Saturday, April 27, 2024

‎‎‘एक सूत्रीय भारतबोध’ के कुत्सित इरादों के विरुद्ध ‘सामासिक भारतबोध’‎ के आग्रह ‎और अपील

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) के द्वारा गिरफ्तार कर लिये जाने के बाद सिर्फ आम आदमी पार्टी के नेता नहीं रह गये हैं। चुनाव के माहौल में संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग ने सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष के खिलाफ विपक्ष को पूरी तरह से लामबंद कर दिया है। चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ की हकीकत के सामने आ जाने के बाद जनता के सामने स्थिति बिल्कुल साफ है। सूचना की शक्ति का इजहार हो कर रहेगा।

अरविंद केजरीवाल दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री रहे हैं, वह भी असाध्य बहुमत के साथ निर्वाचित मुख्यमंत्री। भारत का कोई भी ऐसा गांव नहीं है, जिसका कोई-न-कोई दिल्ली में न रहता हो। शायद ही ऐसा कोई गांव हो जिस में किसी-न-किसी  बहाने अरविंद केजरीवाल की चर्चा न होती हो। इस गिरफ्तारी के बाद अरविंद केजरीवाल भारत के नेता बनकर उभर रहे हैं। अब यह उन पर है कि अपनी राजनीतिक साख को वे किस प्रकार से मजबूती देते हैं। एक बात साफ-साफ समझ में आ रही है कि 2024 का आम चुनाव एक तरह से जनांदोलन में बदलने की तरफ तेजी से, बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है।   

सूचना ही शक्ति है। यह एक बेहतरीन और चमकदार मुहावरा है। सूचना आज के युग में बहुत बड़ी ताकत है। लेकिन सूचना में अपनी कोई ताकत नहीं होती है। ताकत क्रिया में होती है। यह व्यक्तिगत तौर पर मानसिक क्रिया भी हो सकती है, और सामाजिक क्रिया भी हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि सूचना प्राप्त होने के बाद हमारी उस पर क्या प्रतिक्रिया होती है, इस से सूचना की ताकत का सीधा संबंध होता है।

जन-प्रतिक्रिया इस बात पर भी निर्भर करती है कि उस सूचना को आम जनता के सामग्रिक हित-बोध से कैसे और कितना जोड़ पाना संभव होता है। उस समाज में सूचना सिर्फ शोर बनकर रह जाती है, जिस समाज में सामग्रिक हित-बोध की कोई व्यापक समझ और हिताकांक्षियों के प्रति कोई परिष्कृत सहानुभूति नहीं होती है। हित-अचेतनता सूचना की ताकत को अपनी निष्क्रियता से भोथड़ा बना देती है। भारत जैसे देश में मताधिकार को नागरिकता के अलावा किसी अन्य योग्यता या शर्त से नत्थी नहीं किया गया।

हमारे पुरखों को विश्वास था कि मनुष्य के अंदर जन्मजात हित-बोध होता है। उस जन्मजात हित-बोध का सम्मान हमारे पुरखों के अद्भुत राजनीतिक साहस का विलक्षण उदाहरण है। हमारे पुरखों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी के आंदोलन के लिए किये राजनीतिक संघर्ष के दौरान सामाजिक हाशिए पर खड़ी जनता के उत्साह और आग्रह की राजनीतिक गुणवत्ता को समझ लिया था। हित-बोध को साक्षरता से जोड़ने में कठिनाई हो सकती है।    

आजादी के आंदोलन  के दिनों भारत की साक्षरता दर आज की तुलना में बहुत कम थी, लेकिन उनकी राजनीतिक साक्षरता आज की तुलना में कहीं ज्यादा रही होगी। हित-बोध की भी व्यापक समझ रही होगी। ऐसा अनुमान है।

राजनीतिक समझ विश्वास की क्रमिकता और क्रमबद्धता पर निर्भर करती है। महात्मा गांधी विश्वास और नैतिकता के बहुत बड़े पुंज थे। यह उनकी नैतिक आभा का ही कमाल था कि देश की महात्मा गांधी के होने मात्र से जनता की कई कमियों की क्षति पूर्ति स्वतः हो जाया करती थी।

महात्मा गांधी के सक्रिय समर्थक की प्रत्यक्ष उपस्थिति जितनी थी, उन के निष्क्रिय समर्थकों की अप्रत्यक्ष उपस्थिति अप्रत्याशित रूप से कहीं बहुत ज्यादा थी। सक्रिय समर्थक से अधिक निष्क्रिय समर्थक के जुड़ाव से आंदोलन वास्तविक जनांदोलन बन जाता है। सरकारें आंदोलन से जैसे-तैसे निपट लेती है, लेकिन जनांदोलन का मुकाबला नहीं कर सकती हैं।

