देवेंद्र सत्यार्थी: लोकगीतों में धड़कती जिंदगी

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देवेंद्र सत्यार्थी एक विलक्षण इंसान थे। पूरे हिंद उपमहाद्वीप में उनकी जैसी शख़्सियत शायद ही कोई हो। वे उर्दू-हिंदी-पंजाबी जुबान के अज़ीम अदीब थे। मगर इन सबसे अव्वल उनकी एक और शिनाख़्त थी, लोकगीत संकलनकर्ता की। अविभाजित भारत में उन्होंने पूरे देश में ही नहीं बल्कि भूटान, नेपाल और श्रीलंका तक घूम-घूमकर विभिन्न भाषाओं के तीन लाख से ज्यादा लोकगीत इकट्ठा किये थे। यह एक ऐसा कारनामा है, जो उन्हीं के नाम पर रहेगा।

देवेंद्र सत्यार्थी की एक किताब का नाम है, ‘मैं हूं ख़ाना-ब-दोश’। हक़ीकत में वे ख़ाना-ब-दोश ही थे। जिन्होंने पूरी ज़िंदगानी ख़ानाबदोशी में ही गुज़ार दी। उनकी बीवी और दोस्तों को भी यह मालूम नहीं होता था कि वे घर से निकले हैं, तो कब लौट कर वापस आयेंगे। लोकगीतों के जानिब देवेंद्र सत्यार्थी की दीवानगी और जुनून कुछ ऐसा था कि उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी इन्हीं को इकट्ठा करने में कुर्बान कर दी।

एक-एक गीत को इकट्ठा करने में उन्होंने कई तकलीफ़ें, दुख-दर्द सहे पर हिम्मत नहीं हारी। वे अपने पीछे लोकगीतों का एक ऐसा सरमाया छोड़ कर गये हैं, जिसकी दौलत कभी कम नहीं होगी। इन लोकगीतों का यदि अध्ययन करें, तो इनमें भारत की सभ्यता, संस्कृति, कला, रहन-सहन, रीति रिवाज, ऋतुएं, त्यौहार, शादी-विवाह, खेतीबाड़ी आदि को आसानी से समझा जा सकता है। इन लोकगीतों में जैसे जिंदगी धड़कती है।

देवेंद्र सत्यार्थी की उम्र महज उन्नीस बरस थी, तब कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वह अपने घर से निकल गए। घर छोड़ने का मक़सद, लोकगीतों के प्रति उनकी दीवानगी और उन्हें इकट्ठा करने का हद दर्जे का जुनून था। शायर इक़बाल, लेनिन और गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर का देवेंद्र सत्यार्थी की ज़िंदगी पर काफ़ी असर रहा। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने खु़दकुशी का इरादा कर लिया था।

कुछ दोस्तों को जब यह बात मालूम चली, तो वे उन्हें पकड़ कर अल्लामा इक़बाल के पास ले गये। इक़बाल ने समझाया, तब जाकर उन्होंने खु़दकुशी का ख़याल अपने दिल से निकाला। बहरहाल, लेनिन की तालीमात से वाकिफ़ होकर, उनमें लोकगीतों को जमा करने की ख़्वाहिश जागी। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर को जब देवेन्द्र सत्यार्थी ने अपने मन की बात बताई, तो उन्होंने उनके इस ख़याल को न सिर्फ़ सराहा, बल्कि हौसला-अफ़ज़ाई भी की।

देवेंद्र सत्यार्थी के इस अजीब जुनून में उनके भाषाओं के ज्ञान ने काफ़ी मदद की। उन्हें कई भाषाएं आती थीं। अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू गुरुमुखी यानी पंजाबी के अलावा तमिल, मराठी, गुजराती पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी। मौक़ा पड़ने पर वे किसी भी भाषा या बोली में संवाद कर सकते थे। अलबत्ता किसी भाषा की जानकारी न होने से उनके काम में कभी रुकावट नहीं आई।

वे जहां जाते वहां किसी को भी पकड़ कर, उससे उन गीतों का अनुवाद जानते और उसे लिपिबद्ध कर देते। यायावर देवेंद्र सत्यार्थी ने बरसों बरस बिना रुके, बिना थके घूम-घूमकर देश के कोने-कोने, गांव-गांव की यात्रा की और अनेक भाषाओं और क्षेत्रीय बोलियों के लाखों लोकगीत इकट्ठे किए। एक-एक लोकगीत के लिए उन्होंने बेहद मेहनत की। शुरुआत पंजाबी लोकगीतों से की और उसके बाद दीगर भाषाओं के लोकगीत ख़जाने की तरफ़ बढ़े।

भारत की तमाम भाषाओं के लोकगीत इकट्ठे हो गए, तो पड़ोसी देशों की लोक संस्कृति और लोकगीतों को जानने की चाहत जागी, उन्हें इकट्ठा करने निकल लिए। इस लोकयात्री ने तक़़रीबन 50 भाषाओं के हज़ारों गीतों का ऐसा ख़जाना तैयार किया है, जो साहित्य की अमूल्य निधि है। अकेले ‘लोकगीत’ ही नहीं ‘लोककथा’, ‘लोक साहित्य’, ‘लोककला’ और ‘लोकयान’ जैसे शब्दों के हिंदी में प्रचलन का श्रेय भी देवेंद्र सत्यार्थी को ही जाता है।

अपने ज़माने में उनके लोकगीत संबंधी लेख, और इकट्ठा किये लोकगीत देश भर की मशहूर पत्र-पत्रिकाओं जैसे ‘विशाल भारत’, ‘मॉडर्न रिव्यू’ और ‘एशिया’ में एहतिराम के साथ छपते थे। बावजूद इसके उन्हें अपने इस काम का किसी भी तरह का कोई अहंकार नहीं था। वे हमेशा विनम्र बने रहे।

अपने पहले लोकगीत-अध्ययन ‘धरती गाती है’ की भूमिका में उन्होंने बड़े ही विनम्रता और सादगी से यह बात लिखी है, ‘‘आज सोचता हूं कि कैसे इस लघु जीवन के बीस बरस भारतीय लोकगीतों से अपनी झोली भरने में बिता दिए, तो चकित रह जाता हूं। कोई विशेष साधन तो था नहीं। सुविधाओं का तो कभी प्रश्न नहीं उठा था। फिर भी एक लगन अवश्य थी, एक धुन।

आज सोचकर भी यह कहना कठिन है कि नए-नए स्थान देखने, नए-नए लोगों से मिलने की धुन अधिक थी या वस्तुतः लोकगीत-संग्रह करने की धुन। जो भी हो, मैंने निरंतर लंबी-लंबी यात्राएं कीं। कई जनपदों में तो मैं दो-दो, तीन-तीन बार गया। इन्हीं यात्राओं में मैंने शिक्षा की कमी को भी पूरा किया।’’

देवेंद्र सत्यार्थी ने जो लोकगीत इकट्ठा किए उनमें प्रेम, विरह, देशप्रेम, भाईचारा, गुलामी की फांस, साहूकारों-जमींदारों का शोषण और अंग्रेजी सरकार के विरोध के रंग भरे पड़े हैं, तो दूसरी तरफ अकाल, बाढ़ और सूखे के वर्णन भी हैं। देवेन्द्र सत्यार्थी ने एक बार अंग्रेजी राज में हाहाकार करते देशवासियों के दर्द को बयां करते हुए, यह लोकगीत सुनाया, ‘‘रब्ब मोया, देवते भज्ज गए, राज फिरंगियां दा।’’

इस गीत को जब महात्मा गांधी ने सुना, तो उन्होंने बेसाख़्ता यह टिप्पणी की, ‘‘अगर तराजू के एक पलड़े पर मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण रख दिए जाएं और दूसरे पर अकेला यह लोकगीत, तो लोकगीत वाला पलड़ा ही भारी रहेगा।’’ देवेन्द्र सत्यार्थी की अज़्मत बतलाने के लिए यह सिर्फ़ एक बानगी भर है। देवेंद्र सत्यार्थी की यायावरी के भी अनगिनत दिलचस्प किस्से हैं।

एक बार वे लोकगीतों को इकट्ठा करने पाकिस्तान यात्रा पर गये। निकले तो थे एक पखवाड़े के लिए, मगर जब चार महीने तक वापस नहीं लौटे, तो पत्नी को उनकी चिंता हुई। उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा, ‘‘मेरे पति की तलाश कराएं।’’ बहरहाल, नेहरू ने सरकारी स्तर पर कोशिशें तेज कीं और उन्हें बुलवाया।

देवेंद्र सत्यार्थी ने लोकगीतों को इकट्ठा करने के लिए की गईं बेशुमार यात्राओं और जिंदगी से हासिल तजुर्बों को कलमबंद कर तमाम साहित्य रचा। इस बहुभाषी लेखक ने साहित्य की अनेक विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथात्मक लेख, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रा वृतांत और साक्षात्कार पर पचास से ज़्यादा किताबें लिखीं। पर इन सबके ऊपर लोकगीतों से मुहब्बत रही।

