“क्योंकि दिल्ली का माहौल ख़राब है। हमारे लोगों के साथ ट्रैजेडी हुई है। हमारा ज़मीर ज़िन्दा है। हम अपने बहुजन समाज के लोगों से प्यार करते हैं। इसलिए बड़ी रैली ना करके एक प्रेस काॅन्फ्रेंस में पार्टी की घोषणा करेंगे।” दिल्ली में मुसलमानों के एकतरफ़ा कत्लेआम से दुखी भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने समर्थकों तक ये संदेश पहुंचाया है।
15 मार्च कांशीराम का जन्मदिवस है। इसी दिन भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद रावण अपनी पार्टी की घोषणा करने जा रहे हैं। पार्टी का नाम आजाद समाज पार्टी होगा। पार्टी बनाने के बाद होने वाले हमलों से पहले ही आगाह करते हुए चंद्रशेखर कहते हैं – ‘‘15 मार्च के बाद बहुत आरोप लगने वाले हैं। पहले से तैयार रहें। हम बोलेंगे नहीं, काम से अपनी पहचान बनाएंगे। आप किसी की बुराई न करें, अपशब्द न कहें।“ ये बात बार-बार चंद्रशेखर लोगों को समझा रहे हैं।
हमले होने लाज़मी हैं। गोदी मीडिया रोज़ बताता है कि मोदी का विकल्प कोई नहीं। और मोदी-शाह की जोड़ी ने देश की संस्थाओं को अपनी ब्लैक मेलिंग मशीन में बदल दिया है। नतीजा हर तरफ सन्नाटा। कम्युनिस्ट इस धर-पकड़ से बाहर हैं। पर गोदी मीडिया और मोदी-शाह गिरोह ने मिलकर उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग, शहरी नक्सल, माओवादी, राष्ट्रद्रोही जैसे लेबल चिपका कर जनता के सामने उनके सबसे बड़े शत्रु बना कर खड़ा कर दिया गया है। और कम्युनिस्ट ये टैग हटाने में नाकाम। ख़ुद कम्युनिस्ट चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी सेना से उम्मीद लगाए नज़र आ रहे हैं। तो ऐसे में मौजूदा सत्ता किसी विकल्प को कैसे बर्दाश्त कर सकती है।
इधर भीम आर्मी के अपने घर में भी उसका विरोध होगा ही। बहुजन समाजवादी पार्टी (बीएसपी) जिसे खुद कांशीराम अस्तित्व में लाए थे उसके बरक्स अब एक और पार्टी खड़ी होने जा रही है। हालांकि चंद्रशेखर ने पार्टी की घोषणा करने से पहले बीएसपी का सदस्य बनने की अपील की थी। जिसे उन्होंने ट्वीटर के ज़रिये देश के सामने भी रखा था। पर उनकी इस पहल पर बीएसपी “सुप्रीमो” मायावती की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला। चंद्रशेखर कह रहे हैं कि पार्टी बनाना उनकी मजबूरी है। वो कहते हैं –
“हमें अपने लोगों के लिए लड़ना है। अब हमारे लिए दो ही जगह होंगी या तो सड़क या फिर जेल। हम अब चुप नहीं रह सकते। बाबा साहब ने हमें गुलामी करना नहीं सिखाया है। उन्होंने कहा है अत्याचार करने वाले से सहने वाला बड़ा दोषी होता है। अत्याचार रोज़ बढ़ रहे हैं। हम गुलाम नहीं हैं।”
सोशल मीडिया पर लोग उन्हें सलाह दे रहे हैं कि कांशीराम की बनाई पार्टी बीएसपी में शामिल हो जाएं। नई पार्टी बनाकर अपने समाज को दो हिस्सों में न बांटे। लोग अपने समाज” की बात कर रहे हैं। जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने लोगों की भलाई की दुहाई देकर कांग्रेस से कन्नी काट गए। देखना ये है कि चंद्रशेखर ‘के लिए “अपना समाज” का मतलब क्या है? क्या वो सिर्फ मायावती के लिए चुनौती बनने जा रहे हैं? या 85 प्रतिशत बहुजनों तक अपनी पहुंच बनाएंगे। जिनमें दलित-पिछड़ों की अनेक जातियां, आदिवासी, मुसलमान अन्य अल्पसंख्यक शामिल हैं। क्या चंद्रशेखर खुद को सुप्रीमो नाम की बीमारी से अलग रख पाएंगे? क्या एक और पार्टी के उदय से देश में आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी का अंधियारा दूर होगा?
