Sunday, April 28, 2024

मुद्दा क्या है ! ‘घनचक्करों’ और ‘धनचक्रों’ का तिकड़म ताल: मुद्दा है लोकतंत्र अब हो बहाल!

गिने-चुने दिन रह गये हैं। आम चुनाव 2024 सामने है। विभिन्न राजनीतिक दल और गठबंधन अपने-अपने चुनावी कार्य-क्रम और कार्य-सूची (एजेंडा) बनाने में जुटे हुए हैं। चुनावी मुद्दा की सूची तैयार कर रहे हैं। इस समय काम चल रहा है। एक-दूसरे की तरफ ताक कर रहे हैं। जैसा परीक्षा के दौरान परीक्षार्थी अपना-अपना पर्चा लिखते लहते हैं और बीच-बीच में नजर घुमा-घुमाकर टोह लेते रहते हैं कि अन्य साथी परीक्षार्थी क्या कर रहे हैं! सुना है आजकल कॉपी जांचने वालों के पास भी प्रश्नों के ‘मॉडल आंसर’ तैयार रहता है।

चुनावी परीक्षा का परीक्षार्थी नेता-वृंद होते हैं या ‘जनता जनार्दन’? इस सवाल को ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। कुंडे-कुडे नवं पयः जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे।’ का स्मरण करते हुए आगे बढ़ना ही उचित है। फिलहाल, यह प्रस्ताव है कि परीक्षार्थी और परीक्षक दोनों ही मतदाताओं को मानना चाहिए। नेता की स्थिति ‘लीक पेपर’ के ‘मॉडल आंसर’ की होती है। कुछ लोग कहते हैं कि जांच का अधिकार मतदाता के पास ही होता है, सही कहते हैं ऐसा ही होता होगा। चुनावी रैलियों, सभाओं, घोषित-अघोषित रूप से ‘मार्ग दर्शक मंडल’ के बहार रह गये नेता-वृंद जनता का ‘मार्ग प्रदर्शन’ (Road Show) करते हुए ‘आंसर’ देते नहीं थकते हैं!

मतदाताओं का क्या भरोसा, कब किसे ‘मार्ग दर्शक मंडल’ का मार्ग दिखला दे। नेतागण समझते हैं कि परीक्षार्थी वे हैं। इसलिए मतदाताओं के पास नेतागण अपना ‘आंसर’ जमा करते रहते हैं। आम मतदाता भी मन-ही-मन परीक्षा दे रहा होता है। परीक्षार्थी और परीक्षक दोनों के रूप में अपना फैसला सुनाने का अधिकार मतदाताओं के पास ही होता है। फिर भी ध्यान रहे विशेषाधिकार, केंद्रीय चुनाव आयोग के पास होता है। अब इस विवाद में क्या पड़ना कि ‘अधिकार’ अधिक ‘पॉवरफुल’ होता है या ‘विशेषाधिकार’ अधिक ‘पॉवरफुल’ होता है! गफलत में न रहे कोई, सच्चा और सुच्चा ‘मॉडल आंसर’ केंद्रीय चुनाव आयोग के पास ही होता है।

आजकल परीक्षार्थी ‘पेपर लीक’ से बहुत परेशान रहते हैं। परीक्षा में ‘पेपर लीक’ का मतलब सिर्फ सवालों के आम होने तक सीमित नहीं रहता है, उसका ‘मॉडल आंसर’ भी उपलब्ध हो तभी इस कुचक्र चक्कर पूरा हो सकता है। क्या पता, ‘मॉडल आंसर’ भी उपलब्ध करवा दिया जाता होगा। मुद्दा तो यह भी है।

अब 2024 का आम चुनाव सामने है तो लोगों को अपना मुद्दा तय करना चाहिए। यहां तो सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। न केवल तय करना चाहिए, बल्कि मुंह भी खोलना चाहिए। जिस तरह रोशनी से अंधकार दूर हो जाता है, उसी तरह वाणी से भय दूर हो जाता है। लोकतंत्र की यही तो बड़ी खासियत है कि यह गूंगों को भी जुबान देता है। यह अलग बात है कि बहुत सारे वाचाल लोग भी, जरूरत के समय ‘समझदारी के सुख में लिपटकर’ जुबान को आराम देते हैं! खामोश रहते हैं। बोलने के अधिकार में चुप रहने का अधिकार स्वतः शामिल है। गालिब ने कहा था- मैं भी मुंह में जुबान रखता हूं काश, पूछो कि मुद्दआ क्या है! लोकतंत्र पूछ रहा है कि मुद्दा क्या है! आम मतदाताओं को भी खुद से ही सही, पूछना ही चाहिए कि मुद्दा क्या है?

क्रम कुछ भी हो सकता है। आम चुनाव का मुद्दा है -लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना। सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करना। संवैधानिक ईमानदारी से जाति-गणना और आर्थिक सर्वेक्षण करवाना। आंदोलनकारियों के साथ संवैधानिक तरीके से पेश आना। शहरीकरण के साथ-साथ गांवों का सभ्य और बेहतर जीवन के लिए नवीकृत करना। ग्रामीण समस्या और किसानी की दिक्कतों को दूर करना।

