Thursday, March 28, 2024

किसान आंदोलन: सरकार की जिद से हालात मैदानी टकराव की ओर बढ़ रहे हैं!

किसानों के भारी विरोध के बावजूद तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को अपनी नाक का सवाल बना चुकी केंद्र सरकार अब बुरी तरह घिर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के हास्यास्पद और बेअसर दखल के बाद सरकार और किसानों के बीच शुक्रवार को एक बार फिर बातचीत की नाटकीय कवायद हुई, जो कि उम्मीदों के मुताबिक पहले की तरह बेनतीजा ही रही। इसी बीच 26 जनवरी को किसानों की ट्रैक्टर परेड रुकवाने के लिए दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली है। दिल्ली पुलिस की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने किसान संगठनों को नोटिस भी जारी किए हैं, लेकिन किसान संगठनों का कहना है कि दिल्ली जाने से कोई किसी को नहीं रोक सकता और हमें दिल्ली जाने के लिए किसी से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। यानी किसानों और सरकार के बीच मैदानी टकराव तय है।

पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली कुछ ऐसी हो गई है कि उसके समक्ष पहुंचने वाले किसी भी मामले में लोग सहज ही अनुमान लगा लेते हैं कि कोर्ट का फैसला या आदेश क्या होगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी उसी अनुमान के अनुरूप ही होते हैं। किसानों की प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड मामले में भी लोगों का अनुमान यही है, बल्कि सरकार तो आश्वस्त भी है कि सुप्रीम कोर्ट किसानों की इस आंदोलनात्मक कार्रवाई के खिलाफ आदेश जारी करेगा। लेकिन किसानों के तेवर बता रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट अगर ऐसा कोई आदेश जारी करेगा तो वे उसे नहीं मानेंगे। वे गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने ट्रैक्टरों के साथ दिल्ली में प्रवेश करेंगे और सरकार उन्हें प्रवेश करने से रोकने की कोशिश करेगी।

दरअसल आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच टकराव तेज होने के आसार आठ जनवरी को आठवें दौर की बातचीत में ही बन गए थे। उस बातचीत में सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि तीनों कानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएंगे और किसानों ने भी कह दिया था कि उन्हें कानून वापसी से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। ऐसी स्थिति में सरकार को संकट से उबारने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दखल भी बेअसर और हास्यास्पद साबित हो रहा है। उसने तीनों कानूनों के अमल पर फिलहाल रोक लगाकर किसानों से बातचीत के लिए चार लोगों की एक कमेटी बनाई है और किसान संगठनों से कहा कि वे अपना पक्ष इस कमेटी के सामने रखें। लेकिन किसानों ने सुप्रीम कोर्ट की इस कवायद को जरा भी तवज्जो नहीं दी है।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट की कवायद पूरी तरह विरोधाभासों से भरी है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान सरकार पर इस बात को लेकर तो नाराजगी जताई कि उसने कानून बनाने में जल्दबाजी की और सभी संबंधित पक्षों से विचार-विमर्श नहीं किया, लेकिन खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी कमेटी बनाने में जल्दबाजी की और उसमें उन्हीं लोगों को रखा जो पहले से ही घोषित रूप से विवादास्पद कृषि कानूनों के हिमायती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि सुप्रीम कोर्ट को चारों नामों का सुझाव कहां से मिला होगा। हालांकि कमेटी के एक सदस्य किसान नेता भूपिंदर सिंह मान ने कमेटी की घोषणा के अगले दिन ही खुद को कमेटी से अलग रखने और किसान आंदोलन का समर्थन करने का ऐलान कर दिया। कमेटी के एक अन्य सदस्य शेतकरी संगठन के अध्यक्ष अनिल धनवंत हालांकि कमेटी से अलग नहीं हुए हैं, लेकिन उन्होंने भी कह दिया है कि वे किसानों के हितों के खिलाफ कोई बात स्वीकार नहीं करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने भी किसान आंदोलन को लेकर दोहरा रुख अपनाया। एक तरफ वह किसानों से सहानुभूति रखने की बात भी कहती रही और दूसरी ओर उसने किसानों के आंदोलन को बदनाम करने के पहले से जारी सिलसिले को कोर्ट में भी जारी रखा। सरकार के वकील की ओर से खुफिया ब्यूरो (आईबी) के हवाले से आंदोलन में खालिस्तानी तत्वों के प्रवेश करने की बात कही गई। अब केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाली इस खुफिया एजेंसी का सरकार अपने राजनीतिक मकसदों के लिए किस तरह बेजा इस्तेमाल करती है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। जजों की नियुक्तियों के मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट इस एजेंसी की रिपोर्ट को कई बार खारिज कर चुका है। ऐसे में जाहिर है कि सरकार इस आंदोलन को ‘खालिस्तान’ से जोड़कर इसे पटरी से उतारना चाहती है। सरकार का यह दांव बेहद जोखिम भरा है। इसके दूरगामी नतीजे बेहद खतरनाक हो सकते हैं।

