Friday, March 29, 2024

मंटो की जयंती पर विशेष: जो बात की, खुदा की कसम लाजवाब की

उर्दू अदब के बेमिसाल अफसानानिगार सआदत हसन मंटो, आज ही के दिन यानी 11 मई, 1912 को अविभाजित भारत में लुधियाना के छोटे से गांव समराला में जन्मे थे। मंटो ने 43 साल की अपनी छोटी सी जिंदगानी में जी भरकर लिखा। गोया कि अपनी उम्र के 20-22 साल उन्होंने लिखने में ही गुजार दिए। लिखना उनका जुनून था और जीने का सहारा भी। मंटो एक जगह खुद लिखते हैं,‘‘मैं अफसाना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफसाना मुझे लिखता है।’’ इसके बिना वे जिंदा रह भी नहीं सकते थे। उन्होंने जो भी लिखा, वह आज उर्दू अदब का नायाब सरमाया है। मंटो के कई अफसाने आज भी मील का पत्थर हैं। उनके किस अफसाने का जिक्र करें और किसको छोड़ दें ? ये कल भी उतना आसान नहीं था और आज भी। मंटो का हर अफसाना, दिलो दिमाग पर अपना गहरा असर छोड़ जाता है।

उनकी कलम से कई शाहकार अफसाने निकले। मसलन-‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो’, ‘यजीद’, ‘शाहदोले का चूहा’, ‘बापू गोपीनाथ’, ‘नया कानून’, ‘टिटवाल का कुत्ता’ और ‘टोबा टेकसिंह’। हिंदोस्तान के बंटवारे पर मंटो ने कई यादगार कहानियां, लघु कथाएं लिखीं। मंटो का लिखा उनकी मौत के छह दशक बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप के करोड़ों-करोड़ लोगों के जेहन में जिंदा है। अफसोस ! उन्हें लंबी जिंदगी नहीं मिली। लंबी जिंदगी मिलती, तो उनकी कलम से न जाने कितने और शाहकार अफसाने निकलते। 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में मंटो का निधन हुआ। मंटो की मौत पर अफसानानिगार कृश्न चन्दर ने उन्हें याद करते हुए क्या खूब लिखा है,‘‘गम उन अनलिखी रचनाओं का है, जो सिर्फ मंटो ही लिख सकता था। उर्दू साहित्य में अच्छे से अच्छे कहानीकार पैदा हुए, लेकिन मंटो दोबारा पैदा नहीं होगा और कोई उसकी जगह लेने नहीं आएगा। यह बात मैं भी जानता हूं और राजेन्द्र सिंह बेदी भी, इस्मत चुगताई भी, ख्वाजा अहमद अब्बास भी और उपेन्द्रनाथ अश्क भी।’’

मंटो ने डेढ़ सौ से ज्यादा कहानियां लिखीं, व्यक्ति चित्र, संस्मरण, फिल्मों की स्क्रिप्ट और डायलॉग, रेडियो के लिए ढेरों नाटक और एकांकी, पत्र, कई पत्र-पत्रिकाओं में कॉलम लिखे, पत्रकारिता की। गोया कि उपन्यास, कविता को यदि छोड़ दें, तो उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर जमकर लिखा। हिंदी-उर्दू अदब में प्रेमचंद के बाद जिस अदीब पर सबसे ज्यादा लिखा गया, वह भी सआदत हसन मंटो ही हैं। मंटो की हर विधा, हर रचना पर खूब बात हुई। फिर भी मंटो के पत्र जो उन्होंने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन और उसके बाद आइजनहावर के नाम लिखे, जो पाकिस्तान के अखबारों में सिलसिलेवार शाया हुए, उन पर कम ही बात होती है। इन पर आलोचकों का ध्यान कम ही गया है।

जबकि ये खत ऐसे हैं, जिन पर बात होनी ही चाहिए। खास तौर पर अमेरिका और पाकिस्तान के उस दौर, उनके आपसी संबंधों को अगर समझना है, तो मंटो के यह खत बहुत मददगार साबित हो सकते हैं। उन्होंने बड़े ही बेबाकी और तटस्थता से अपने मुल्क और दुनिया की एक बड़ी महाशक्ति अमेरिका के हुक्मरानों की जमकर खबर ली है। उन्होंने किसी को भी नहीं बख्शा। ईमानदारी से वह लिखा, जो कि देखा। ये खत कितने बेबाक और सख्त हैं, ये एक छोटी सी मिसाल से जाना जा सकता है,‘‘अमरीकी लेखक लेसली फ्लेमिंग ने ‘जर्नल आफ साउथ एशियन लिटरेचर’ के मंटो विशेषांक में ‘लैटर टोपिकल एसेज’ के तहत मंटो के मजामीन पर एक सफ्हा लिखा है। उसने एक-एक, दो-दो सतरों में अलग-अलग मजमूनों को छुआ है।

