पंडित जवाहर लाल नेहरू का भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय योगदान है। परतंत्र भारत में पंडित नेहरू की अहमियत जहां देश को आज़ाद कराने के लिए किए गए उनके अथक प्रयासों के चलते है, तो स्वतंत्र भारत में प्रधानमंत्री के रूप में उनके द्वारा आधुनिक जीवन मूल्यों के प्रचार-प्रसार की वजह से। नेहरू, देश को वैज्ञानिक ख़ोजों और तकनीकी विकास के आधुनिक दौर में ले जाने के लिए दृढ़ संकल्पित थे। उन्होंने देशवासियों में दलित, पिछड़े और हाशिए से नीचे रहने वाले वंचित जनों के प्रति जागरूकता पैदा करने का महती कार्य किया। लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनकी अगाध आस्था थी और वे चाहते थे यही आस्था देशवासियों के दिल में भी हो। लिहाज़ा इसके लिए उन्होंने अनथक प्रयास किए।
नेहरू, समाजवादी विचारधारा से बेहद प्रभावित थे। समाजवादी विचारधारा का ही प्रभाव था कि उन्होंने भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा। लोकतंत्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता उनकी घरेलू नीति के चार ठोस स्तंभ थे। अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक वे इन्हीं नीतियों पर क़ायम रहे। जातीय तथा धार्मिक विभिन्नताओं के बावजूद जवाहरलाल नेहरू ने हमेशा देश की एकता और अखंडता पर जोर दिया।
नेहरू साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उनकी नज़र में संस्कृति के अलग ही मायने थे। संस्कृति को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा था,‘‘संस्कृति का मतलब है-मन और आत्मा की विशालता और व्यापकता। इसका मतलब दिमाग़ को तंग रखना, या आदमी या मुल्क की भावना को सीमित करना कभी नहीं होता।’’
नेहरू मौजूदा दौर के राजनेताओं की तरह उथले विचारों वाले नेता नहीं थे, न ही वे बड़बोले थे। वे जो भी बोलते, सोच-समझकर बोलते। नेहरू के विचारों के पीछे उनका गहरा अध्ययन-मनन साफ़ झलकता था। वे एक गंभीर विचारक थे। हर मौज़ू पर उनकी एक स्पष्ट राय थी। नेहरू द्वारा समय-समय पर दिए गए भाषणों का यदि अध्ययन करें, तो मालूम चलता है कि उनकी सोच अपने समय से कितनी आगे थी। किसी भी मसले पर उनके विचार देख लीजिए, वे जितने उस वक़्त प्रासंगिक थे, आज उससे भी कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हैं।
जवाहरलाल नेहरू साम्प्रदायिकता को पिछड़ेपन की निशाने मानते थे। 19 जुलाई, 1961 को श्रीनगर में दिए अपने भाषण में कश्मीरवासियों से उन्होंने कहा था,‘‘राजनीति में धर्म या मज़हब को लाना और देश को तोड़ना वैसा ही है, जैसा कि तीन सौ या चार सौ वर्ष पहले यूरोप में हुआ था। भारत में हमें इस चीज़ से अपने आपको दूर रखना होगा।’’
अपने इसी भाषण में वे उन लोगों को आग़ाह करते हैं, जो राष्ट्रवाद की सतही परिभाषा करते हैं,‘‘साम्प्रदायिकता के साथ राष्ट्रवाद जीवित नहीं रह सकता। राष्ट्रवाद का मतलब हिंदू राष्ट्रवाद, मुस्लिम राष्ट्रवाद या सिख राष्ट्रवाद कभी नहीं होता। ज्यों ही आप हिंदू, सिख, मुसलमान की बात करते हैं, त्यों ही आप हिंदुस्तान के बारे में बात नहीं कर सकते।’’
ज़ाहिर है उनकी नज़र में राष्ट्रवाद की परिभाषा संकीर्ण नहीं। भारत का जिस तरह का चरित्र है, उसमें सिर्फ़ हिंदू राष्ट्रवाद की बात करना, अंततः देश को नुकसान पहुंचाना है। हिंदुस्तान का तसव्वुर किसी एक धर्म को लेकर नहीं किया जा सकता। ये देश कई धर्मों और पंथों से मिलकर बना है। इसी भाषण में वे आगे कहते हैं,‘‘अलगाव हमेशा भारत की कमज़ोरी रही है। पृथकतावादी प्रवृतियां चाहे वे हिंदुओं की रही हों या मुसलमानों की, सिखों की या और किसी की, हमेशा ख़तरनाक और ग़लत रही हैं। ये छोटे और तंग दिमाग़ों की उपज होती हैं। आज कोई भी आदमी जो वक़्त की नब्ज़ पहचानता है, साम्प्रदायिक ढंग से नहीं चल सकता।’’
राजनीति और धर्म का क्या रिश्ता होना चाहिए?
