Sunday, April 28, 2024

अमेरिका डूबेगा और हम भी

पीटर टर्चिन जटिलता विज्ञान के विशेषज्ञ (complexity scientist) हैं। वे अमेरिका की ‘यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टिकट’ में प्रोफेसर हैं। उनकी खास पहचान cliodynamics (क्लायो-डायनेमिक्स) नाम की विधा में उनके विशिष्ट योगदान के कारण है। फिलहाल वे इस विधा से जुड़े जर्नल Cliodynamics: The Journal of Quantitative History and Cultural Evolution के प्रधान संपादक हैं।

जैसा कि जर्नल के नाम से जाहिर है, क्लायोडायनेमिक्स एक ऐसी विधा है, जिसमें मानव इतिहास और संस्कृति के विकास क्रम का सांख्यिक अध्ययन किया जाता है। इस विधा से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि इस विधा में समाज विज्ञान को गतिशास्त्रीय प्रणालियों के जरिए समझने की कोशिश की जाती है। प्राकृतिक विज्ञान में यह तरीका पहले ही अपना महत्त्व साबित कर चुका है।

टर्चिन इस समय अपनी नई किताब- End Times: Elites, Counter-Elites, and the Path of Political Disintegration के कारण चर्चा में हैं। इस किताब में उन्होंने कहा है कि अमेरिका अपने विखंडन के रास्ते पर है। अपनी इस किताब के बारे में टर्चिन ने अमेरिकी पत्रिका द अटलांटिक में एक विशेष लेख लिखा।

इसमें उन्होंने बताया है- “हर मानव समाज में राजनीतिक संकट की लहरें बार-बार उठती हैं- ठीक उसी तरह, जैसा आज हम महसूस कर रहे हैं। मेरी रिसर्च टीम ने पिछले दस हजार साल में विभिन्न समाजों के रहे अनुभवों के बारे में एक डेटाबेस तैयार किया है। हमने अध्ययन किया है कि उन समाजों का पतन क्यों हुआ। इसके लिए हमने दर्जनों पहलुओं पर गौर किया, जिनमें जनसंख्या, खुशहाली का स्तर, शासन के प्रकार, और कितने अंतराल पर वहां शासकों को उखाड़ फेंका गया, आदि शामिल हैं।”

टर्चिन ने लिखा है- ‘हमने पाया है कि संकट पैदा करने वाली घटनाएं अलग-अलग रही हैं, लेकिन अस्थिरता के दो बहुत सामान्य कारण हैं। पहला है- अधिकांश लोगों की स्थिति का लगातार दयनीय होना। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण दूसरा कारण है और वह है (व्यवस्था में खपने से कहीं) अधिक संख्या में प्रभु वर्ग का विस्तार- यानी अति धनी और उच्च शिक्षित व्यक्तियों का इतनी ज्यादा संख्या में तैयार होना, जिनकी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने लायक स्तरीय पद मौजूद ना हों।’ टर्चिन ने कहा है कि जब प्रभु वर्ग के लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप स्थितियां समाज में नहीं रह जातीं, तब उनके बीच विचारधारात्मक होड़ छिड़ जाती है।

इस समझ की रोशनी में वर्तमान अमेरिका के बारे में टर्चिन की राय है कि वह संकट से ठीक पहले की स्थिति में पहुंच चुका है। यह वो स्थिति होती है, जब राजनेता (सार्वजनिक रूप से शक्तिशाली लोग) स्थापित व्यवस्था पर हमला करना शुरू कर देते हैं- यानी जब शक्तिशाली हुए नए तबके आपस में लड़ने लगते हैं। टर्चिन ने एक वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में कहा है- ‘ऐसी जहरीली वैचारिक लड़ाइयां किसी भी क्रांति से पहले का एक सामान्य घटनाक्रम होती हैं। इस होड़ में शामिल शक्तियां चरम बिंदु की तरफ जाती हैं और एक दूसरे को खारिज करने की प्रवृति उनमें बढ़ती चली जाती है। हर पक्ष आरोपों को अधिक तीखा बनाता जाता है, ताकि मध्यमार्गी लोगों को वह अपनी तरफ खींच सके।’