भीम आर्मी और उसकी पार्टी पर बात करने से पहले ‘महाराज’ ज्योतिरादित्य सिंधिया पर बात करनी ज़रूरी है। क्योंकि ‘अपने लोगों ’ का भला करने का राग अलापने वाली पार्टियां देश में कम नहीं। और किसी भी पार्टी या नेता के ‘अपने लोगों के दायरे को समझना ज़रूरी है।
जैसा कि सब जानते हैं ग्वालियर के तथाकथित ‘शाही ’ महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में प्रवेश कर गए हैं। बकौल सिंधिया बीजेपी में शामिल होकर वो ‘अपने लोग ’ जैसा कि सोनिया गांधी को दिए इस्तीफे में वो लिखते हैं उनका भला कर सकेंगे।
सवाल ये है कि राजा की सरपरस्ती पाने वाले ये अपने लोग हैं कौन? ज़ाहिर है कश्मीर के लोग तो नहीं। इनके खि़लाफ़ तो राजा जी 370 पर बीजेपी का समर्थन कर ही चुके हैं। देश के ग़रीब, दलित, महिलाएँ आदिवासी, मुसलमान भी नहीं क्योंकि इन सबके खि़लाफ़ भी वो सीएए को समर्थन दे चुके हैं। जिन्हें अब भी लगता है कि सीएए सिर्फ़ मुसलमानों के खि़लाफ़ है तो मेहरबानी करके वो असम में झांक लें। और डिटेंशन सेंटरों के नाम पर तैयार की गई इन क़त्लगाहों तक अगर न पहुंचने दिया जाए तो दिल्ली के शाहीन बाग़ जाकर वहां की शाही ’ औरतों-बच्चियों से इसका सही पाठ पढ़ लें।
हिंदू-मुसलमान, सिख-ईसाई हर धर्म-जात की शिक्षिका आपको यहां मिल जाएंगी। जिनके ‘अपनों ’ में पूरा मुल्क़ बगै़र किसी भेदभाव के शामिल हो गया है। इसी सोच, अंदाज़ और आगाज़ को शाही कहा जाना चाहिये। न कि ज़मीन-जायदाद, व्यक्तिगत मजे़ के लिए किसी के भी आगे अपनी रीढ़ का गोला बना कर पेश कर देने वालों को।
ख़ैर….हम बात कर रहे थे तथाकथित शाही ज्योतिरादितय सिंधिया की। इनके अपने कौन हैं? और क्या विचारधारा है इनकी जिसे इधर से उधर टप्पे खाने के लिए एक लम्हा काफ़ी है। माफ़ कीजिये सिंधिया का कहना है कि उन्होंने ऐसा करने के लिए एक साल का वक़्त लिया है। सोच भले ही एक लम्हे में लिया हो।
सिंधिया जिस कांग्रेस पार्टी का हिस्सा थे वो अपनी विचारधारा के तौर पर गांधी को सामने रखती है। गांधीवाद ही कांग्रेस की विचारधारा है। और अब महाराज जिस बीजेपी के लाल बन गए हैं वो बीजेपी अपनी विचारधारा इन दिनों संसद में भी चीख़-चीख़ कर बता रही है – गोडसे…गोडसे।
गांधी दुनिया भर में अपने हठी अहिंसात्मक विचारों के लिए जाने जाते हैं। जो विचार गांधी के लिए ठोस थे बाक़़ी के लिए खोखले क्यों हो जाते हैं? उनके वही विचार जब कोई और दिमाग़-जिस्म अपनाता है तो वो गांधी को धकेल कर गोडसे को सीने से लगाने में क्यों नहीं शरमाता? समस्या आखि़र है कहां? गांधी के अंहिसा के सिद्धांत में? या अंहिसा को बनाए रखने के लिए किए गए उनके फैसलों में? क्या गांधी की अहिंसा का ताना-बाना जाति-धर्म, लिंग की श्रेष्ठता को बरकरार रखते हुए बुना गया आदर्शवाद का एक खूबसूरत लिबास भर है? जिसे कोई भी अपनी सहूलियत के हिसाब से जब चाहे पहन ले, उतार दे।
