोह महाअपराध अधिनियम 1848’ की नकल था, जिसमें दोषियों को सजा में तीन साल की कैद से लेकर हमेशा के लिए सागर पार भेजना शामिल था।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, देश में 2015 से 2020 के बीच राजद्रोह के 356 मामले दर्ज किए गए और 548 लोगों को गिरफ्तार किया गया। हालांकि, छह साल की इस अवधि में राजद्रोह के सात मामलों में गिरफ्तार केवल 12 लोगों को दोषी करार दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में राजद्रोह कानून की वैधता को बरकरार रखा था और इसका दायरा सीमित करने का प्रयास किया था ताकि इसका दुरुपयोग नहीं हो।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा समेत पांच पक्षों की तरफ से देशद्रोह कानून को चुनौती देने वाली याचिका दायर की गई थी। मामले में याचिकाकर्ताओं का कहना है कि आज के समय में इस कानून की जरूरत नहीं है। देशद्रोह कानून पर याचिकाएं दायर करने वालों में पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी, मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमचा, छत्तीसगढ़ के कन्हैयालाल शुक्ल शामिल हैं।

(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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