नागरिकता और राष्ट्रीयता के मुद्दों पर हुज्जत न पसारना तथानागरिकता के सवाल के साथ बिना मतलब का छेड़-छाड़ बंद करना। महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं यौन सुरक्षा के लिए सभी कानूनी उपायों को बिना भेदभाव के लागू करना। स्वायत्त संवैधानिक ढाँचों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाना। नौकरशाही को दलीय क्रिया-कलाप की जरूरतों को पूरा करने के काम में नहीं लगाना। पोसुआ पूंजीवाद (Crony Capitalism) और उस से मिली-भगत (Quid Pro Quo) को बंद करना। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा असंवैधानिक घोषित धुरफंदिया चुनावी फंड (Electoral Bonds) जैसी किसी योजना को न लाना। किसी भी तरह की ‘उगाही’ के लिए उद्योगपतियों या कारोबारियों पर सरकारी विभागों का दबाव न बनाना।

विघटनकारी और विभाजनकारी जनविद्वेषी वक्तव्यों (Hate Speech)पर पूरी तह से रोकना और ऐसे वक्ताओं पर बिना भेदभाव के कार्रवाई करना। ‘बुलडोजर न्याय’ की बढ़ती प्रवृत्ति पर तुरत रोक लगाना। देश के संघात्मक ढांचा के प्रति सम्मान बनाये रखना। पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार और विश्व शांति के लिए कूटनीतिक प्रयास जारी रखना। रोजगार के लिए समुचित अवसर बनाने के लिए सदैव तत्पर रहना। सामाजिक और सांस्कृतिक संतुलन बनाये रखना। सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन के उपायों पर अमल करना। राजनीतिक ‘लाभार्थी’ की जगह संवैधानिक भावनाओं के अनुरूप आधिकारिकता (Entitlement) का आदर करना।

सामाजिक दक्षता (Social Efficacy) के उपयोग से हुए सामुदायिक प्रभुता (Community Dominance) का राजनीतिक इस्तेमाल लोक-हित में ही करने को बढ़ावा देना और व्यक्ति वर्चस्व को बढ़ने से रोकना। धर्मों के वास्तविक स्वरूप और उसके नैतिक मूल्यों की रक्षा करना। नागरिकों के बीच सह-अस्तित्व एवं सहिष्णुता की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना। पेंशनार्थियों का हकमारने को रोकना एवं वरिष्ठ नागरिकों की रियायतों को जारी रखना।

विभागीय कार्रवाइयों का डर दिखाकर विपक्षी राजनीतिक दलों से जुड़े जन-प्रतिनिधियों को बहलाने, फुसलाने, रिझाने, लुभाने के कपट से लोकतांत्रिक मूल्यों पर चोट को रोकना। राजकोषीय संतुलन (Fiscal Balance) की अवहेलना न करना। राजनीतिक लाभ-द्वेष को ध्यान में रखकर देश की सुरक्षा के लिए किये गये कानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल, नागरिकों, बुद्धिजीवियों, छात्रों आदि के विरुद्ध किये जाने को रोकना।

राजनीतिक मायावाद कहें, विभ्रमवादी राजनीति कहें, आम नागरिकों को नेताओं की बाजीगरी से बाहर निकलना ही होगा। विकास के नाम पर आम नागरिकों को लूटने और पूंजीपतियों के घर भरने की छूट देना बंद करना होगा। पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से आम मतदाताओं को सोचना ही होगा, आखिर ये भविष्य का नहीं वर्तमान के मुद्दे हैं।

भारत ऋषियों-मुनियों-दार्शनिकों, सत्यान्वेषियों, कवियों, मनीषियों का भी देश रहा है। लोक में इनके प्रति नैसर्गिक सम्मान रहा है। औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति के लिए प्रयास करनेवाले लोगों को इस देश के लोग वही नैसर्गिक सम्मान देते थे। नैतिक एवं संवैधानिक प्रावधानों का पालन लोगों के उस नैसर्गिक सम्मान का प्रतिदान है। बूढ़ों के सम्मान और युवाओं के उत्साह से किसी देश का मान बढ़ता है। देश में भगवान राम की चर्चा खूब हो रही है, बूढ़ों के सम्मान और युवाओं के उत्साह के संदर्भ में एक प्रसंग का उल्लेख, शायद उपयोगी हो।

अथाह समुद्र को पार कर सीता की सुध लाने के लिए खोजी दल के सभी सदस्य अपनी-अपनी ताकत का अनुमान लगा रहे थे। हनुमान चुप थे। रीछपति, जामवंत ने हनुमान से पूछा तुम क्यों चुप हो! तुम पवन पुत्र हो, बल में पवन के समान। पवन तो कहीं भी आ, जा सकता है। बुद्धि, विवेक और ज्ञानवान हो। युवा हनुमान ने बूढ़े जामवंत को कोई जवाब नहीं दिया। हनुमान के जवाब के इंतजार में किष्किन्धाकांड समाप्त हो गया।

जब जामवंत की अच्छी बात हनुमान को भी अच्छी लगी तब ही सुंदरकांड प्रारंभ हो पाया। अब यहां कम-से-कम दो सवाल विचारणीय हैं, बस अपने लिए। पहला यह कि जामवंत ने हनुमान को पवन पुत्र कहकर प्रेरित किया था। क्या जामवंतने परिवारवाद को बढ़ावा देने का दोष किया था?

दूसरा यह कि वृद्ध (जामवंत) की प्रेरणाएं युवाओं (हनुमान) को अच्छी लगे और सक्रिय कर दे क्या, तब ही सुंदरकांड का प्रारंभ होता है?

‘घनचक्करों’ और ‘धनचक्रों’ की रणनीतिक चौकसी के बीच परेशान मतदाताओं का मुद्दा है लोकतंत्र बचाओ!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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