महात्मा गांधी के विचार से भले ही सहमति-असहमति रखी जा सकती हो, लेकिन महात्मा गांधी की नैतिक आभा की स्पष्ट संप्रेषणीयता से अप्रभावित रह पाना बहुत मुश्किल होता था। यह जरूर है कि आजादी का दिन ज्यों-ज्यों नजदीक आता गया, देश में फैलते सांप्रदायिक और सामाजिक वर्चस्व के मनोभाव के चलते उन के कई सक्रिय समर्थक उन से सहमति-असहमति के पार जा कर उन से बिना किसी प्रत्यक्ष टकराव के अपना-अपना रास्ता अख्तियार करने लगे। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि आजादी के बाद भारत में जो राज्य व्यवस्था गठित हुई उस में वैश्विक और सार्वजनिक नैतिक मानदंडों के लिए चाहे जितनी जगह बनी, गांधी विचार को उतनी जगह ‎ नहीं मिली। जैसा कि होता है, ‘बच्चा बड़ा’ हो जाने पर, ‘बूढ़े माँ-बाप’ की कम ही, सुनता है।

देश में राजनीतिक परिस्थिति कैसी भी हो, भारत अपने भारतबोध के साथ जीवनयापन करता रहा है। दुख की हर घड़ी में उसका जीवन मंत्र बन गया, ‘जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जायेंगे’। इस जीवन मंत्र ने उसे यथास्थितिवादी और बदलाव-विरोधी बना दिया। सत्ता परिवर्तन से जीवनयापन में बदलाव की उम्मीद कभी उस के मन में जगी ही नहीं।

1857 के स्वातंत्र्य समर के अनुभव का सारांश काम का हो सकता है। 1857 की क्रांति के पीछे जनांदोलन जैसा कोई ताप नहीं था, हालांकि उस में जनांदोलन बनने की पूरी संभावना थी। सक्रिय समर्थक से अधिक निष्क्रिय समर्थक के जुड़ाव से ही आंदोलन वास्तविक जनांदोलन बन जाता है। फिर कहूं, सरकारें आंदोलन से जैसे-तैसे निपट लेती हैं, लेकिन जनांदोलन से मुकाबला नहीं कर सकती हैं। ‎

जनांदोलन में राजनीति को संस्कृति की शक्ति का सहारा मिल जाता है। भारत की संस्कृति सामासिक है। इस की संस्कृति की ताकत का स्रोत भी सामासिकता में है। इस सामासिकता के विरुद्ध भारत में कई राजनीतिक शक्तियां उस समय भी सक्रिय थीं। शुरू में कांग्रेस के पीछे कोई आंदोलन नहीं था। कांग्रेस में महात्मा गांधी की राजनीति सक्रियता के योगदान से भारत की जनता की यथास्थितिवादी तटस्थता का रुझान टूटने लगा, और टूट गया। भारत में आजादी की ललक तीव्र से तीव्रतर होने लगी। इस प्रकार से कांग्रेस पार्टी का आंदोलन बहुत बड़े जनांदोलन में बदलता चला गया।

ब्रिटिश हुकूमत को धीरे-धीरे जनांदोलन की ताकत का एहसास होने लगा और वह धीरे-धीरे राज्य सत्ता की ताकत के इस्तेमाल में सावधानी बरतने लगी। वार्ताओं, समझौतों आदि के माध्यम से जोर आजमाइश का दौर शुरू हो गया। ब्रिटिश हुकूमत ने कभी कांग्रेस या किसी राजनीतिक दल का बैंक खाता अवरुद्ध नहीं किया, कोई अपवाद हो तो मुझे नहीं मालूम। कई कारणों से, कांग्रेस के साथ वे राजनीतिक शक्तियां भी खड़ी हुईं जो राजनीतिक रूप से कांग्रेस के भारतबोध की सामासिकता की स्पष्ट विरोधी और अपनी भिन्न भारतबोध की एकसूत्रीयता की पक्षधर थीं। ऐतिहासिक प्रक्रिया में भारत की बनावट ही ऐसी बनी है कि सामासिकता इसकी संस्कृति का मूल चरित्र है। कांग्रेस के नेतृत्व में भारत की आजादी के राजनीति आंदोलन को सामासिक संस्कृति की इसी ताकत ने जनांदोलन बना दिया।

