Friday, April 26, 2024

‘ब्लैक लाइव्स मैटर’: ऐतिहासिक संदर्भ में नस्लवाद और दासता के मायने

(वर्चस्ववाद की बुनियाद के मौलिक तत्वों में से एक है श्रेष्ठतावाद, जो यह दावा करता है कि वही श्रेष्ठ है क्योंकि दुनिया को सभ्य बनाने की जवाबदेही उसकी है। इसके बदले वह विश्व पर अपनी हुकूमत करता है। इसी श्रेष्ठतावाद का एक तत्व नस्लवाद है। जाहिर तौर पर यह भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में भी प्रासंगिक है। दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग से रिटायर्ड प्रोफेसर ईश मिश्र इसका ऐतिहासिक समाज शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं-संपादक) 

बीते 29 मई, 2020 को अमेरिका के मिनेसोटा राज्य के मिनियापोलिस शहर में श्वेत पुलिसकर्मियों द्वारा, हिरासत में, नकली बिल का इस्तेमाल करने के आरोप में एक अश्वेत नागरिक, जॉर्ज फ्लॉयड की बर्बर हत्या के विरुद्ध भड़की नस्लवाद विरोधी आग की लपटें दुनिया भर में फैल गयीं। यह आंदोलन औपनिवेशिक दौर में इंसानों को गुलाम बनाने के चरित्र को ही नहीं बल्कि उनके प्रतीकों को भी तोड़ रहा है तथा साथ ही कोलंबस की विरासत को चुनौती दे रहा है। बोस्टन शहर में कोलंबस की मूर्ति उखाड़कर झील में फेंक दी गयी। इंग्लैंड के ब्रिस्टल शहर में, 17वीं शताब्दी के दास व्यापारी, एडवर्ड कोल्स्टन की मूर्ति को तोड़ कर नदी में डाल दिया गया। ब्रिटेन में रानी विक्टोरिया की मूर्ति को विरूपित कर दिया गया।

कई शहरों के मेयर इस पर विचार-विमर्श कर रहे हैं कि औपनिवेशिक काल के प्रतीकों, मूर्तियों को बने रहने दें कि नहीं। पूरी दुनिया को सभ्य बनाने का दंभ भरने वाली श्वेत श्रेष्ठतावादी दुनिया के लिए यह बहुत बड़ी परिघटना है। अमेरिका के कई शहरों में कोलंबस तथा दासत्व के समर्थकों की मूर्तियां क्षतिग्रस्त कर दी गयीं। उपनिवेशवादियों, दासता के पैरोकारों तथा दास-व्यापारियों की मूर्तियां तोड़ने से इतिहास नहीं बदल जाएगा, लेकिन सभ्यता के बोझ के तर्क से व्याख्यायित इतिहास की पुनर्व्याख्या के जरिए भविष्य के लिए इतिहास से सीख ली जा सकती है। अमेरिका के कई राज्यों और नगरपालिकाओं ने पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के कानूनों पर विचार शुरू कर दिया है। 

अमेरिका और यूरोप में नस्लवादी हिंसा के खिलाफ जब ब्लैकलाइव्समैटर आंदोलन की ज्वाला दहक रही थी, नस्लवादी बर्बरता के विरुद्ध समाज का हर तबका आक्रोशित था उसी दौरान 6 जून, 2020 को भारत में उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में, मंदिर में पूजा करने के विवाद में एक दलित युवक की गांव के सवर्णों द्वारा हत्या कर दी गयी।पिछले 3 सालों में अपराध उन्मूलन के बहाने उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में अनेक हत्याएं हुईं। देश के विभिन्न भागों में सांप्रदायिक धर्मोन्मादी हिंसक भीड़ द्वारा कई अल्पसंख्यक मारे गए। लेकिन यहां प्रतिरोध की कोई लहर नहीं उठी। तुलना की गुंजाइश नहीं है, वह अलग लेख का विषय है। रंगभेद पर आधारित नस्लवादी अन्याय तथा उसके विरुद्ध जनमानस के आंदोलित होने का इतिहास पुराना एवं क्रमिक है, नस्लवाद के विरुद्ध मौजूदा आंदोलन की व्यापकता और सरोकार के फलक को देखते हुए यह नस्लवाद की विचारधारा पर निर्णायक प्रहार लगता है। 

