Friday, April 19, 2024

जयंती पर विशेष: आज़ादी की लड़ाई की मुकम्मल नींव थे बिस्मिल

“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,

देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है”

भारत की आज़ादी के आंदोलन में ये पंक्तियां क्रांतिकारियों का मशहूर नारा बनीं। 1921 में बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखी जोश-ओ-खरोश से लबरेज़ इन पंक्तियों ने जिस स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी को अमर बना दिया वो थे राम प्रसाद ‘बिस्मिल’। आज उस रणबांकुरे का जन्म दिन है, जिसने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते चूम लिया। 

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ भारत की आज़ादी के आंदोलन के क्रांतिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे। जिन्हें 30 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी। वे मैनपुरी षड्यंत्र व काकोरी कांड जैसी कई घटनाओं में शामिल थे, तथा ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के सदस्य भी थे।

लेकिन बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इस सरफ़रोश क्रांतिकारी के बहुआयामी व्यक्तित्व में संवेदनशील कवि/शायर, साहित्यकार, व इतिहासकार के साथ एक बहुभाषा भाषी अनुवादक का भी निवास था। ‘बिस्मिल’ उनका उर्दू तख़ल्लुस (उपनाम) था। जिसका हिन्दी मे अर्थ होता है ‘आत्मिक रूप से आहत’ । ‘बिस्मिल’ के अतिरिक्त वे ‘राम’ और ‘अज्ञात’ के नाम से भी लेख और कविताएं (शायरी) लिखते थे। 

11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में मुरलीधर और मूल मती के घर पुत्र के रूप में क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’  ने जन्म लिया। किशोरावस्था से ही उन्होंने भारतीयों के प्रति ब्रिटिश सरकार के क्रूर रवैये को देखा था। इससे आहत बिस्मिल का कम उम्र से ही क्रान्तिकारियों की तरफ़ झुकाव होने लगा। 

उन्होंने 1916 में 19 वर्ष की उम्र में क्रांतिकारी मार्ग में क़दम रखा। बिस्मिल ने बंगाली क्रांतिकारी सचिन्द्र नाथ सान्याल और जदूगोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HRA) की स्थापना की, और भारत को अंग्रेज़ी शासन से आज़ाद करवाने की कसम खायी। उत्तर भारत के  इस संगठन के लिए बिस्मिल अपनी देशभक्त माँ मूलमती से पैसे उधार लेकर किताबें लिखते व प्रकाशित करते थे। 11 किताबें उनके जीवनकाल में प्रकाशित हुयीं। जिनमें से एक भी गोरी सत्ता के कोप से नहीं बच सकी। ‘देशवासियों के नाम’, ‘स्वदेशी रंग’,  ‘मन की लहर’ और ‘स्वाधीनता की देवी’ जैसी किताबें इसका उदाहरण हैं।

इन किताबों की बिक्री से उन्हें जो पैसा मिलता था उससे वो पार्टी के लिए हथियार ख़रीदते थे। साथ ही उनकी किताबों का उद्देश्य जनमानस के मन मे क्रांति के बीज बोना था। ये वो ही समय था जब उनकी मुलाकात अन्य क्रांतिकारियों जैसे अशफ़ाक़ुल्लाह खान, रौशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी से हुई। आगे चलकर ये सभी क़रीबी दोस्त बन गए। उन्होंने ही चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ और भगत सिंह जैसे नवयुवकों को  ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से जोड़ा जो कि बाद में ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ बन गयी।

 कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़ी में लिए जाते हैं। जैसे भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद और राजगुरु। ऐसे ही बिस्मिल की कहानी अशफ़ाक़ुल्लाह खान के ज़िक्र के बिना अधूरी है। इसका कारण सिर्फ ये नहीं कि काकोरी कांड में ये दोनों मुख्य आरोपी थे । बल्कि एक जैसी सोच और सिद्धांत रखने वाले इन दोनों दोस्तों के दिल मे देशभक्ति  का जज़्बा कूट-कूट कर भरा था। दोनों साथ रहते थे, साथ-साथ काम करते थे और हमेशा एक दूसरे का सहारा बनते। दोनों एक दूसरे को जान से भी ज़्यादा चाहते थे।   दोनों ने एक साथ जान दे दी पर एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में एक पूरा अध्याय अपने परम मित्र अशफ़ाक़ुल्लाह को समर्पित किया है। इनकी दोस्ती की मिसाल आज भी दी जाती है। 

बिस्मिल हिन्दू-मुस्लिम एकता पर यकीन करते थे 

रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे ‘पंडित’ जुड़ा था। जबकि अशफ़ाक़ मुस्लिम थे। वो भी पंज वक्ता नमाज़ी। लेकिन इस बात का दोनों पर कोई फ़र्क़ नही पड़ता था। क्योंकि दोनों का मक़सद एक ही था – ‘आज़ाद मुल्क’  वो भी धर्म या किसी और  आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं। 