भारत की आजादी के बाद विभिन्न कारणों से धीरे-धीरे स्वाभाविक प्रगतिमुखी ‘सामासिक भारतबोध’ खोता गया और ‘काल्पनिक’ और प्रगति-विमुखी ‘भारतबोध’ विकसित होता गया। भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सक्रिय सहयोग से इस ‘काल्पनिक’ और प्रगति-विमुखी और ‘एक सूत्रीय भारतबोध’ के साथ राजनीति के मैदान में आगे बढ़ती रही। बहुत सारे लोग और राजनीतिक दल समय रहते इस ‎‘एक सूत्रीय भारतबोध’ के भ्रमास्त्र की राजनीतिक परियोजना को ठीक से समझ ही नहीं पाये। या फिर किसी राजनीतिक स्वार्थ के कारण भारतीय जनता पार्टी के साथ लग गये। भ्रमास्त्र के संदर्भ में बस एक उदाहरण के लिए एक प्रसंग, 2014 में ‘शौचालय’ अर्थात विकास की बात जो करते थे वे, 2024 तक आते-आते ‘देवालय’ का राजनीतिक तूफान खड़ा करने में व्यस्त हो गये। इस राजनीतिक तूफान से पूरा परिवेश ही कुछ दिनों के लिए अस्त-व्यस्त हो गया।

कांग्रेस या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) की सरकार के जाने के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी, महंगाई आदि जैसे मुद्दे थे। सामने अण्णा हजारे और अरविंद केजरीवाल थे। उन के पीछे ‘एक सूत्रीय भारतबोध’ ‎के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की लोकलुभावन राजनीति थी। ध्यान देने की बात है कि राहुल गांधी जब भारतबोध या आइडिया ऑफ इंडिया की बात करते हैं तो निश्चित ही उनके दिमाग में प्रगतिमुखी ‘सामासिक भारतबोध’‎ रहता है।

प्रगतिमुखी ‘सामासिक भारतबोध’‎ में ‎‘एक सूत्रीय भारतबोध’ के खिलाफ संघर्ष की बात रहती है। चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ और धुरफंदिया कारोबार, जबरिया धन उगाही, मिली-भगत (Quid Pro Quo) संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग  ‎के बल पर‎ सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष ‎‘सामासिक भारतबोध’ को ‎‘एक ‘सूत्रीय भारतबोध’ में बदलना चाहती है। इस के अलावा नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (NRC) के पीछे क्या मंशा हो सकती है?

काला धन को समाप्त करने, आतंकवाद विरोधी कार्रवाई करने, जनविद्वेषी बयानबाजी (Hate Speech), भय-भूख-भ्रष्टाचार से लड़ने, सब के साथ सब का विश्वास, सब का साथ का हो हल्ला मचाने, ‎‘अच्छे दिन लाने के’ के पीछे की राजनीतिक बयानबाजी और गलत इरादों की सारी पोलपट्टी अब खुल चुकी है।  

संपूर्ण शांत, न्याय-निष्ठ और बिल्कुल निर्विरोध न तो जीवन होता है, न समाज होता है। भारत जैसे पुराने, विविधतावाले और बहु-विह्वल देश में तो यह बिल्कुल असंभव ही है। 2024 का आम चुनाव ‎‘सामासिक भारतबोध’‎ की पुनर्स्थापना के जनांदोलन में बदलती जा रही है। सतरू (सत्तारूढ़) की सांस्कृतिक समझ (Cultural Competence) का परदाफाश हो चुका है। इन्हें गलतफहमी है कि संवैधानिक संस्थाओं के असंवैधानिक दुरुपयोग से उनका ‎‘एक सूत्रीय भारतबोध’ अब ‎‘सामासिक भारतबोध’‎ को चुनाव में पराजित कर देगा।

‎‎‘एक सूत्रीय भारतबोध’ ‎ के कुत्सित इरादों के विरुद्ध ‘सामासिक भारतबोध’‎ में निहित आग्रह और अपील को जनता पढ़ने लगी है। स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न होने की जो भी स्थिति बने जनता समझ चुकी है कि संघर्ष का समान अवसर (Level Playing Field)‎ मिले-न-मिले उसे अपने दुखों के पहाड़ को लांघना है। आंख और कान पर अब सतरू (सत्तारूढ़) के भ्रमास्त्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

यह चुनावी संघर्ष दुखों के पहाड़ लांघने का है। चुनाव आयोग समान अवसर (Level Playing Field)‎ के लिए क्या करती है, क्या नहीं करती है, यह देखना दिलचस्प चाहे जितना हो, एक बात ध्यान में रखनी होगी कि पहाड़ को लांघने का इरादा रखनेवाले संघर्ष के मैदान में अवसर की समानता की परवाह ‎नहीं करते। ‎  

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)   

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