इस संदर्भ में भारत में जातिवादी या सांप्रदायिक भेदभाव और हिंसा की चर्चा का मकसद यह इंगित करना है कि तीनों ही ऐतिहासिक कारणों से निर्मित विचारधाराएं हैं और उन्हीं कारणों से उनका अंत भी संभव ही नहीं अवश्यंभावी है। परजीवी (सवर्ण) वर्गों के सामाजिक वर्चस्व के मकसद से निर्मित विचारधारा, वर्णाश्रमवाद (जातिवाद या ब्रह्मणवाद) का इतिहास हजारों साल पुराना है। नस्लवाद के इतिहास की जड़ें तो असमानताओं की विचारधाराओं के पुरोधा, प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू तक जाती हैं, लेकिन आधुनिक संदर्भ में 18वीं शताब्दी में खोजी जा सकती हैं जब दास श्रम अमेरिकी अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार बना। 

गौरतलब है कि अरस्तू दासता को अनिवार्य एवं स्वाभाविक मानता था तथा दानवों (बार्बेरियन्स यानी गैर-यूनानियों) को स्वाभाविक दास। विचारधारा के रूप में सांप्रदायिकता का इतिहास डेढ़ सौ साल से थोड़ा अधिक पुराना है जिसे 1857 की किसान क्रांति से विचलित औपनिवेशिक शासकों ने बांटोऔरराजकरोकीनीति के तहत निर्मित किया और जो आज़ादी के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान में धर्मोन्मादी राजनैतिक लामबंदी की विचारधारा बन गयी।  द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है तथा ये विचारधाराएं अपवाद नहीं हैं। भेदभाव की इन विचारधाराओं- सवर्ण श्रेष्ठतावादी वर्णाश्रमवाद (ब्राह्मणवाद); धर्मोन्मादी, राजनैतिक लामबंदी की विचारधारा सांप्रदायिकता जो प्रकारांतर से ब्राह्मणवाद का ही राजनैतिक संस्करण है तथा अमेरिका और यूरोप में अफ्रीकी मूल के अश्वेतों की दासता के लिए गढ़ी गयी नस्लवाद की विचारधारा- का तुलनात्मक अध्ययन वांछनीय तो है, लेकिन यहां गुंजाइश नहीं है। 

जॉर्ज को पीटती पुलिस।

मौजूदा नस्लवाद विरोधी आंदोलन, ब्लैकलाइव्समैटर (अश्वेतभीइंसानहैं), अमेरिका में 1860 के दशक के गृहयुद्ध के दासता विरोध से शुरू अश्वेत अस्मिता की दावेदारी के आंदोलन की निरंतरता की ताजी कड़ी है। रोजा पार्क नामक अश्वेत नागरिक को एक श्वेत यात्री के लिए सीट न खाली करने के “दुस्साहस” के चलते जबरन बस से उतारने की परिघटना के विरुद्ध शुरू हुआ 1950-60 के दशकों का नागरिक अधिकार आंदोलन इसका एक अहम पड़ाव था। कोलंबस की पंच शताब्दी वर्ष, 1992 में अश्वेत नागरिक रोडनी किंग को प्रताड़ित करने वाले पुलिसकर्मियों को न्यायालय द्वारा दोषमुक्त घोषित करने के विरोध में उपजे विरोध प्रदर्शन एवं 2012 में अश्वेत नाबालिग ट्रेवन मार्टिन की हत्या के जिम्मेदार पुलिसकर्मी जॉर्ज जिमरमैन की 2013 की रिहाई के विरुद्ध असंतोष की अभिव्यक्ति भी इस निरंतरता की प्रमुख कड़ियां हैं। दर असल ब्लैक लाइव्समैटरके हैशटैगसे फर्ग्यूसन और न्यूयॉर्क में शुरू हुआ और 2014 तक यह सोशल मीडिया में राष्ट्र-व्यापी आंदोलन का रूप ले लिया। 

दरअसल, नस्लवाद कोई जीव वैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही “सत्यमेव जयते” की तरह कोई शाश्वत विचार है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चला रहा है। नस्लवाद विचार नहीं, बल्कि सांप्रदायिकता, ब्राह्मणवाद (जातिवाद) या मर्दवाद की ही तरह एक विचारधारा है जो नित्य-प्रति के व्यवहार और विमर्श में निर्मित-पुनर्निर्मित और पोषित होती है। विचारधारा इस अर्थ में मिथ्या चेतना होती है कि यह एक खास ऐतिहासिक संरचना को स्वाभाविक या अंतिम सत्य के रूप में पेश एवं प्रचारित करती है। अमेरिका में नस्लवाद की विचारधारा को कोलंबस की विरासत के रूप में देखा जा सकता है। 