बिस्मिल कहते थे कि ब्रिटिश सरकार ने अशफ़ाक़ को राम प्रसाद का दाहिना हाथ क़रार दिया। अशफ़ाक़ कट्टर मुसलमान हो कर पक्के आर्य समाजी राम प्रसाद बिस्मिल का क्रांतिकारी दाहिना हाथ बन सकते हैं, तब क्या भारत की आज़ादी के नाम पर हिन्दू-मुसलमान अपने निजी छोटे-छोटे  फायदों के ख़्याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते। ये पंक्ति आज भी लोगों में बहुत मशहूर है। 

राम प्रसाद बिस्मिल ने कांग्रेस के 1920 में कलकत्ता और 1921 में अहमदाबाद में हुए अधिवेशनों में हिस्सा लिया। बताते हैं कि अहमदाबाद के अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहानी के साथ मिलकर कांग्रेस की साधारण सभा मे ‘पूर्ण स्वराज’ का  प्रस्ताव पारित करवाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। और शाहजहांपुर लौटकर ‘असहयोग आंदोलन ‘ को सफल बनाने में लग गए। 

 लेकिन साल 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला किया तो कई युवाओं को उनके इस कदम से निराशा हुई। उनमें राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ भी थे। गांधी जी से मोहभंग होने के बाद ये सभी युवा क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हो गए। इनका मानना था कि मांगने से आज़ादी  मिलने वाली नहीं है। इसके लिए हमें लड़ना होगा।

बिस्मिल और अशफ़ाक़ दोनों ने साथ मिलकर 1925 को काकोरी कांड अंजाम दिया था। उन्हें महसूस हो गया था कि ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ एक संगठित विद्रोह करने के लिए हथियारों की ज़रूरत है, जिसके लिए पैसों के साथ-साथ प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता भी होगी। ऐसे में इस संगठन ने अंग्रेज़ सरकार की संपत्ति लूटने का निर्णय लिया। इसके जवाब में उन्होंने 9 अगस्त 1925 की रात को अपने साथियों के साथ एक ऑपरेशन में काकोरी ट्रेन में ले जाया जा रहा सरकारी खज़ाना लूटा तो थोड़े ही दिन बाद 26 सितंबर 1925 को उन्हें और अशफ़ाक़ समेत उनके सभी साथियों को गिरफ़्तार कर लिया गया।

उन पर मुक़दमा चलाया गया जो कि 18 महीने चला, और चार क्रांतिकारी – राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्लाह खान, रौशन सिंह और राजेंद्र लाहड़ी को फांसी की सज़ा सुनाई गई। इन चारों को अलग-अलग जेलों में बंद कर दिया गया। बाक़ी सभी क्रांतिकारियों को लंबे समय के लिए कारावास की सज़ा मिली। 

लखनऊ सेंट्रल जेल के बैरक नंबर 11 में जेल की सज़ा काटते हुए बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा लिखी। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा के अंत में देशवासियों से एक अंतिम विनय किया था,  ‘जो कुछ करें सब करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें। इसी से देश का भला होगा।’  इस आत्मकथा को पत्रकार गणेश शंकर  विद्यार्थी ने ‘काकोरी के शहीद’ के नाम से उनके शहीद होने के बाद 1928 में छापी थी। अपनी सज़ा के दौरान ही बिस्मिल ने,

 “मेरा रंग  दे बसन्ती चोला…

  माय रंग दे बसंती चोला…

 गीत की रचना की। ये गीत भी आज़ादी के आंदोलन के मशहूर गीतों में से एक है।

ज़िन्दगी भर दोस्ती निभाने वाले अशफ़ाक़ और बिस्मिल दोनों को 19 दिसम्बर 1927 को अलग-अलग जगह फांसी दी गयी। अशफ़ाक़ को फैज़ाबाद में और बिस्मिल को गोरखपुर में। फांसी पर चढ़ने से पहले बिस्मिल ने आख़री ख़त अपनी माँ को लिखा। ओठों पर जयहिंद का नारा लिए मौत को गले लगाने वाले इन क्रांतिकारियों को पूरे देश ने नम आंखों से विदाई दी। भारत मां के इन वीर बेटों को श्रद्धांजलि देने के लिए सैंकड़ों भारतीयों की भीड़ उमड़ी। बिस्मिल और अशफ़ाक़ दोनों ने साथ-साथ दुनिया को अलविदा कहा और साथ ही अपनी दोस्ती भी ले गए। 

“ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,

  अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है”‘।

(शाहीन अंसारी सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ ही सेंटर फॉर हार्मोनी एंड पीस की निदेशक हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...

Related Articles

स्मृति शेष : जन कलाकार बलराज साहनी

अपनी लाजवाब अदाकारी और समाजी—सियासी सरोकारों के लिए जाने—पहचाने जाने वाले बलराज साहनी सांस्कृतिक...