तो सवाल है कि अमेरिका में यह स्थिति क्यों बनी है? टर्चिन का उत्तर है कि पिछले 50 साल में कुल आर्थिक विकास के बावजूद ज्यादातर अमेरिकावासियों का जीवन स्तर गिरा है। धनी लोग अधिक धनी हुए हैं, जबकि औसत अमेरिकी परिवारों की आमदनी और तनख्वाह ठहराव का शिकार रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि सामाजिक पिरामिड में ऊपर का हिस्सा अधिक भारी हो गया है। उसी समय अमेरिका में इतनी अधिक संख्या में ग्रेजुएट और उससे भी बड़ी डिग्रियां लेकर लोग निकल रहे हैं, जिन्हें अमेरिका खपा सकने में अक्षम है। नतीजतन, सत्ता के सीमित स्थानों पर पहुंचने के आकांक्षी लोगों के बीच संघर्ष चल रहा है। इस संघर्ष के कारण सामाजिक नियम और वो संस्थान क्षीण हो गए हैं, जिनसे समाज संचालित होता है।

गौरतलब है कि अमेरिका के बारे में ऐसा आकलन सिर्फ टर्चिन का नहीं है। थॉमस होमर-डिक्सन कनाडा की रॉयल रोड्स यूनिवर्सिटी में स्थित कैस्केड इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक हैं। उन्होंने कुछ समय पहले अपने देश यानी कनाडा को आगाह करते हुए एक लंबा आलेख लिखा, जिसका शीर्षक हैः अमेरिकी राज्य-व्यवस्था में दरारें पड़ गई हैं, जो संभव है कि ढह जाए। इस लेख में उन्होंने कहा कि अमेरिका में शासन करना लगातार असंभव होता जा रहा है। इसमें उन्होंने आशंका जताई है कि अमेरिका में गृह युद्ध शुरू हो सकता है।

दरअसल, वहां की स्थितियों के कारण अमेरिका में गृह युद्ध और लोकतंत्र के खतरे में पड़ने की चेतावनी वहां के इतिहासकार और समाजशास्त्री लगातार दे रहे हैं। पिछले साल अगस्त में राष्ट्रपति जो बाइडेन शिक्षा शास्त्रियों के एक दल से मिले थे। ह्वाइट हाउस में दो घंटे तक चली इस चर्चा के बीच इन विद्वानों ने आगाह किया कि अमेरिकी लोकतंत्र बिखर रहा है। उन्होंने कहा कि अमेरिका में इस समय स्थितियां कुछ वैसी हैं, जैसी गृह युद्ध (1861-65) से पहले अमेरिका में और नाजीवाद के उभार के पहले जर्मनी में थीं। 

दरअसल, फिलीपीन्स के जाने में समाजशास्त्री और लेखक वाल्देन बेलो ने तो 2021 में लिखे एक लेख में स्पष्ट कहा था कि अमेरिका वाइमर युग में प्रवेश कर चुका है। वाइमर युग से तात्पर्य जर्मनी में नाजीवाद के उदय से ठीक पहले के उस काल से है, जिसमें गहराते आर्थिक संकट और खास कर मुद्रास्फीति की बेहद ऊंची दर ने वैसी सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता पैदा की, जिसमें हिटलर का उदय संभव हुआ था। 

अमेरिका में साफ तौर पर यह स्थिति उन आर्थिक नीतियों का परिणाम है, जिनसे समाज में टॉप एक प्रतिशत के हाथ में धन का भारी संकेद्रण हुआ है, जबकि मध्य वर्ग की आर्थिक स्थिति गतिरुद्ध है और श्रमिक वर्ग की हालत तेजी से बिगड़ी है। बकौल टर्चिन- “वर्तमान संकट के मूल कारण को समझने की शुरुआत हम इस पर गौर करते हुए कर सकते हैं कि अमेरिकी समाज में अति धनी लोगों की संख्या किस रफ्तार से बढ़ी है।

1983 में एक करोड़ डॉलर से अधिक संपत्ति वाले परिवारों की संख्या 66 हजार थी। यह संख्या अपने आप में काफी महसूस हो सकती है, लेकिन 2019 में (मुद्रास्फीति से एडजस्ट करते हुए) इस तादाद में दस गुना की बढ़ोतरी हो गई। इस दौरान 50 लाख डॉलर से अधिक संपत्ति वाले परिवारों की संख्या सात गुना और दस लाख डॉलर से अधिक संपत्ति वाले परिवारों की संख्या चार गुना बढ़ी।”