कोलंबस नामक एक स्पेनी व्यापारी सोने-चांदी की लालसा में भारत आना चाहता था लेकिन रास्ता भटक कर अक्तूबर 1492 में अमेरिका पहुंच गया और एक नयी दुनिया की “खोज” कर डाली। इस “खोज” के साथ इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ- औपनिवेशिक शोषण, लूट और नरसंहार का दौर जिसकी निरंतरता आज तक बनी हुई है। “खोज” की इस अवधारणा में कितना मिथ है और कितना यथार्थ इसका पता इस बात से ही चल जाता है कि अन्य लोगों ने कोलंबस से हजारों साल पहले ही इस भूखंड की खोज कर के वहां एक उन्नत सभ्यता का विकास कर लिया था। कोलंबस की “खोज” से जो नयी बातें शुरू हुईं, वे थीं अमेरिका के मूल निवासियों का अभूतपूर्व नरसंहार और ऐज्तक जैसी गौरवशाली सभ्यताओं का विनाश। अफ्रीकी मूल के लोगों को जबरन दास बनाने की प्रक्रिया इसकी अगली कड़ी थी जिसके लिए नस्लवाद की विचारधारा गढ़ी गयी। 

विश्वव्यापी आंदोलन के दबाव में, जॉर्ज फ्लॉयड के हत्यारे पुलिस कर्मी चाविन पर हत्या के जिस दर्जे (दूसरी डिग्री) का मुकदमा दर्ज किया गया है, उसके लिए कम-से-कम 12 साल की जेल की सजा है। लेकिन 1992 में जब अमेरिका और यूरोप में कोलंबस की तथाकथित खोज की पंच शताब्दी का जश्न मनाया जा रहा था, वीडियो टेप के प्रत्यक्ष साक्ष्य के बावजूद, ऱॉडनी किंग नामक अश्वेत अमरीकी नागरिक को निर्ममता से पीटने वाले श्वेत पुलिसकर्मियों को बाइज्जत बरी करके लॉस एंजेल्स के श्वेत न्यायाधीशों ने अमरीकी न्याय प्रणाली के नस्लवादी अन्याय को तो रेखांकित किया ही था, दुनिया को यह भी बता दिया था कि अमरीकी न्यायालयों के फैसले साक्ष्य पर नहीं न्यायाधीशों की श्वेत श्रेष्ठतावादी मान्यताओं पर आधारित होते हैं।  लेकिन जैसा कि जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिसिया हत्या के विरुद्ध उमड़े जन सैलाब से जाहिर है, अब वे दिन गए जब अफ्रीकी मूल के लोगों को गुलाम बनाकर जानवरों की तरह हांका जाता था। नस्ल विरोधी मानवीय चेतना इतनी विकसित हो चुकी है कि जब भी किसी फ्लॉयड या रॉडनी किंग के साथ की गई नस्लवादी बर्बरता  को न्याय की संज्ञा दी जाएगी तो नस्लवाद विरोधी आक्रोश उसे खाक में मिला देगा।

1992 में भी रॉडनी किंग की गुहार न्याय के रखवालों को नहीं सुनाई दी थी और आज की ही तरह उस समय भी संचित नस्ल विरोधी आक्रोश ने उग्र रूप धारण कर कई अमरीकी नगरों को अपनी चपेट में ले लिया था, यद्यपि उसकी व्यापकता और गुरुत्व का पैमाना मौजूदा ब्लैकलाइव्समैटरआंदोलन से काफी कम था। 

मिनियापोलिस से शुरू हुए इस आंदोलन ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है तथा कोलंबस की विरासत को डावांडोल कर दिया है। कोलंबस की तथाकथित खोज के बाद अजटक और इंका जैसी उच्चकोटि की सभ्यताओं के विनाश तथा अमेरिका के मूलनिवासियों के बर्बर नरसंहार की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। 1990 के आस पास छपी डी ब्राउन की पुस्तक बरी माई हॉर्ट एट वुंडेड नी मूलनिवासियों की नैतिकता, बहादुरी तथा यूरोपियों की अमानवीय बर्बरता के बारे में आंखें खोलने वाली है। 