वैसे किसानों की ओर से तो पहले ही कह दिया गया था कि वे इस मामले में अदालत की कार्यवाही का हिस्सा नहीं बनेंगे। उनका शुरू से ही कहना रहा है कि यह उनके और सरकार के बीच का मामला है, इसलिए वे इस मसले पर सिर्फ सरकार से ही बात करेंगे। सरकार आठवें दौर की बातचीत में स्पष्ट कर चुकी थी कि वह कानून वापस नहीं लेगी, लेकिन साथ ही उसने किसानों से बातचीत का सिलसिला जारी रखने का इरादा भी जताया था। किसान संगठन भी आगे बातचीत जारी रखने पर सहमत थे, ताकि उन पर यह तोहमत न लगे कि वे बातचीत से भाग रहे हैं। इसीलिए तय हुआ था कि बातचीत का अगला दौर 15 जनवरी को होगा।

बहरहाल बातचीत का नौवां दौर भी उम्मीद के मुताबिक बेनतीजा रहा। अब दसवें दौर की बातचीत 19 जनवरी को होगी, जिसका भी बेनतीजा रहना तय है। इस सबके बीच, आंदोलन में शामिल तमाम किसान संगठनों ने 26 जनवरी को प्रस्तावित अपनी ट्रैक्टर परेड की तैयारियां तेज कर दी हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हर गांव से बड़ी संख्या में ट्रैक्टर-ट्रालियों को दिल्ली लाने के लिए तैयार किया जा रहा है। कुंडली-मानेसर-पलवल एक्सप्रेस वे पर किसान 7 जनवरी को ट्रैक्टर रैली निकाल कर 26 जनवरी की परेड का पूर्वाभ्यास कर चुके हैं। दिल्ली से सटे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में महिलाएं ट्रैक्टर चलाने का अभ्यास कर रही हैं ताकि वे भी 26 जनवरी की परेड में शामिल हो सकें।

पंजाब के किसान संगठनों का कहना है कि वे 20 जनवरी से ही ट्रैक्टर्स और आम लोगों को दिल्ली के लिए रवाना कर देंगे। पंजाब में गुरुद्वारों से की जा रही अपील में कहा जा रहा है, ”अगर हम अभी नहीं जाते हैं तो हमें यह मौका फिर कभी नहीं मिलेगा। यह हमारे हक़ की लड़ाई है।’’

पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी यही स्थिति है। यहां भी किसान नेताओं की पूरी कोशिश है कि हर गांव-घर से लोगों की इस परेड में भागीदारी हो। दिल्ली के टिकरी बॉर्डर पर चल रहे आंदोलन में हरियाणा के किसानों की बड़ी भागीदारी है।

कुल मिलाकर अब सरकार बुरी तरह घिर गई है। अब उसके सामने दो ही रास्ते हैं। अगर वह तीनों कानून वापस ले लेती तो मामला शांतिपूर्वक निपट जाएगा। अगर वह ऐसा नहीं करती है तो फिर यह तय है कि वह 26 जनवरी को किसानों को दिल्ली में प्रवेश करने से रोकने के लिए ताकत का इस्तेमाल करेगी। सरकार और किसानों का यह टकराव क्या शक्ल लेगा, इसकी सिर्फ कल्पना सिहरन पैदा करती है, क्योंकि सब जानते हैं कि सरकारें इस तरह के विरोध-प्रदर्शनों का सामना किस तरह करती हैं।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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