इस बीच दूसरी तरफ क्या हुआ? ध्यान दीजिएः

  • 1970 के दशक के बाद से अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वृद्धि होती रही, लेकिन उस श्रमिक वर्ग के हिस्से में जाने वाले उसके लाभ में गिरावट आती चली गई। वास्तविक वेतन तब से जहां का तहां है।
  • इसी का परिणाम है कि अमेरिका वासियों की औसत लंबाई में बढ़ोतरी थम गई, जबकि यूरोप में ऐसा होना जारी रहा। इंसान की लंबाई में बढ़ोतरी को किसी समाज में आर्थिक एवं अन्य प्रगति का सूचक माना जाता है।
  • 2010 तक अमेरिका में अकुशल श्रमिकों की सापेक्ष मजदूरी (जीडीपी में पारिश्रमिक का भागफल) 1950 की तुलना में घट कर आधी रह गई।
  • 40 वर्ष पहले की तुलना में 2016 में उन 64 प्रतिशत अमेरिकियों के वास्तविक वेतन में 40 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी थी, जिनके पास चार साल पढ़ाई की कॉलेज डिग्री है।
  • एक तरफ वास्तविक वेतन में गिरावट आई, दूसरी तरफ मकान की कीमत और पढ़ाई की लागत में भारी बढ़ोतरी हुई। नतीजा यह हुआ कि अगर 1976 से तुलना करें, तो श्रमिकों के औसत वेतन में 2016 तक 40 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी थी।

इन स्थितियों ने समाज में असंतोष और राजनीतिक ध्रुवीकरण पैदा किया है। ना सिर्फ टर्चिन, बल्कि अनेक प्रबुद्ध लोगों ने भी अमेरिकी राजनीति में डॉनल्ड ट्रंप की परिघटना को इसी का परिणाम माना है।

अतीत में ऐसे हालात में अमेरिका का अपना अनुभव क्या रहा है, इसका उल्लेख पीटर टर्चिन ने किया है। उनके मुताबिक अमेरिकी इतिहास में आज के पहले ऐसी हालत दो बार और पैदा हो चुकी है। टर्चिन ने लिखा है- ‘आज व्यवस्था जिस बदहाल (dysfunction) अंदाज में चल रही है, उसके बीच पिछले दोनों मौकों से सबक लिए जा सकते हैं- अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि इस हालत को कैसे ठीक किया जाए- तो इसके लिए भी सबक उस समय की घटनाओं में मौजूद हैं।’

टर्चिन ने लिखा है- ‘अमेरिका पहले भी इस हाल से दो बार गुजर चुका है। पहली बार उसका अंत गृह युद्ध के रूप में हुआ। लेकिन दूसरी बार उसके परिणामस्वरूप देश में ऐसी समृद्धि आई, जिसका आधार व्यापक था।’

जिस पहली स्थिति का जिक्र टर्चिन ने किया है, वह 1860 से ठीक पहले के वर्षों में देखने को मिली थी। तब के उपलब्ध जीवविज्ञान संबंधी आंकड़ों के आधार पर उन्होंने बताया है कि तब आम अमेरिकावासी की जिंदगी की गुणवत्ता में गिरावट आई थी। 1830 से 1900 के बीच अमेरिका वासियों की औसत लंबाई में दो इंच की गिरावट आई, जबकि जीवन प्रत्याशा दस वर्ष घटी थी। जीवन दयनीय होने की इन परिस्थितियों के बीच सामाजिक असंतोष पैदा हुआ, जिसका परिणाम शहरी दंगों के रूप में सामने आया। गृह युद्ध शुरू होने के पहले के पांच वर्षों में अमेरिकी शहरों में कम से कम 38 ऐसे दंगे हुए, जिनमें कम से कम एक व्यक्ति की जान गई।

टर्चिन ने लिखा है- ‘हम वही पैटर्न आज देख रहे हैं। गृह युद्ध के पहले असंतोष आव्रजक विरोधी जनोत्तेजक राजनीति में व्यक्त होने लगा था, जिसका प्रतीक नो-नथिंग पार्टी बनी थी। आज उस जनोत्तेजक राजनीति को डॉनल्ड ट्रंप ने पुनर्जीवित कर दिया है।’

अमेरिका में दूसरी बार ऐसी स्थिति 20वीं सदी के आरंभिक दो दशकों में बनी। 1912 तक यह स्थिति बन चुकी थी कि अमेरिका के सबसे धनी व्यक्ति जॉन जी. रॉकफेलर के पास एक अरब डॉलर की संपत्ति थी, जो 26 लाख श्रमिकों की मजदूरी के बराबर थी। 1929 में न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में ऐतिहासिक गिरावट आई, जिससे महामंदी की शुरुआत हो गई। लेकिन इस बार इसका परिणाम गृह युद्ध या सामाजिक बिखराव के रूप में नहीं हुआ। क्यों?