यूरो-श्वेत श्रेष्ठतावादी अमेरिका में अपराधों के लिए अश्वेतों में “नस्ली तौर पर मौजूद अपराध प्रवृत्ति” को ही जिम्मेदार मानते हैं। पिछले तीन दशकों में नस्लवाद विरोधी चेतना का स्तर इतना बढ़ा है कि आंदोलन के बारे में प्रतिकूल टिप्पणी करने वाले प्रकाशनों के कई संपादकों ने इस्तीफा दे दिया। 1992 में डेली टेलीग्राफ के एंड्रयू सुलिवन ने नस्ल विरोधी प्रदर्शनों के दुष्परिणामों पर आंसू बहाते हुए रॉडनी किंग की बेरहमी से पिटाई को परोक्ष रूप से जायज ठहराया था। अपनी नस्लवादी सोच को जाहिर करते हुए उन्होंने लिखा था कि लॉस एंजेल्स की अदालत के फैसले को इस वृहत्त्तर संदर्भ में रखकर देखना चाहिए कि “ज्यादा अपराध कौन करता है” और आंकड़ों के हेर-फेर से साबित करने की कोशिश की थी कि अफ्रीकी मूल के लोग “स्वभावतः” अपराधी होते हैं। 

जनवरी 1988 में अमेरिका टेलीविजन नेटवर्क के एक खेल उद्घोषक जिम्मी ‘द ग्रीक’ ने दर्शकों को बताया था कि बास्केट बाल में यदि प्रशिक्षक भी अश्वेत होने लगे तो श्वेतों के लिए टीम में कोई जगह ही नहीं बचेगी। आगे यह भी बताया था कि अश्वेत इस खेल में इसलिए ज्यादा दक्ष होते हैं कि उनकी जांघें चौड़ी होती हैं। इसके लिए उनके पूर्वजों के नियोजित प्रजनन की भूमिका को रेखांकित करते हुए इतिहास की अपनी जीव वैज्ञानिक समझ का परिचय देने के उद्देश्य से उसने कहा, “दास व्यापार के दौरान मालिक लोग भारी भरकम काले गुलामों का सहवास आनुपातिक कदकाठी की काली औरतों के साथ प्रायोजित करते थे जिससे तिजारत के लिए गुलामों की अच्छी पैदावार हो सके”।

“नस्ल” की यह जीव वैज्ञानिक समझ “द ग्रीक” जैसे खेल उद्घोषकों तक ही सीमित होती तो गनीमत थी। शिक्षित होने का दावा करने वाले और उसी की कमाई खाने वाले भी उससे पीछे नहीं हैं। वाशिंगटन पोस्ट के जाने-माने उदारवादी पत्रकार रिचर्ड कोहेन ने ‘द ग्रीक’ की हिमायत करते हुए शरीर विज्ञान के विद्वानों को धता बताकर श्वेत जींस का सिद्धांत प्रतिपादित कर डाला। सुलिवन और कोहेन जैसे पत्रकार पहले रंग-रूप की विशिष्टताओं को नस्ल के रूप में परिभाषित करते हैं और घुमावदार तर्क का इस्तेमाल करते हुए उसी परिभाषा के माध्यम से नस्लीय भिन्नता प्रमाणित करते हैं।

नस्ल की यह जीव वैज्ञानिक समझ खेल उदघोषकों और अधकचरे पत्रकारों तक ही सीमित होती तो भी गनीमत थी। मई 1987 में अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में कुछ अरब यहूदी राष्ट्रीयता के अमरीकी नागरिकों ने भेदभाव से बचने के लिए नागरिक कानून के तहत संरक्षण की याचिका दायर की। जनतंत्र में किसी के विरूद्ध भेदभाव की मनाही के सिद्धांत के आधार पर फैसला करने की बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने अरब यहूदी लोगों की काकेशियन समूह के लोगों से नस्लीय भिन्नता जानना चाहा था। भिन्न होने पर उन्हें नस्लीय भेदभाव से संबंधित नागरिक कानूनों के तहत संरक्षण मिल सकेगा। फिर फैसला किया कि चूंकि उन्नीसवीं शताब्दी तक अरब, यहूदी और कई अन्य राष्ट्रीयता और जातीयता के समूहों को नस्लीय समूह के रूप में माना जाता था इसलिए उन्हें सौ साल बाद भी वैसा ही माना जा सकता है। 

अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के पास शायद ही कोई और विकल्प रहा होगा। वह भी अमेरिका के उसी ऐतिहासिक विकास की विरासत का हिस्सा है जिसकी नींव अनगिनत रेड इंडियनों, अनुबंधित नौकरों और गुलामों के लहू से जोड़ी गई है। ज्यादातर अमरीकियों के दिमाग में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह कुतर्कपूर्ण अवधारणा घर कर गई है कि अफ्रीकी मूल या रूप-रंग के लोग अलग किस्म के जीव होते हैं।  जिनके हर काम, बात या विचार से नस्ल की बू आती है। श्वेत बौध्दिकों को यूरो-अमरीकी शब्द अटपटा लगता है लेकिन अफ्रीकी-अमरीकी सहज। जिस तरह हमारे देश की कई धर्मनिरपेक्ष शिक्षण संस्थाओं के आवेदन पत्रों पर धर्म और जाति के कॉलम होते हैं उसी तरह अमरीकी शिक्षण संस्थाओं के आवेदन पत्रों पर नस्ल का कॉलम होता है।

इसीलिए अमेरिका में एक तरफ सुंदरी प्रतियोगिता होती है तो दूसरी तरफ “अश्वेत-सुंदरी-प्रतियोगिता”, कुछ कवि होते हैं और कुछ “अश्वेत” कवि। जान अपडाइक लेखक हैं और टॉनी मारीसन अश्वेत लेखक बुश राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे और ओबामा अश्वेत उम्मीदवार। लेकिन 1950 के दशक के बाद के 50 सालों में सामाजिक चेतना इतना आगे बढ़ चुकी थी कि ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए। चुनाव परिणामों से साफ हो गया था कि ओबामा को तमाम तबकों से मुद्दों के आधार पर समर्थन मिला था न कि केवल अफ्रीकी अमरीकियों का।

अमेरिका में हिंसा का दृश्य।

उपनिवेश विरोधी क्रांति के बाद निर्मित संविधान जैसे दस्तावेज में “श्वेत”, “अश्वेत” जैसे शब्दों की अनुपस्थिति पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। संविधान में स्वतंत्र व्यक्तियों और अन्य व्यक्ति (दास के लिए सम्मानजनक संबोधन) का वर्णन है। 1789 में बने संविधान ने स्वामियों को दासों की संख्या के तीन-पांचवें अनुपात में दास-स्वामित्व के एवज में प्रतिनिधित्व का अधिकार प्रदान किया और उसी अनुपात में प्रत्यक्ष करों की जिम्मेदारी। अमेरिका के संविधान निर्माताओं की विडंबना यह थी कि उनके एक हाथ में स्वतंत्रता की मूर्ति थी और दूसरे में दास व्यापार के मुनाफे की थैली। 1776 में उत्तरी अमेरिका के कुछ उपनिवेश आजाद हुए थे, पर वहां के गुलाम नहीं। गृहयुध्द के दौर में दास प्रथा के विरोधी और समर्थक दोनों ही इसके लिए कोलंबस की विरासत को नहीं बल्कि अफ्रीकी मूल के लोगों की गुलामी को स्वाभाविक तथा नस्लवाद को स्वयं सिध्दि मानते थे। 

कई अमरीकी इतिहासकार अमेरिका में दास प्रथा की व्याख्या नस्ल संबंधों की प्रणाली के रूप में करते हैं जैसे इसका प्रमुख उद्देश्य तंबाकू, चावल, चाय, कपास, चीनी आदि का उत्पादन न होकर श्वेत श्रेष्ठतावाद का निर्माण रहा हो। अंग्रेजों सी ही गोरी चमड़ी के बावजूद आयरिश जनता के दमन में भी ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने बर्बरता के उन्हीं तर्कों का इस्तेमाल किया था जो अफ्रीकी, एशियाई और अमरीकी मूल के लोगों के दमन में किया था। प्राचीन  यूनान और रोम में स्वामी और दास के संबंध का निर्धारण रंग रूप के आधार पर नहीं होता था। हिटलर के गैस चैंबरों में घुट-घुट कर मरने वालों में यहूदियों और जिप्सियों के अलावा जर्मन (आर्य) जाति के ही कम्युनिस्ट एवं अन्य राजनैतिक विरोधी भी थे। नस्लवादी दमन रंग रूप की भाषा नहीं समझता वह सिर्फ प्रतिरोध की भाषा समझता है। नस्ल पूंजीवाद की एक विचारधारा है जो एक खास दौर में आर्थिक राजनैतिक उद्देश्यों के ऐतिहासिक कारणों से अस्तित्व में आई। इसीलिए इसका अंत भी संभव है।