गांधी को अपनी विचारधारा का स्तंभ मानने वाली कांग्रेस ऐसा करती रही है। उनके अपने खेमे में 70 के दशक का आपातकाल और 1984 दिल्ली के सिख क़त्लेआम का ज़िक्र काफ़ी है। कौन सा ऐसा कानून और करतूत है (बाबरी मस्जिद मुद्दे को जन्म देने सहित) जो कांग्रेस सरकार ने नहीं किए-बनाए। जिसका भरपूर इस्तेमाल करते हुए मोदी-बीजेपी सरकार आदिवासियों-किसानों का दमन कर रही है। और विरोधी आवाजों को कुचल रही है।
संविधान को जनता विरोधी बनाने के साथ-साथ 2002 के गुजरात क़त्लेआम के कर्ता-धर्ताओं को बाइज़्ज़त फलने-फूलने देना। आज देश आर्थिक-सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक हर मोर्चे पर ग़ुलामी के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है। अभी के जो हालात हैं ऐसा किसी भी दिन हो सकता है कि आप सोकर उठें तो पहली ख़बर आपको जो मिले वो ये हो कि आज से आप फ़ला मुल्क़ के ग़ुलाम हैं। आपकी सेनाओं के मोर्चा संभालने की नौबत ही नहीं आई। आपके अज़ीज़ हुक़्मरानों ने बस विदेशी कर्ज़ों की पोटली हर नागरिक के सिर पर रख दी है। और ये भी कहा जाएगा कि हमारा शुक्रिया अदा कीजिये, बिना ख़ून बहाए आर्थिक ग़ुलामी आपको तोहफ़े में दी है। पर आप एक पल के लिए भी इस सच्चाई को अपने ज़हन पर दबाव मत बनाने दीजिये।
आप सोचिये कोई बात नहीं जो हम अमरीका के ग़ुलाम हो जाएंगे। वो भी गोरे हैं। अंग्रेज़ी में खटर-पटर करने वाले। ऐसी ग़ुलामी से हमें एतराज़ नहीं। तभी तो हम अंग्रेज़ों को दुश्मन नहीं मानते। भले ही वो हमें कुत्ता बनाकर सारा भारत लूट कर ले गए। पर मुसलमानों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्होंने इस देश को अपना समझा तो क्या? इसकी आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों से लड़कर जाने गंवाई तो क्या? ये हमें पसंद नहीं है। अंग्रेज़ों ने और संघियों ने हमें बताया है ये हमारे दुश्मन हैं तो बस हैं। बहस का सवाल ही नहीं।
जिन्हें भगत सिंह अपने घर में नहीं चाहिये वो ग़ुलामी के इस बोझ को उठाकर घूमें। और जिनके दिल में भगत सिंह बनने का मलाल है उन्हें मुबारक़! जल्द ही मेरा रंग दे बसंती चोला गाने का मौक़ा मिलेगा।
तो…अंबेडकर के भारत को गांधी का नाम जपते-जपते गोडसे के हवाले कर दिया गया है। मैं फिर यही कहना चाहूंगी कि पूना पैक्ट से यही गति होनी थी देश की। अब ऐसे हालातों में बनने वाली भीम आर्मी पार्टी की बात करते हैं। इस पार्टी के झोले में आखिर ऐसे कौन से औज़ार होंगे जो देश को इन हालातों की दलदल से बाहर खींच लाएं, ये वक़्त बताएगा।
