Saturday, April 27, 2024

पुस्तक समीक्षा: अपने समय के सच को उजागर करती मारक विमर्श की कविताएं

पुस्तक समीक्षा:  कवि पंकज चौधरी समाज की वर्तमान अवस्था पर पैनी नज़र रखने वाले विलक्षण कवि हैं। इनकी कविता के परिसर में नकली यथार्थ और बिम्ब का प्रवेश वर्जित है। वह सामाजिक मुद्दों को शब्दों के घटाटोप से ढकने के बजाए उसे उघाड़ कर रख देने वाले कवि हैं।

इस इक्कीसवीं सदी में सामाजिक और आंतरिक तौर पर बरते जा रहे जाति-भेद ने दलितों और पिछड़ों को न सिर्फ हाशियकृत किया बल्कि उन्हें सार्वजनिक संस्थानों और संपत्ति में भागीदारी के अवसरों से वंचित कर उन्हें पीछे और पीछे धकेला जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो इस समय हिन्दी कविता के परिसर में हवा-हवाई विषय पर लिखने वाले अखाड़ियों की बाढ़ सी आ गयी है।

ऐसे समय में कवि पंकज चौधरी का कविता संग्रह ‘किस-किस से लड़ोगे’ जातिवादी और ब्राह्मणवादी चौहद्दियों की बजबजाती गलियों को उघाड़ता हुआ, उसके छल-प्रपंच को बड़ी शिद्दत से उजागर करता है। इस संग्रह की कविताएं तर्क करती हैं कि आधुनिक कहलाने वाला उच्च कुलीन वर्ग इस नई सदी में और संविधान की रोशनी में भी ब्राह्मणवादी मूल्यों को अपनी छाती से अलग नहीं कर पाया है।

यह कविता संग्रह अपने विमर्श में इस तथ्य को सामने लाता है कि यह कुलीन वर्ग सामाजिक,धार्मिक रूढ़ियों को झुठलाने के नाम पर दिखावा करता है। असल में उसके चेतन और अवचेतन मनोवृति में जातिवाद का रसायन रिसता रहता है। जातिवाद का यह रसायन आगे चलकर ब्राह्मणवाद का रूप धारण कर समाज को खंडित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।

इस संग्रह की कविताएं इस विमर्श को आगे बढ़ाती हैं कि आजादी के बाद सैद्धांतिक और व्यावहारिक तथ्य और अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि सार्वजनिक संपत्ति का बटवारा सर्वसमावेशी मूल्यों के आधार पर नहीं होकर जातिवादी श्रेष्ठता के आधार पर हुआ है। यदि ऐसा नहीं है तो सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, साहित्यिक और मीडिया के महकमों में निर्णायक पदों पर कुलीन वर्ग का कब्ज़ा क्यों दिखायी देता है।

कवि पंकज चौधरी की कविताओं में इस सवाल को बड़ी शिद्दत से उठाया कि दलितों और पिछड़ों को सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के भीतर उचित हिस्सेदारी नहीं मिली है। सामाजिक, सांकृतिक, शैक्षिक, आर्थिक और साहित्य संस्थाओं में उच्च पदों पर ऊंची जाति के विशेष लोग आसीन दिखाई देते हैं। जो उच्च श्रेणी की मानसिकता से ग्रसित होते हैं। जिसके चलते संस्थाओं में विविधता नहीं आ पाती है। इस संग्रह की ‘हिन्दी कविता के द्विजवादी प्रदेश में आपका प्रवेश दंडनीय है’ कविता तथाकथित प्रगतिशील कहलाने वाले साहित्य अखाड़ियों का काला चिट्ठा खोल कर रख देती हैं। कवि का बयान है कि “साहित्य अकादमी पुरस्कार उनका/ भारतीय ज्ञानपीठ  पुरस्कार उनका/ कहने को तो भारत हजारों जातियों और धर्मों का देश है/ लेकिन हिन्दी कविता मात्र तीन-चार जातियों का अवशेष है”।

जब देश की आजादी अंगड़ाई ले रही थी तो हमारे रहनुमाओं ने संविधान के हवाले से जाति-प्रथा और गैर बराबरी के सिद्धांत को आधुनिक भारत के नक्शे से बाहर करने पर ज़ोर दिया था। बड़ी दिलचस्प बात यह है कि उच्च श्रेणी का तबका संविधान को ताख पर रख कर जाति-प्रथा से मुक्त होने के बजाय उसे संगठित करने में लग गया।

इधर जाति के नाम पर तमाम संगठनों की बड़ी गोलबंदी दिखायी देती है। कवि पंकज चौधरी जाति-संगठनों की इस गोलबंदी को जाति उन्मूलन के लिए घातक मानते हैं। वह पूछते हैं कि “क्या भारत में जाति से बड़ा कोई संगठन हैं”? यह एक ऐसा मारक सवाल है जिसके जवाब बुद्धिजीवियों  सहित अस्मितावादी विमर्शकारों को तलाशने होंगे।

देखा जाए तो यह कविता संग्रह जाति-व्यवस्था के जटिल संरचना में धंसे भारतीय समाज की भयवाह परिस्थियों का जायजा लेता है। संग्रह की कविताएं तर्क करती हैं कि जाति-प्रथा जहां उच्च श्रेणी के हिंदुओं को मान–सम्मान, पद, प्रतिष्ठा प्रदान करती हैं, वहीं दलित पिछड़ों को सार्वजनिक संस्थाओं से वंचित करने में बड़ी भूमिका निभाती हैं।