17वीं शताब्दी की शुरूआत में जब उत्तरी अमेरिका (जो आगे चलकर संयुक्त राज्य अमेरिका बना) के अंग्रेजी उपनिवेशवादियों को वर्जीनिया में तंबाकू उत्पादन की संभावनाओं का पता चला तो उन्हें मालामाल बनाने वाले तंबाकू अर्थतंत्र की रीढ़ अफ्रीकी गुलाम नहीं, बल्कि भूस्वामियों जैसी ही गोरी चमड़ी वाले इंग्लैंड से लाए गए अनुबंधित नौकर थे। इन्हें खरीदा-बेचा जा सकता था, चुराया जा सकता था, अपहृत किया जा सकता था, जुए में दांव पर लगाया जा सकता था या उपहार में दिया जा सकता था। उनके साथ गुलामों जैसा ही बर्बर व्यवहार किया जाता था। उनकी स्थिति अफ्रीकी गुलामों से इस मायने में बेहतर थी कि उनकी संतानें इस अभिशाप से मुक्त थीं और कुछ भाग्यशाली अनुबंध की अवधि के बाद भी जिंदा बच जाते थे। कुछ लालची भूस्वामी उन्हें स्वतंत्रता और स्वतंत्रता राशि से वंचित करने के लिए अनुबंधों के साथ हेराफेरी करते थे, विषाक्त भोजन देते थे, उन्हें निर्दयता के साथ पीटते थे यहां तक कि जान से मार देते थे। 

अनुबंधित नौकरों को चरम शोषण और अमानवीय बर्बरता से न तो उनकी गोरी चमड़ी बचा सकी थी और न ही ब्रिटिश राष्ट्रीयता। अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने अनुबंधित नौकरों को इसलिए गुलाम नहीं बनाया कि एक यूरोपीय दूसरे यूरोपीय के शोषण में एक हद से आगे नहीं जा सकता। ऐसा इसलिए हुआ कि अनुबंधित नौकर भी सशस्त्र थे और संख्या में भी अधिक थे। उन्हें गुलाम बनाने की कार्रवाई में विद्रोह की संभावना निहित थी। इससे उपनिवेशवादी खेमे में दरार का फायदा उठाकर बदले की ताक में बैठे अमरीकी मूलनिवासियों के आक्रमण का भी खतरा था। इसके अलावा इसकी खबर फैलने के बाद इंग्लैंड से और नौकरों की आमद बंद होने का भी खतरा था। दमन को प्रतिरोध से ही रोका जा सकता है। ब्रिटिश निम्न वर्गों की आजादी अभिजात अंग्रेजों की कृपा का परिणाम नहीं थी। इसका एक-एक टुकडा सदियों के संघर्षों से हासिल किया गया था। दास प्रथा का अंत भी मालिकों के हृदय परिर्वतन या उनकी जनतांत्रिक चेतना के चलते नहीं हुआ। गुलामों ने आजादी का एक-एक टुकडा लड़कर हासिल किया। पिछले संघर्षों से हासिल आजादी को बचाने और बढ़ाने के लिए अगला संघर्ष करना पड़ा। अमेरिका का मौजूदा नस्ल विरोधी आंदोलन पिछले संघर्षों की अगली कड़ी है। 

मार्क्स ने कहा है, “अर्थ ही मूल है”। अमेरिका में औपनिवेशिक अर्थतंत्र की ऐतिहासिक जरूरतों के चलते दास प्रथा का जन्म पहले हुआ उसकी विचारधारा के रूप में नस्लवाद का निर्माण बाद में। 

श्रम और जीवन की परिस्थितियों के बारे में प्रतिकूल प्रचार से आजीविका की तलाश में इंग्लैंड से आने वाले अनुबंधित नौकरों की संख्या घटने लगी तो उत्पादन बरकरार रखने के लिए वेस्टइंडीज और अफ्रीका से जबरन ले आए जाने वाले अफ्रीकी और ऐफ्रो-वेस्टइंडियन लोगों की संख्या में वृध्दि स्वाभाविक थी। यह स्थिति स्वामियों के लिए और मायने में फायदेमंद थी कि अंग्रेज निम्न वर्ग ऐतिहासिक विकास में अपनी शिरकत के दौरान वार्तालापों और संघर्षों के जरिए स्वामियों के साथ संबंध निर्धारण में कई सुविधाएं अर्जित कर चुका था। जबकि स्वजनों से दूर अफ्रीकी मूल के लोगों को संघर्ष की शुरूआत शुरू से करनी थी। इसलिए इन लोगों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ना आसान था। 