पंजाबी में लोक साहित्य के क्षेत्र में उनकी चार किताबें ‘गिद्धा’, ‘दीवा बले सारी रात’, ‘पंजाबी लोक साहित्य विच सैनिक’ और ‘लोकगीत दा जनम’ प्रकाशित हुईं। वहीं ‘धरती दीयां वाजां’, ‘मुड़का ते कणक’, ‘बुड्ढी नहीं धरती’ और ‘लक टुनूं-टुनूं’ उनके काव्य-संग्रह हैं। कहानी-संग्रह की यदि बात करें, तो ‘कुंगपोश’, ‘सोनागाची’, ‘देवता डिग पया’, ‘तिन बुहियां वाला घर’, ‘पेरिस दा आदमी’, ‘सूई बाजार’, ‘नीली छतरी वाला’, ‘लंका देश है कोलंबो’ और ‘संदली गली’ आदि संग्रह में उनकी कहानियां संकलित हैं।

देवेंद्र सत्यार्थी ने उपन्यास भी लिखे। ‘रथ के पहिए’, ‘कठपुतली’, ‘ब्रह्मपुत्र’, ‘दूध-गाछ’, ‘घोड़ा बादशाह’ और ‘कथा कहो उर्वशी’ उनके उपन्यास हैं। देवेंद्र सत्यार्थी ने अपनी आत्मकथा भी लिखी। ‘चांद-सूरज के बीरन’ उनकी आत्मकथा है। यह एक अलग ही तरह की आत्मकथा है, जिसमें पंजाब और उसके लोकमानस के दीदार होते हैं।

देवेंद्र सत्यार्थी ने रेखाचित्र, संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत भी ग़ज़ब के लिखे हैं। इन किताबों में उनकी घुमक्कड़ी की ऐसी-ऐसी दास्तानें बिखरी पड़ी हैं कि मंटो ने उनसे मुतासिर होकर एक बार सत्यार्थी को पत्र लिखा, ‘‘वह उनके साथ गांव-गांव, नगरी-नगरी घूमना चाहते हैं।’’ वहीं उर्दू अदब के बड़े अफ़साना निगार कृश्न चंदर ने उनसे एक बार हसरत भरे अल्फ़ाज़ों से कहा, ‘‘भाई, अपने सुख मुझे भी दे दो।’’

देवेंद्र सत्यार्थी हरफ़नमौला थे। उनमें एक साथ कई खू़बियां थीं। उन्होंने संपादन और अनुवाद-कला में भी हाथ आजमाया। ‘आजकल’ पत्रिका के संपादक रहे। उनके संपादन में पत्रिका ने नई ऊंचाईयां छुईं। कथाकार प्रकाश मनु ने देवेंद्र सत्यार्थी के साहित्य का श्रमसाध्य संपादन कर उनकी पूरी रचनावली तैयार की है। भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक जीवन में देवेंद्र सत्यार्थी का जो अमूल्य योगदान है, उसके लिए वे कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किये गये।

साल 1977 में भारत सरकार ने उन्हें लोकगीतों के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए ‘पद्मश्री’ सम्मान से नवाज़ा। देवेंद्र सत्यार्थी ने लोकगीत-संग्रह के अपने जुनून और दीवानगी की वजह से जो काम कर दिखाया, वह वाकई बेमिसाल है। हमारी अनमोल बौद्धिक संपदा जो वाचिक अवस्था में थी, उसको लिपिबद्ध करने का उन्होंने मुश्किल काम किया। एक लिहाज से कहें, तो वे आधुनिक भारत के सांस्कृतिक दूत हैं। जिन्होंने देश भर में बिखरे लोकगीतों को इकट्ठा कर, देशवासियों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम किया।

महात्मा गांधी, देवेंद्र सत्यार्थी के इस काम को मुल्क की आज़ादी की लड़ाई का एक ज़रूरी हिस्सा मानते थे। वे बार-बार इस बात को जोर देकर कहते थे, ‘‘सत्यार्थी जी निरंतर गांव-गांव भटककर, लोकगीतों के संग्रह के जरिए भारत की आत्मा की जो खोज कर रहे हैं, वही तो आज़ादी की लड़ाई की बुनियादी प्रेरणा है। हम भारत की जिस विशाल जनता के दुख-दर्द की बात करते हैं, उसकी समूची अभिव्यक्ति तो अलग-अलग भाषाओं के लोकगीतों में ही होती है।’’

देवेंद्र सत्यार्थी को एक लंबी उम्र मिली। 95 साल की उम्र में 12 फरवरी, 2003 को उन्होंने इस दुनिया से अपनी विदाई ली। चिंतक वासुदेवशरण अग्रवाल ने देवेन्द्र सत्यार्थी को जनपदीय भारत का सच्चा चक्रवर्ती बताया था। उनका कहना था, ‘‘जिनके रथ का पहिया अपनी ऊंची ध्वजा से ग्रामवासिनी भारतमाता की वंदना करता हुआ सब जगह फिर आया है।’’

(मध्य प्रदेश से जाहिद खान की रिपोर्ट।)

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