पिछले दिनों बॉलीवुड की एक फिल्म आई थी जाली एलएलबी, इसमें एक डायलाग है’ मैं तुम्हे अदालत में देख लूँगा’। हाईकोर्टों के विभिन्न आदेशों पर उच्चतम न्यायालय में चुनौती देकर सरकारें राहत पा रही हैं उसमें एक मजाक चल पड़ा है। कहा जा रहा है ‘चाहे जो आदेश पारित करो उच्चतम न्यायालय में तुम्हें देख लेंगे’। विधिक क्षेत्रों में उच्चतम न्यायालय की इस छवि को लेकर चिंता है क्योंकि न्यायपालिका की विश्वसनीयता दांव पर लग गयी है, क्योंकि उच्चतम न्यायालय केंद्र सरकार के लिए तारणहार बनता जा रहा है।
जस्टिस विनीत सरन और जस्टिस भूषण गवई की पीठ ने शुक्रवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी जिसमें कहा गया था कि कोविड-19 महामारी के बीच उत्तर प्रदेश के गांवों और छोटे शहरों में समूची स्वास्थ्य प्रणाली राम भरोसे है। न्यायमूर्ति विनीत सरन और न्यायमूर्ति बी आर गवई की अवकाशकालीन पीठ ने अपने फैसले में कहा कि उच्च न्यायालय के 17 मई के निर्देशों को निर्देश के रूप में नहीं माना जाएगा और इन्हें उत्तर प्रदेश सरकार को सलाह के रूप में माना जाएगा। पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालयों को ऐसे आदेश पारित करने से बचना चाहिए जिन्हें लागू नहीं किया जा सकता है। पीठ ने मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता निधेश गुप्ता को न्याय मित्र नियुक्त किया है।
पीठ ने कहा कि हमारी राय है कि उच्च न्यायालयों को सामान्य रूप से अपने निर्देशों के निष्पादन की संभावना पर विचार करना चाहिए। ऐसे निर्देशों को लागू नहीं किया जा सकता है, तो ऐसे आदेश पारित नहीं किए जा सकते हैं। असंभवता का सिद्धांत समान रूप से अदालतों पर लागू होता है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा प्रस्तुत किए जाने के बाद जस्टिस विनीत सरन और बीआर गवई की खंडपीठ ने यह आदेश पारित किया था कि उच्च न्यायालय द्वारा पारित कई निर्देशों को लागू करना मुश्किल है। मेहता ने कहा, “स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन इन निर्देशों का पालन करना असंभव है। हम न्यायालय की चिंता को समझते हैं। लेकिन यह चिंता का विषय है। न्यायालयों को भी कुछ न्यायिक संयम रखना चाहिए और ऐसे आदेश पारित नहीं करना चाहिए जो मुश्किल से लागू किया जाएं।
(नोट-जब इस देश में 20 हजार करोड़ की फिजूलखर्ची करके सेन्ट्रल विस्टा का निर्माण इस कोरोना महामारी के दौर में हो रहा है और हजारों करोड़ के बुलेट ट्रेन की परियोजना पर काम हो रहा है तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के द्वारा पारित उस आदेश में कोई कमी नहीं है, जिसमें यूपी के बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं को राम भरोसे की संज्ञा दी गयी है और स्वास्थ्य सुविधाओं के इन्फ्रास्ट्रक्चर के दीर्घकालिक सुधर का निर्देश दिया गया है। वरिष्ठ वकीलों की मानें तो इसे लागू करने की समय सीमा में कमी है। यह आदेश दो से चार महीने में नहीं बल्कि एक से दो साल में लागू किये जाने चाहिए ताकि प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाओं का इन्फ्रास्ट्रक्चर ठीक हो सके। यूपी में 4200 करोड़ में कुम्भ आयोजन हो सकता है, वोट के लिए हजारों करोड़ के एक्सप्रेस वे बन सकते हैं तो स्वास्थ्य सुविधाओं का इन्फ्रास्ट्रक्चर क्यों नहीं खड़ा हो सकता।)
उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपनी अपील में, उत्तर प्रदेश राज्य ने तर्क दिया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय यह मानने में विफल रहा कि यूपी 24 करोड़ से अधिक की आबादी वाला देश का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। बड़ी चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, राज्य महामारी के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए निरंतर प्रयास कर रहा है। यूपी का मौलिक कर्तव्य है कि वह अपनी क्षमता के अनुसार चिकित्सा स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करे और याचिकाकर्ता राज्य ऐसा कर रहा है। उच्च न्यायालय का आदेश न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के हितकर सिद्धांतों का उल्लंघन करके शासन के क्षेत्र में प्रभावी ढंग से प्रवेश करता है, जिसे रद्द किया जाना चाहिए।
मेहता ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि विशेषज्ञों की राय को ध्यान में रखते हुए राज्य द्वारा कुछ नीतिगत निर्णय लिए गए थे और उच्च न्यायालय के पास इसके संबंध में आवश्यक विशेषज्ञता नहीं हो सकती है। पीठ ने मेहता की दलीलें सुनने के बाद 17 मई के निर्देश पर रोक लगा दी।
मेहता ने पीठ से उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित सभी कोविड-19 संबंधित मामलों को मुख्य न्यायाधीश संजय यादव की अध्यक्षता वाली पीठ को स्थानांतरित करने का निर्देश देने की मांग की। पीठ ने कहा कि वह इस तरह के व्यापक आदेश पारित नहीं कर सकता है और खंडपीठ का गठन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का विशेषाधिकार है। मामले की अगली सुनवाई 14 जुलाई को की जाएगी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मेरठ के एक अस्पताल में पृथक-वार्ड में भर्ती 64 वर्षीय संतोष कुमार की मौत पर संज्ञान लेते हुए राज्य में कोरोना वायरस के प्रसार और पृथक-वास केंद्रों की स्थिति को लेकर दायर जनहित याचिका पर 17 मई को कुछ निर्देश जारी किए थे। जांच की रिपोर्ट के अनुसार संबंधित अस्पताल के डॉक्टर संतोष की पहचान करने में विफल रहे थे और उसके शव को अज्ञात के रूप में निपटा दिया था। संतोष अस्पताल के बाथरूम में 22 अप्रैल को बेहोश हो गया था। उसे बचाने के प्रयास किए गए लेकिन उसकी मौत हो गई थी।अस्पताल के कर्मचारी उसकी पहचान नहीं कर पाए थे और उसकी फाइल खोजने में भी विफल रहे। इस तरह, इसे अज्ञात शव का मामला बताया गया था।
जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और जस्टिस अजित कुमार की खंडपीठ ने ग्रामीण आबादी की जांच बढ़ाने और उसमें सुधार लाने का राज्य सरकार को निर्देश दिया और साथ ही पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने को कहा था। टीकाकरण के मुद्दे पर अदालत ने सुझाव दिया कि विभिन्न धार्मिक संगठनों को दान देकर आयकर छूट का लाभ उठाने वाले बड़े कारोबारी घरानों को टीके के लिए अपना धन दान देने को कहा जा सकता है। चिकित्सा ढांचे के विकास के लिए अदालत ने सरकार से यह संभावना तलाशने को कहा कि सभी नर्सिंग होम के पास प्रत्येक बेड पर ऑक्सीजन की सुविधा होनी चाहिए। अदालत ने कहा कि 20 से अधिक बिस्तर वाले प्रत्येक नर्सिंग होम व अस्पताल के पास कम से कम 40 प्रतिशत बेड आईसीयू के तौर पर होने चाहिए और 30 से अधिक बेड वाले नर्सिंग होम को ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्र लगाने की अनिवार्यता की जानी चाहिए।इसमें एक महीने के भीतर उत्तर प्रदेश के सभी गांवों के लिए 2-2 ICU सुविधायुक्त एंबुलेंस देने के लिए कहा गया था।
पीठ ने यूपी सरकार से कहा कि हम हाईकोर्ट के अधिकार और राज्य सरकार के अधिकारों के बीच में संतुलन बनाने वाला आदेश जारी करेंगे। लेकिन हम ऐसा कोई आदेश जारी नहीं करेंगे जिससे हाईकोर्ट के अधिकार और राज्य सरकार के अधिकारों के मनोबल पर फर्क पड़े।पीठ ने कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश को सलाह के तौर पर लेना चाहिए और उसे लागू करने के लिए हरसंभव क़दम उठाने चाहिए।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)
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