कमंडल से आज़ादी के लिए मंडल कमीशन लाया गया था। देश की 85 प्रतिशत आबादी को 15 प्रतिशत ब्राह्मणी पंजे से बाहर निकालने के लिए मंडल ने मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, कांशीराम-मायावती को ताक़त दी और अपनी-अपनी पार्टियां बनाकर ये सब मैदान में कूदे। पर इन पार्टियों में अलग क्या था? जो हाशिये पर फेंके गए लोगों को राहत पहुंचाता। अपने-अपने राज्य में ये सभी सत्ता सुख भोग चुके हैं। क्या उन लोगों को इंसाफ़ मिला जिनके वोट लेकर ये राज करते रहे हैं? इन पार्टियों में व्यक्तिगत-पारिवारिक वर्चस्व की हालत ये है कि यहां कोई सिंधिया, मिश्रा तो जब चाहे शामिल हो सकता है, ऊंचे ओहदे पा सकता है पर चंद्रशेखर आज़ाद के मुँह पर पट बंद कर दिए जाते हैं। इनके लिए अपने ही लोग भय के भूत बन जाते हैं।
महिलाओं को लोक-विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के सवाल पर इन पार्टियों ने ये कहकर विरोध किया कि वो इस बिल का समर्थन तभी करेंगे जब हमारे तबके की महिलाओं को उसमें विशेष आरक्षण दिया जाए। नहीं तो वो इस आरक्षण का लाभ नहीं ले पाएंगी।
ऊपर से देखा जाए तो ये मांग बड़ी कायदे की लगती है। पर अगर ये मांग पूरी कर भी दी जाती तो क्या रामविलास पासवान, उदित राज जैसी गत इनकी नहीं होती? दलित-आदिवासी आरक्षण तो पहले से मौजूद है। सांसद-विधायकी का सुख भोगने वाले कितने दलित-आदिवासी अपने समाज के हक़-अधिकारों के लिए खड़े होने, चूँ तक करने की हिम्मत रखते हैं? उनकी जीत को उन्हीं लोगों का मोहताज बना दिया गया है जो उनके हक़ दबाए बैठे हैं। ऐसे में किसका, कैसा विरोध? ये आरक्षण जो गांधी ने पूना पैक्ट के ज़रिये दिलवाया व्यक्तिगत तरक़्क़ी से आगे नहीं बढ़ सका। वो भी जी हज़ूरी की शर्त पर।
लालू, मुलायाम, मायावती, नीतीश आदि ने पूना पैक्ट की वापसी की बात आज तक नहीं की। पूना पैक्ट जो कि महिला आरक्षण पर भी लागू होना ज़रूरी है। अगर महिलाओं को सचमुच बराबर, शक्ति-सम्मान देने की नियत हो तो।
संविधान सभा में संविधान को रखने वाले बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि इस संविधान को जलाने वाले वो पहले व्यक्ति होंगे। ये संविधान ऐसा है जो लागू करने वाले की नीयत के मुताबिक़ काम करेगा। देवता के हाथ में हो तो वैसे काम करेगा और शैतान के हाथ में होगा तो वैसा।
अंबेडकर को जितना मौक़ा मिला उन्होंने महिलाओं, दलित-आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के हित के लिए संविधान में प्रावधान करने की कोशिश की। पर संविधान निर्माण पर वर्चस्व तंगदिल हिंदूवादियों का रहा। जिसका नतीजा हम आज भुगत रहे हैं। और अंबेडकर के प्रयासों के अलावा बाक़ी सब लगभग वही आज़ाद भारतीयों पर काॅपी-पेस्ट कर थोप दिया गया जो अंग्रेज़ों ने ग़ुलाम भारतीयों के लिए बनाया था।