क्या ये तअज्जुब की बात नहीं है, कि वह ‘चचा साम’ के नाम लिखे गए नौ खतों के बारे में एक जुमला तो क्या, एक लफ्ज तक न लिख सकीं। क्यों ? वह इसलिए कि मंटो ने जब ये खुतूत लिखे थे, तब अमेरिका में चचा आइजनहावर की हुकूमत थी और जब अमरीकी स्कालर ने ‘लेटर टोपिकल एसे‘ज’ लिखा, तब अमेरिका में चचा रोनाल्ड रीगन की हुकूमत थी। यानी, दोनों जमाने रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के जमाने थे। बात समझ में आती है और लेसली फ्लेमिंग की ओढ़ी ढांपी झेंप साफ नजर आती है।’’ (पेज-366, अंतिम शब्द, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4)

मंटो के खतों के यदि हमें सही-सही मायने समझने हैं, तो अमरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन की कार्यप्रणाली और उस दौर के पाकिस्तान के हालातों से भी वाकिफ होना जरूरी है। बीसवीं सदी के अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वह जंग के लिए हमेशा उतावला रहने वाला, मुल्क था। (गोया कि, जंग के लिए उसका ये उतावलापन, आज भी कम नहीं हुआ है।) अपने कार्यकाल में हैरी ट्रूमैन ने पूरी दुनिया में अमरीकी साम्राज्यवादी नीतियों को जमकर बढ़ावा दिया। जापान पर एटमी बम गिराने का फैसला, यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए मार्शल प्लान, साम्यवाद की घेरेबंदी का ट्रूमैन-सिद्धांत, शीत युद्ध की शुरूआत, नाटो का गठन और कोरिया के युद्ध में अमरीकी-हस्तक्षेप जैसे उनके फैसले मिसाल के तौर पर गिनाए जा सकते हैं।

इन बातों की रौशनी में यदि देखें, तो मंटो के खत बड़े मानीखेज हैं। अंकल सैम को खत लिखने के पीछे मंटो का जाहिर मकसद, अप्रत्यक्ष तौर पर साम्राज्यवाद की आलोचना पेश करना था। पाकिस्तान के उस वक्त के हालात की यदि पड़ताल करें, तो पाकिस्तान उस समय एक नए राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान गढ़ने की कोशिश कर रहा था। पाक-अमरीकी आर्थिक-सामरिक संधि हो चुकी थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते साम्यवादी रुझान को रोकने के लिए, अमेरिका को इस इलाके में एक मोहरे की तलाश थी, जो कि उसे पाकिस्तान के रूप में मिल गया। मंटो के खतों के मजमून से गुजरकर, न सिर्फ अमेरिका और पाकिस्तान के सियासी-समाजी हालात जाने जा सकते हैं, बल्कि बाकी दुनिया के जानिब अमेरिका की नीति का भी कुछ-कुछ खुलासा होता है।  

अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम मंटो ने अपना पहला खत दिसम्बर, 1951 में लिखा और आखिरी खत अप्रैल, 1954 में। तीन साल के अरसे में कुल जमा नौ खत। खत क्या, पाकिस्तान और अमेरिका दोनों ही मुल्कों के अंदरूनी हालात की बोलती तस्वीर ! पाकिस्तान का संकीर्ण वातावरण और अमेरिका की पूंजीवादी स्वच्छंदता। पाकिस्तान की बदहाली और अमेरिका का दोगलापन। पाकिस्तान की बेचारगी और अमेरिका की कुटिल शैतानी चालें। खत को लिखे, आधी सदी से ज्यादा गुजर गई, मगर दोनों ही मुल्कों की न तो तस्वीर बदली और न ही किरदार। इन दोनों मुल्कों पर मंटो का आकलन आज भी पूरे सौ आने खरा उतरता है।

