Saturday, April 20, 2024

जयंती पर विशेष: क्या कांग्रेस को कामराज जैसे किसी नये प्लान की जरूरत है?

कांग्रेस जब भी किसी संकट का सामना करती है, तो वह अतीत में समाधान खोजती है। 59 वर्ष पहले मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री कुमारस्वामी कामराज ने प्रधानमंत्री नेहरू एंड कांग्रेस सरकार को फिर से सक्रिय करने के लिए ‘कामराज योजना’ को लागू किया था। 2019 के आम चुनाव के बाद 5 राज्यों में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के असामयिक पतन के मद्देनजर कामराज योजना फिर से बहस का विषय बन गई। कामराज ने 1954 से 1963 तक लगातार तीन बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। उन्होंने स्वेच्छा से 2 अक्टूबर 1963 को मुख्यमंत्री के रूप में इस्तीफा दे दिया। इसका मुख्य कारण चीन के साथ हुए विनाशकारी सीमा युद्ध के बाद जमीनी स्तर पर कांग्रेस पार्टी के पुनर्निर्माण का कार्य करना था।

नेहरू के बाद कौन का जवाब कामराज ने ही दिया

कामराज ने जवाहरलाल नेहरू को सुझाव दिया कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को अधिक संगठनात्मक कार्य करने के लिए मंत्री पद छोड़ देना चाहिए। जिसे ‘कामराज योजना’ के नाम से जाना गया। लाल बहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई, बीजू पटनायक और एसके पाटिल सहित छह केंद्रीय मंत्रियों और छह मुख्यमंत्रियों ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया। हालांकि नेहरू द्वारा मनाए जाने के बाद कामराज ने 9 अक्टूबर 1963 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला। भुवनेश्वर अधिवेशन तब भी चल रहा था जब नेहरू को आघात लगा। यह उत्तराधिकार के मुद्दे को अपेक्षा के बेहद करीब ले गया और साथ ही साथ कामराज के प्रभाव को और पंख लग गए। उनकी योजना ने पहले ही कैबिनेट में ‘वरिष्ठ पैटर्न’ को उखाड़ फेंका जिसका इस्तेमाल नेहरू के उत्तराधिकारी के लिए उम्मीदवारों द्वारा वैधता का दावा करने के लिए किया जा सकता था। “आफ्टर नेहरू,हूँ ? के लेखक वेलीज़ हैंगन ने उनका बहुत सही वर्णन किया। उन्होंने लिखा – ‘कामराज, पान के पत्ते जैसी पलकों वाले, चुप्पे और भावहीन, एक लुटेरों के जहाज़ के कप्तान की तरह दिखते थे’।

जेपी ने किया था कामराज प्लान का खुले दिल से स्वागत

यह ऐतिहासिक दिन था। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सरकार से बाहर हुए कुछ लोगों ने दुख महसूस किया क्योंकि उन्हें लगा कि इससे समय आने पर नेहरू के उत्तराधिकार पर असर पड़ सकता है। मोरारजी देसाई से ज्यादा परेशान कोई नहीं था, जो गोविंद बल्लभ पंत की मृत्यु के बाद, नेहरू कैबिनेट में सबसे वरिष्ठ थे, और खुद को नेहरू का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे। फिर भी, वह अनावश्यक रूप से उत्तेजित नहीं हुए, क्योंकि उस समय प्रधानमंत्री का उत्तराधिकार दूर की कौड़ी लगता था। गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण के  शब्दों में, जिन्होंने कामराज योजना का उत्साहपूर्वक स्वागत किया। उनका मानना था कांग्रेस अध्यक्ष का पद तब “एक प्रधान लिपिक” जैसा हो गया था। जेपी ने इस योजना का खुले दिल से स्वागत किया।

कांग्रेस के अगले अध्यक्ष का चुनाव कार्यसमिति के एजेंडे में नहीं था। हालाँकि, कार्यवाही के अंत में, पश्चिम बंगाल के वयोवृद्ध नेता, अतुल्य घोष ने नेहरू को फुसलाया कि यद्यपि उनका नाम एक संभावित कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चल रहा था, उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। घोष को कामराज पर संदेह था कि वह इस पद को अधिकार के साथ जाया करेंगे। वित्त मंत्री रहे मोरारजी देसाई के मन में पीएम बनने की आकांक्षा हिलोरें ले रही थी। देसाई ने इस बात पर आपत्ति जताई कि इस मुद्दे को उठाना जल्दबाजी होगी। कामराज ने इस समय सर्वसम्मति की बात कर मोरारजी देसाई के तेवर ठंडे कर दिए। मोरारजी देसाई के बारे में नेहरू के विचार भी बहुत उत्साहजनक नहीं थे। वह जानते थे कि मोरारजी देसाई का उनका उत्तराधिकारी बनना कांग्रेस पार्टी के लिए विनाशकारी होगा। कामराज के नेतृत्व में सिंडीकेट ने शास्त्री का समर्थन किया।