1670 के दशक में स्वतंत्र, भूमिहीन, असंतुष्ट और सशस्त्र श्वेत युवकों की फौज वर्जीनिया के शासकों के सामने चुनौती बन गई थी। और 1676 में इन युवकों ने नौकरों और गुलामों के साथ मिलकर विद्रोह का बिगुल बजा दिया। शक्ति और सत्ता की व्यवस्था को सशक्त झटका देने की अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा किए बिना ही विद्रोह की लौ बुझ गई लेकिन इसने शक्तिशाली अमीरों के मन में श्वेत-निम्न वर्गों के प्रति संदेह की भावना भर दी थी। यूरोपीय मूल के लोगों को नौकर रखना खतरनाक समझा जाने लगा। 

उसके बाद औपनिवेशिक अर्थतंत्र के बदले समीकरणों के तहत अफ्रीकी मूल के दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी और दास प्रथा को संस्थागत ढांचा प्रदान करने की जरूरत महसूस की जाने लगी व उसका औचित्य ठहराने के लिए विचारधारा के रूप में नस्लवाद की। आधुनिक नस्लवाद की जड़ें तो कोलंबस की “खोज” तक जाती हैं लेकिन रंग – रूप के आधार पर इसका विधिवत विकास शुरू हुआ दास प्रथा के संस्थागत बन जाने के बाद। रंग के फर्क को श्रेष्ठता और हीनता की शब्दावली में प्रस्तुत करने वाली विचारधारा के रूप में नस्लवाद का इतिहास अमरीकी संविधान के इतिहास का समकालीन है। उपनिवेशोत्त्तर अमरीकी समाज और राजनीति में अफ्रीकी मूल के लोगों को शामिल तो कर लिया गया, लेकिन बिना किसी आजादी या अधिकार के। कहा जाता है जिन लोगों को सहजता से स्वभावतः हीन मान लिया जाए, उनका दमन आसान होता है। 

19वीं शताब्दी में जब कपास और कपड़ा उत्पादन समृद्धि का साधन बना, अफ्रीकी गुलाम तब भी उसी तरह अर्थ तंत्र की रीढ़ थे जिस तरह उपनिवेशवादी दौर में। इससे ऐसी स्थितियां बनीं कि स्वतंत्र नागरिक (श्वेत-अमेरिकी) एक दूसरे के प्रत्यक्ष शोषण के बिना भी काम चला सकते थे। वर्ग शोषण को नस्ल शोषण का वैचारिक लबादा पहना दिया गया। इस तरह दास प्रथा का वर्णन नस्ल संबंधों के अर्थों में किया जाने लगा और इसकी जिम्मेदारी डाल दी गई अफ्रीकी मूल के लोगों की स्वाभाविक अयोग्यता पर। नस्लवाद की विचारधारा स्वतंत्रता और प्राकृतिक अधिकारों के क्रांतिकारी सिद्धांतों पर आधारित गणतंत्र में दास प्रथा की व्याख्या का माध्यम बन गई। यह विचारधारा कुछ लोगों को उन अधिकारों से वंचित रखने का औचित्य साबित करने के लिए गढ़ी गई जो औरों के लिए नैसर्गिक अधिकार थे। 

यूरो-अमरीकियों ने स्वतंत्रता और दासता के अंतर्विरोधों के समाधान में नस्लवाद की विचारधारा का अन्वेषण किया तो अफ्रीकी-अमरीकियों ने इस अंतर्विरोध के निदान के लिए दास प्रथा के अंत का नारा बुलंद किया कि स्वतंत्रता उनका भी जन्मसिद्ध अधिकार है। दास प्रथा तो समाप्त हो गई लेकिन विचारधारा के रूप में नस्ल आज भी जीवित है, जिसका ज्वलंत उदाहरण जॉर्ज फ्लॉयड की नस्लवादी हत्या है। लेकिन आज नस्लवाद-विरोधी चेतना के अभियान का रथ भी काफी आगे निकल चुका है, जिसका ज्वलंत उदाहरण, कोलंबस की विरासत को चुनौती देता यह विश्वव्यापी आंदोलन है।

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles