बदलते दौर के हिसाब से उभरते बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसी संकल्पनाओं को अपने सीने में सहेजे समेटे लोकतंत्र और लोकतंत्रिक शासन व्यवस्था की बयार आज पूरे विश्व, सभी महाद्वीपों और सभी देशों में निरंतर निर्विकल्प रूप से बह रही है। पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों, मान्यताओं, आदर्शों और मर्यादाओं को स्थापित करने हेतु राजनैतिक परिवर्तन की लहर चल रही है और परिवर्तन के लिए अनिवार्य रूप से आन्दोलन भी चल रहे हैं। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि-आज विश्व में वंशानुगत शासन व्यवस्थाएँ धीरे-धीरे ध्वस्त हो रही हैं और आज दुनिया के गिने-चुने देशों में ही राजतंत्रतात्मक शासन प्रणालियां मौजूद हैं।
आज अंगुलियों पर गिने जाने लायक देशों में ही राजा, बादशाह या सैनिक तानाशाह देखने को मिलते हैं। तर्क, बुद्धि, विवेक में विश्वास करने वाले विचारकों, मनुष्य के मूलभूल अधिकारों और मनुष्य की गरिमा के प्रति पूरी तरह सजग सचेत चिंतकों मानवतावादी मूल्यों मान्यताओं आदर्शों में आस्था रखने वाले तथा निष्पक्ष नैतिक दृष्टिकोण रखने वाले राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषकों के साथ-साथ वैश्विक जनमानस के बीच लोकतंत्र सर्वस्वीकार्य और सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली, शासन व्यवस्था और विचारधारा के रूप में लोकप्रिय होता जा रहा है। आज लोकतंत्र एक शासन-प्रणाली, शासन संस्कृति, शासन-पद्धति शासन व्यवस्था और एक विचारधारा के रूप में जिस गति से लोकप्रिय होता जा रहा है, उससे प्रतीत होता है कि-चाहे या अनचाहे मन से राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली वाले या अन्य विविध गैर-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वाले देशों को भी अंततःऔर अंतिम रूप से लोकतंत्र को अपनाना पड़ेगा।
लोकतंत्र की उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि-बचे-खुचे राजतंत्रात्मक, सैन्य तानाशाही तथा अन्य किसी भी किस्म की गैर-लोकतांत्रिक शासन प्रणाली वाले देशों के शासकों को भी पूरी दुनिया के समक्ष कुछ लोकतांत्रिक पद्धतियों, प्रणालियों और प्रक्रियाओं का स्वांग या ढोंग-पाखंड करना पड़ता हैं। प्रकारांतर से लोकतंत्रिक होने का नाटक और नौटंकी करना पड़ता है। इतिहास में अब तक ज्ञात समस्त शासन प्रणालियों में लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम शासन प्रणाली के रूप में माना जाता है। अनगिनत विसंगतियों के बावजूद इस दौर में लोकतंत्र और लोकतंत्रिक शासन व्यवस्था का अभी तक कोई विकल्प नहीं है। वैसे तो लोकतंत्र और लोकतंत्रिक शासन व्यवस्था का इतिहास बहुत पुराना है।
भारत में ईसा पूर्व लगभग पांचवी-छठवीं शताब्दी में स्थापित सोलह महाजनपदों की शासन व्यवस्थाओं में लोकतंत्र की स्पष्ट झलक मिलती है और लगभग उसी समय समानांतर रूप से यूनानी गणराज्यों की शासन व्यवस्थाओं में भी लोकतंत्र और लोकतंत्रीय परम्पराएं स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं। परन्तु आधुनिक अर्थों में लोकतंत्र का जागरण सर्वप्रथम इंग्लैड में हुआ और इंग्लैंड से ही इसका प्रचार, प्रसार और विस्तार बसुन्धरा के सभी महाद्वीपों के लगभग सभी देशों में हुआ। इसका कारण भी स्पष्ट है क्योंकि-उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी तक इंग्लैड ने समस्त महाद्वीपों पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था ।
यूरोपीय महाद्वीप के द्वीपीय देश इंग्लैंड में अवतरित पल्लवित पुष्पित और विकसित लोकतंत्र इस धरती पर अचानक और अकस्मात नहीं प्रकट हुआ बल्कि सुकरात, गैलीलियो, कोपरनिकस और कैपलर जैसे अनगिनत दृढ़ निश्चयी दूरदर्शी और दूरगामी दृष्टिकोण रखने वाले मनीषियों और महापुरुषों के त्याग बलिदान और तपस्या के फलस्वरूप हुआ। प्राचीन और मध्ययुगीन राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्थाओं में आम जनमानस को अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं था। अपने अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करते हुए कुछ साहसी विद्वानों ने शासन सत्ता की नीतियों की आलोचना करने का साहस दिखाया।
कालान्तर में विभिन्न आन्दोलनों के फलस्वरूप अभिव्यक्ति का अधिकार और सरकार की गलत नीतियों की आलोचना का अधिकार किसी भी स्वरूप के लोकतंत्र की मौलिक शर्त हो गया । प्रकारांतर से अभिव्यक्ति का अधिकार और इस अधिकार के तहत सरकार की आलोचना का अधिकार लोकतंत्र के बुनियाद तत्व हैं। यूनान के महान दार्शनिक सुकरात ने हंसते-हंसते जहर का प्याला पी कर अभिव्यक्ति के अधिकार की बुनियाद रखी थी और राजनैतिक विमर्श के केंद्र में लाया । गैलीलियो, कोपरनिकस और कैपलर जैसे सत्य के सच्चे साधकों ने अपनी जान हथेली पर लेकर अभिव्यक्ति के इस अधिकार को पल्लवित पुष्पित और विकसित किया। इन सत्य के सच्चे साधकों के त्याग तपस्या बलिदान और संघर्ष की कोख से विविध प्रकार के मानवतावादी आन्दोलनों का जन्म हुआ। इसी तरह के अनवरत आन्दोलनों ने स्वतंत्रता समानता अधिकार सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता जैसे आवश्यक लोकतांत्रिक संकल्पनाओं को लोकतांत्रिक चलन-कलन का अनिवार्य हिस्सा बनाया।
इतिहास में कुख्यात तानाशाहों के विरुद्ध जनता के निरन्तर आन्दोलनों ने लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त किया। सकारात्मक प्रगतिशील आंदोलनों के कारण ही बीसवीं शताब्दी में पराधीन देशों ने साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति पाई और स्वाधीनता का रसास्वादन किया। जनता के आन्दोलन से शासन व्यवस्थाओं में गुणवत्ता आती है और शासन प्रशासन में तानाशाही की प्रवृत्तियां नहीं पनपने पाती हैं। राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली में आम जनमानस की स्थिति दयनीय होती है इस व्यवस्था में जनता अपने दुख तकलीफों के लिए सिर्फ सत्ता की चौखटों पर गुहार लगा सकती है गिड़गिड़ा सकती या कातर भाव से फरियाद कर सकती है। इसके विपरीत लोकतंत्र में आम जनता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए सम्मानजनक तरीके से आन्दोलन करते हुए अपनी बुनियादी जरूरतों को हासिल कर सकती है। इसलिए शान्तिपूर्ण और अहिंसात्मक आंदोलन लोकतंत्र की जीवंतता के लिए आवश्यक है और इसलिए आन्दोलन लोकतंत्र की सजीवता का परिचायक होते हैं।
(मनोज कुमार सिंह यूपी के मऊ स्थित बापू स्मारक इंटर कॉलेज में प्रवक्ता हैं।)