जब इन्दिरा ने कहा कामराज अर्थशास्त्री नहीं हैं

1966 की बात है जब इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्री बनने के तुरंत बाद, कामराज को पहली बार अपमान का सामना करना पड़ा। 6 जून 1966 को रुपये का अवमूल्यन किया गया। कामराज को इसकी खबर मीडिया के जरिए ही लगी थी। उस दौरान वह नागरकोइल में थे। जब मीडिया ने इस बारे में उनसे पूछा, तो उन्होंने केवल इतना कहा, “मुझसे सलाह नहीं ली गई।” जब मीडिया ने कामराज की इस प्रतिक्रिया पर इंदिरा गांधी से बाइट मांगी तो उन्होंने जवाब दिया,“कामराज अर्थशास्त्री नहीं हैं। अर्थव्यवस्था में विशेषज्ञों की सलाह के बाद रुपये का अवमूल्यन किया गया है।”

आने वाला दौर कामराज के लिए उनके जीवन का सबसे बुरे दौर में शुमार रहा। 1967 के आम चुनावों में, सीएन अन्नादुरई के नेतृत्व में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने सी राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी, दो कम्युनिस्ट पार्टियों और कुछ अन्य के साथ गठबंधन किया और भारी जीत हासिल की। कांग्रेस को केवल 50 विधानसभा सीटें ही मिल सकीं। कामराज खुद अपने गृहनगर विरुधुनगर में एक छात्र नेता से चुनाव हार गए। कामराज अब इंदिरा गांधी की गिनती में नहीं थे, और इस तरह और अधिक अलग-थलग पड़ गए क्योंकि अधिक कांग्रेस नेताओं ने उनका साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। कामराज राजनीतिक शतरंज के मँजे हुए खिलाड़ी थे पर 1967 के चुनावों में जब द्रमुक की लहर ने तमिलनाडु को धो दिया तब उनकी भी हार हुई। कामराज हिलकर रह गए। कामराज पर दूसरी चोट 1969 में पड़ी जब श्रीमती गांधी ने, जिनको उन्होंने प्रधानमन्त्री बनवाया था, कांग्रेस का दोफाड़ कर दिया लेकिन कामराज पुरानी कांग्रेस के साथ ही रहे।

कामराज को क्यों लगा स्वतंत्रता खो गई है?

25 जून 1975 को जब देश में आपातकाल की घोषणा हुई तो उस दौरान कामराज थिरुथानी में एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे, उन्हें इसकी खबर मिली। उन्होंने सार्वजनिक रूप से शोक व्यक्त किया कि “स्वतंत्रता खो गई है।” कहा कि अब से, उनके भाषणों को कांग्रेस (ओ) समाचार पत्र ‘नवशक्ति’ में भी रिपोर्ट नहीं किया जाएगा ।

कामराज एक सुलझे हुए व्यक्ति थे। आरएम लाला ने अपनी किताब ‘महानता की छाप’ में कामराज के बारे में लिखा – ‘कामराज का सम्बन्ध उस युग से था जब एक कांग्रेस वालंटियर एक सूरमा होता था, एकनिष्ठ समर्पण-भाव के साथ आदर्शों वाला व्यक्ति होता था…उन्होंने एक मामूली कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में काम शुरू किया जिसके पास साम्राज्य की शक्ति से लड़ने के लिए सत्याग्रह के गांधीवादी हथियार से अधिक कुछ भी नहीं था।’

आज कांग्रेस उहापोह की स्थिति में है। पार्टी के वरिष्ठ और युवा नेता विपरीत पोल पर खड़े दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस के भीतर युवा नेताओं और वरिष्ठों के बीच संवाद की कमी खल रही है। पार्टी के भीतर युवा नेता इन बुजुर्ग हो चुके नेताओं से मुक्ति चाहते हैं। पार्टी मंथन के नाम पर कांग्रेस शिविर आयोजित कर रही है लेकिन स्थायी समाधान निकलता दिखाई नहीं दे रहा। सवाल है क्या कांग्रेस को फिर से एक और कामराज की तलाश है ?

 (प्रत्यक्ष मिश्रा स्वतंत्र पत्रकार हैं आजकल अमरोहा में रहते हैं।)

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