इस विषय पर लंबे समय से बहस चलती रही है। आज भी यह बहस बदस्तूर ज़ारी है। आज़ादी के बाद संविधान सभा में इस सवाल पर बाक़ायदा एक विस्तृत बहस हुई। संविधान सभा के एक सदस्य अनन्तशयनम आयंगर ने जब अपने एक प्रस्ताव जिसमें उन्होंने धर्म, मज़हब, जाति और बिरादरी के आधार पर हर वर्ग की साम्प्रदायिक गतिविधियों को रोकने के लिए कानूनी और प्रशासकीय क़दम उठाए जाने की बात की, तो इस बहस में हिस्सा लेते हुए 3 अप्रैल, 1948 को अपने विधायी भाषण में पंडित नेहरू ने कहा,‘‘राजनीति और मज़हब का (संकीर्ण से संकीर्ण मायने में) गठबंधन सबसे ज़्यादा ख़तरनाक गठबंधन है और इसको ख़त्म कर देना चाहिए। इससे साम्प्रदायिक राजनीति पनपती है। इस बारे में कोई भी शिकायत नहीं होना चाहिए। यह साफ़ है कि जैसा माननीय प्रस्तावक ने कहा है कि यह गठजोड़ सारे मुल्क के लिए नुकसान देने वाला है। यह बहुमत के लिए भी हानिकर है लेकिन संभवतः यह उस अल्पसंख्यक वर्ग के लिए नुकसानदेह है, जो इससे कुछ फ़ायदा लेना चाहता है।’’
ज़ाहिर है कि पंडित नेहरू सियासत में मज़हब के इस्तेमाल के मुख़ालिफ़ थे। वे इस गठबंधन को बेहद ख़तरनाक मानते थे। न सिर्फ़ बहुसंख्यक वर्ग के लिए, बल्कि अल्पसंख्यक वर्ग के लिए भी।
संघ परिवार, आज जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिंदू राष्ट्रवाद की बात करता है, उस राष्ट्रवाद के पंडित नेहरू घोर विरोधी थे। उनकी यह सोच अचानक नहीं बनी थी। उन्होंने दुनिया के कई देशों की सियासत का अच्छी तरह से अध्ययन किया था, तब जाकर वे इस नतीजे पर पहुंचे थे।
उनका कहना था,‘‘राष्ट्रवाद एक विचित्र वस्तु है, जो देश के इतिहास के किसी ख़ास मुक़ाम पर तो जीवन, उन्नति, शक्ति और एकता प्रदान करती है, लेकिन साथ ही इसकी सीमित कर देने की भी प्रवृति है। क्योंकि आदमी यह सोचने लगता है कि मेरा देश बाकी दुनिया से भिन्न है। इस तरह, देखने का नज़रिया बदलता जाता है और आदमी अपने ही संघर्षों और अच्छाईयों और बुराईयों के सोचने में फंसा रहता है और दूसरे विचार उसके सामने आते ही नहीं। नतीजा यह होता है कि वही राष्ट्रवाद, जो किसी जाति की उन्नति का प्रतीक होता है, मानसिक विकास के अवरुद्ध होने का प्रतीक बन जाता है।’’
भारत के लिए जवाहरलाल नेहरू के दिल में क्या सपना था और वे किस तरह का देश बनाना चाहते थे? इस संबंध में देशवासियों से उनकी क्या अपेक्षा थी? इन सब सवालों के जवाब उनके एक नहीं, कई भाषणों में मिल जाएंगें।
आज़ादी के तुरंत बाद 13 दिसम्बर, 1947 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक विशेष दीक्षांत समारोह में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था,‘‘अपने राष्ट्रीय लक्ष्य के बारे में हमारी स्पष्ट कल्पना होनी चाहिए। हमारा लक्ष्य स्वतंत्र, सशक्त और लोकतंत्री भारत है। हम चाहते हैं कि भारत सशक्त, स्वाधीन और लोकतंत्री हो, जहां हर नागरिक को समान स्थान और तरक़्क़ी तथा सेवा के समान अवसर मिलें, जहां आजकल की जैसी धन-संपत्ति और हैसियत की असमानताएं मिट जाएं, जहां हमारा उत्साह और भावनाएं रचनात्मक और सहकारी अध्यवसाय की दिशा में काम करें। ऐसे भारत में साम्प्रदायिकता, अलगाव, पृथकता, छुआछूत, दंभ और आदमी द्वारा आदमी के शोषण का कोई स्थान नहीं होगा। धर्म जहां स्वतंत्र रहेगा, लेकिन उसे राष्ट्रीय जीवन के आर्थिक और राजनीतिक पक्ष में दखल देने की इजाज़त नहीं दी जाएगी। अगर ऐसा होता है तो हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई के ये सब झगड़े राजनीतिक जीवन से बिल्कुल ख़त्म हो जाएंगे। हमें एक संगठित और मिले-जुले राष्ट्र का निर्माण करना चाहिए, जिसमें व्यक्तिगत और सामूहिक आज़ादी सुरक्षित रहेगी।’’
(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)