मंटो की कही गई बातें, आज भी इन पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। पाकिस्तान कल भी अमेरिका की खैरात के आसरे था, और आज भी उसकी अर्थव्यवस्था अमेरिकी डालरों के सहारे चल रही है। मंटो अपने खतों में अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियों पर जमकर तंज करते हैं। अपने तीसरे खत, जो उन्होंने 15 मार्च 1954 में लिखा। वे लिखते हैं, ‘‘हमारे साथ फौजी इमदाद का मुआहदा (समझौता) बड़ी मार्के की चीज है। इस पर कायम रहिएगा। इधर हिंदुस्तान के साथ भी ऐसा ही रिश्ता उस्तुवार (मजबूत) कर लीजिए। दोनों को पुराने हथियार भेजिए, क्योंकि अब तो आपने वह तमाम हथियार कंडम कर दिए होंगे, जो आपने पिछली जंग में इस्तेमाल किए थे। आपके यह कंडम और फालतू असलह भी ठिकाने लग जाएंगे और आपके कारखाने भी बेकार नहीं रहेंगे।’’ (पेज-322, तीसरा खत, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4)

मंटो की इस तहरीर में अमेरिका का साम्राज्यवादी चेहरा पूरी तरह बेनकाब है। किस तरह वह दुनिया भर में अपने हथियारों की तिजारत करता है। जंग उसके लिए महज एक कारोबार है। जंग होगी तो उसके हथियार भी बिकेंगे। चाहे ईरान-इराक के बीच चली लंबी जंग हो, या फिर अफ्रीकी मुल्कों के बीच आपसी संघर्ष, इन जंग और संघर्षों में सबसे ज्यादा फायदा अमेरिका का ही रहा है। फौजी इमदाद के समझौते की आड़ में, वह आज भी अपने पुराने हथियारों को ठिकाने लगाता रहता है।

अमेरिका, पाकिस्तान पर आखिर क्यों ‘मेहरबान’ है ? मंटो अपने खत में इस बात का भी खुलासा करते हैं। ‘‘हिंदुस्तान लाख टापा करे, आप पाकिस्तान से फौजी इमदाद का मुआहदा (समझौता) जरूर करें, इसलिए कि आपको इस दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत के इस्तेहकाम (सुदृढ़ता)की बहुत ज्यादा फिक्र है, और क्यों न हो, इसलिए कि यहां का मुल्ला रूस के कम्युनिज्म का बेहतरीन तोड़ है।’’ (पेज-334, चौथा खत, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4) आगे की लाईनों में मंटो का व्यंग्य और भी पैना होता चला जाता है,‘‘जब अमरीकी औजारों से कतरी हुई लबें होंगी, अमरीकी मशीनों से सिले हुए शरअई पाजामे होंगे, अमरीकी मिट्टी के अनटच्ड बाई हैंड ढेले होंगे, अमरीकी रहलें (लकड़ी का स्टैंड, जिस पर कुरान रखते हैं) और अमरीकी जायनमाजें होंगी, तब आप देखिएगा, चारों तरफ आप के नाम के तस्बीह ख्वां होंगे।’’ (पेज-334, चौथा खत, सआदत हसन मंटो दस्तावेज-4)

अपने मुल्क के हालात का जिक्र करते हुए मंटो न तो पाकिस्तानी हुक्मरानों से डरते हैं और न ही मजहबी रहनुमाओं का मुलाहिजा करते हैं। पाकिस्तानियों के जो अंतर्विरोध हैं, उनका मजहब के प्रति जो अंधा झुकाव है, मंटो इसकी भी खुर्दबीनी करने से बाज नहीं आते। धार्मिक कट्टरता और पोंगापंथ पर वे बड़े ही निर्ममता से अपनी कलम चलाते हैं। मंटो अपने खतों में अमरीकी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद पर जमकर चुटकियां लेते हैं। अमरीकी साम्राज्यवाद को प्रदर्शित करने के लिए वे बार-बार अमेरिका के राष्ट्रपति को सात आजादियों के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में मुखातिब करते हैं।

व्यंग्य करने का उनकी तरीका बिल्कुल निराला है। मंटो के इन नौ खतों को पढ़कर बहुत हद तक पाकिस्तान और अमेरिका के हकीकी किरदारों को जाना जा सकता है। इन खतों में न सिर्फ उस दौर की अक्काशी है, बल्कि मुस्तकबिल की भी तस्वीर है। आने वाले सालों में पाकिस्तान की क्या नियति होगी ? मंटो इसे पहले ही भांप चुके थे। समय की रेत पर वह सब कुछ साफ-साफ देख रहे थे। उन्होंने अपने खतों से पाकिस्तानी हुक्मरानों को हर मुमकिन आगाह भी किया। लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह बोलती रही। आज पाकिस्तान का जो हश्र है, मंटो उसे बहुत पहले ही जान चुके थे। जहां तक अमेरिकन हुक्मरानों और उनकी नीतियों का सवाल है, मंटो ने उनके बारे में जो लिखा, वे बातें आज भी ज्यों के त्यों कायम हैं।

(ज़ाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और मध्य प्रदेश के शिवपुरी में रहते हैं।)

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