इसका कारण 1932 में राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डिलेनो रुजवेल्ट की व्यवहारिक बुद्धि थी। रुजवेल्ट ने महामंदी के कारणों को समझा और न्यू डील नाम से मशहूर कानूनों की वह ऐतिहासिक पहल की, जिससे अमेरिकी पूंजीवाद के कथित स्वर्ण युग की शुरुआत हुई। इन कानूनों के तहत अर्थव्यवस्था में सरकार ने अपनी बड़ी और निर्णायक भूमिका बनाई, इजारेदारी पर रोक लगाने के कानून बनाए गए; शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन के मामलों में सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य किए गए; और ट्रेड यूनियनों की भूमिका को मान्यता एवं संरक्षण दिया गया।

इन्हीं दो अनुभवों को पीटर टर्चिन ने आज के लिए सबक कहा है। उनका संदेश साफ है कि अमेरिकी नेतृत्व अगर चाहे तो रुजवेल्ट के उदाहरण का अनुकरण कर देश को एक बेहतर युग की तरफ ले जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, तो देश बिखराव की तरफ बढ़ेगा।

स्पष्टतः यह संदेश सिर्फ अमेरिका के लिए नहीं है। यह उन तमाम देशों के लिए है, जिन्होंने अमेरिका के वित्तीय पूंजीवाद के कर्ता-धर्ताओं की बात से प्रभावित होकर या उनके दबाव में आकर उन आर्थिक नीतियों को स्वीकार किया, जिन्होंने अमेरिका की जड़ें खोदी हैं। बे-लगाम पूंजीवाद की इन नीतियों को आधुनिक युग में नव-उदारवाद या वॉशिंगटन सहमति के नाम से जाना गया है। अमेरिका में इन नीतियों का सार रहा रुजवेल्ट के युग में उठाए गए कदमों- यानी न्यू डील कानूनों को पलटना रहा है।

भारत के लिए सबक

भारत में क्या हुआ, संभवतः उसके विस्तार में जाने की जरूरत यहां नहीं है। इस लेख में उसकी गुंजाइश भी नहीं है। मगर समझदार के लिए इशारा काफी होता है की तर्ज पर महत्त्वपूर्ण सबक यहां भी लिए जा सकते हैं। सबक यह है कि अगर वॉशिंगटन सहमति वाली नीतियों से तौबा नहीं किया गया, तो जैसे अमेरिका के डूबने का अंदेशा गहरा रहा है, वह बात उन सभी देशों पर लागू हो सकती है, जो आर्थिक मामलों में उसके नक्शे-कदम पर चल रहे हैं।

भारत ने आजादी के बाद राज्य के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था को नियोजित करने की जो नीति अपनाई थी, 1990 के बाद उन्हें पूरी तरह पलट दिया गया। नतीजा क्या रहा? वही- एक तरफ अरबपतियों की फौज बढ़ती गई है, वहीं आम जन की जिंदगी इतनी दूभर हुई है कि उनके लिए उपलब्ध औसत भोजन की मात्रा भी घटती चली गई है।

तो सवाल यह है कि जो लक्षण पीटर टर्चिन ने अमेरिका के संदर्भ में बताए हैं, वे हाल के वर्षों में भारत में भी उभरते हुए दिखे हैं या नहीं? क्या अमेरिकी ‘लोकतंत्र’ की तरह भारतीय ‘लोकतंत्र’ पर भी आज आशंकाओं  के बादल मंडरा रहे हैं या नहीं? अगर इन प्रश्नों का उत्तर हां है, तो अवश्य ही उन लोगों को चिंता करनी चाहिए, जिन्हें सचमुच भारत से लगाव है। साथ ही उन्हें इस हाल तक देश के पहुंचने के असली कारणों और उसके समाधान पर विचार शुरू करना चाहिए।

टर्चिन ने अपनी समझ से एक समाधान बताया है, जो मुमकिन है कि पर्याप्त ना हो। मगर उन्होंने एक कोशिश की है। अपनी जिस विद्या cliodynamics के आधार पर उन्होंने यह सारा विमर्श किया है, वह भारत, बल्कि तमाम देशों के लिए काम की चीज है। ये देश सिर्फ अपने लिए जोखिम उठाते हुए इस विमर्श को नजरअंदाज कर सकते हैं।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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