कवि पंकज चौधरी इस संग्रह के हवाले से बहुजनों की हिस्सेदारी का सवाल उठाते हैं। वे अपनी कविताओं में इस बात को ज़ोर देकर कहते हैं कि साहित्यिक और सामाजिक महकमों में तथाकथित सवर्ण पृष्ठिभूमि के लेखकों का ही वर्चस्व है।

इस संग्रह की ‘साहित्य में आरक्षण’ कविता में इस विमर्श को बल मिला है कि साहित्य और समाज के भीतर विविधता का बड़ा अभाव है कवि कहते हैं “अखबार के भी वही सम्पादक बनते हैं/गोष्ठियों की भी वही अध्यक्षता करते हैं/चैनलों पर भी वही बोलते हैं/प्रधानमन्त्री के भी शिष्टमण्डल में/वही विदेशी दौरा करते हैं/लाखों के भी पुरस्कार वही बटोरते हैं/वाचिक परम्परा के भी वही लिविंग लीजेण्ड कहलाते हैं/महान पत्रकार, महान सम्पादक, महान आलोचक, महान कवि, महान लेखक भी वही कहलाते हैं/और साहित्य में आरक्षण नहीं होता/ये भी वही बोलते हैं”।

कवि पंकज चौधरी की एक यह भी विशेषता है कि जैसा वह समाज देखते हैं उसे हूबहू अपनी कविताओं  में पेश करते हैं। कहने का अर्थ है कि कवि पंकज चौधरी बनावट की मुद्रा को इख्तियार नहीं करते हैं।  इसीलिए उनकी कविताएं गहरा असर करती हैं। एक सच्चा कवि शब्दों के वाग्जाल से मुक्त होता है। वह कविताओं के भीतर चमत्कार पैदा करने के वजाय सामाजिक मुद्दों से मुठभेड़ करता है।

पंकज चौधरी दिल्ली की चकाचौंध से बहुत ज्यादा आक्रांत नहीं है। वह दो टूक शब्दों में कहते हैं कि ‘दिल्ली में समाज नहीं है’। वह आगे की पंक्ति में और मारक सवाल उठाते हैं कि, ‘दिल्ली में लोकतन्त्र नहीं, दिल्ली में धनतंत्र है’। इसी कविता में आगे बताते हैं कि ‘दिल्ली  में शूद्र नहीं दिल्ली में द्विज ही द्विज है’। कहने का अर्थ यह कि आधुनिक कहलाने वाले इस शहर के नागरिक जाति और वर्ण के घाट को पार नहीं कर सके हैं।  

कवि पंकज चौधरी की अनुभूतियां बड़ी गहन और विरल है। उनकी अंतर्दृष्टी जातिवादी गतिविधियों की  सतत पीछा करती रहती हैं। इस संग्रह की कई कविताएं कथनी और करनी में अंतर रखने वालों द्विज बुद्धिजीवियों का मुखौटा उघाड़ कर रख देती हैं। इस संग्रह की ‘वे ब्राह्मणवादी नहीं हैं’ कविता में ब्राह्मणवाद की शिनाख्त बड़ी सूक्ष्म तौर पर की गयी है। ब्राह्मणवादी ना होने का दावा करने वाले कितने महीन तरीके के ब्राह्मणवादी  होते हैं। इसका अंदाज़ा कवि की इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है।

 “वे ब्राह्मणवादी नहीं हैं/लेकिन ब्राह्मणों को ही कवि मानेगें/ वे ब्राह्मणवादी नहीं हैं/लेकिन ब्राह्मणों को ही पुरस्कार दिलाएंगे”। इस इक्कीसवीं सदी में केवल ब्राह्मणवाद से लड़ना एक चुनौती तो है ही इसी के साथ  ब्राह्मणवाद को मजबूत करने वाली जातियों से मुठभेड़ करने की चुनौती लगातार महसूस हो रही है। इस संग्रह की शीर्षक कविता ‘किस-किस से लड़ोगे’ ब्राह्मणवाद के औज़ार के तौर पर प्रकट होने वाले “वादियों” को जड़ से उखाड़ फेंकने पर बल देती है।

वास्तव में देखा जाए तो पंकज चौधरी की यह कविता संग्रह ब्राह्मणवादी निर्मितियों के विरुद्ध मारक विमर्श तैयार करता दिखायी देता है। अपने समय और समाज को जांचने और परखने का एक नज़रिया और दर्शन भी इस संग्रह की कविताओं में निहित है। अनुभव की चाशनी में रची और पगी कविताएं यथार्थ का स्पर्श पाकर और मारक हो उठी हैं। इस संग्रह की एक यह भी विशेषता है कि भारी-भरकम शब्दों का मुलम्मा कविताओं पर न चढ़ाकर उन्हें स्वभाविक रूप में निखारा और संवारा गया है। यह कविता संग्रह अपनी प्रकृति में भले ही छोटा हो लेकिन जातिवाद के विरुद्ध गंभीर विमर्श को दिशा देता दिखायी देता है।

(सुरेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)     

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