गांधी का आदर्शवाद व्यक्तिवाद पर आधारित था। वैसा ही संविधान भी मिला भारत को। जिसका बाबा साहब ने हर क़दम पर विरोध किया था। भारत को सही मायने में आज़ादी और यहां रहने वाले हर इंसान को हर क्षेत्र में बराबर नागरिक अधिकार तभी मिलेंगे जब अंबेडकर द्वारा मांगे गए संख्या के आधार पर भागीदारी और उसी तबके तक वोट करने के अधिकार को सीमित किया जाएगा। यानि पीड़ित दलित-अल्पसंख्यक, मुसलमान, आदिवासी, महिलाओं को आरक्षण मिले और सिर्फ़ उन्हीं को अपने बीच से अपना प्रतिनिधि चुनने के वोट का अधिकार मिले।
तो किसी भी पार्टी के लिए ये चुनौती है कि वो वापस गांधी और अंबेडकर के बीच पुणे की यरवदा जेल में हुए ‘‘पूना पैक्ट” पर साइन करने के लिए मजबूर किए गए अंबेडकर को अब आज़ाद करें । 70 सालों में देश आज जहां खड़ा है उससे साबित होता है कि गांधी ग़लत थे। बहुसंख्यक धर्म के अंगूठे के नीचे अल्पसंख्यक धर्म कुचल दिया जाएगा। बड़ी जात छोटी जात को तब तक अपने जूते तले से नहीं निकलने देगी जब तक कि उसे मजबूर न किया जाए।
उसके जन्म के आधार पर श्रेष्ठता के अधिकार राज्य द्वारा शून्य न कर दिए जाएं। गांधी का तर्क कि अंबेडकर द्वारा मांगे गए दो वोट के अधिकार से देश की एकता टूटेगी एक मिथ था। सच ये है कि अगर पूना पैक्ट न हुआ होता तो आज देश में तरक़्क़ी और खुश हाली का बखान सिर्फ़ भाषणों तक सीमित न रहता। सही मायने में सभी जाति-धर्म के लोग ज़्यादा आज़ादी, सम्मान, बराबरी के हक़दार होते। भारत सिर्फ़ संख्या के आधार पर नहीं मूल्यों के आधार पर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होता।
अपने गांव के बोर्ड पर ग्रेट चमार लिखवाकर नीले गमछे, चेहरे पर जंचने वाले धूप के चश्मे और घुमावदार मूछों पर तांव देते हुए सिर और सीना तान कर खड़े चंद्रशेखर की तस्वीर खूब प्रचलित हुई है। एक डाक्यूमेंट्री में चंद्रशेखर कहते हैं कि बाबा साहेब ने कहा था अगर तुम जाति को मिटा न सको तो उस पर गर्व करना शुरू कर दो। उसी सोच से ग्रेट चमार सामने आया। इसी जाति सूचक शब्द को अपनी पहचान बनाती पंजाब की सिंगर गिन्नी माही ‘‘होंदे असले तो वद डेंजर चमार” गाकर सुर्खियों में आ जाती हैं।
मुजफ़्फ़रनगर में ठाकुरों के दलितों के घर-गांव पर कहर और फिर चद्रशेखर आज़ाद को रासुका लगाकर जेल में ठूसने से हमें पता चलता है कि तथाकथित श्रेष्ठ जातियों को ये भी बर्दाश्त नहीं कि उनके द्वारा दी गई जाति पर गर्व करके सिर उठा कर चला जाए। चमार होकर आप डेंजर नहीं हो सकते, ग्रेट नहीं हो सकते। मूंछ नहीं रख सकते, मोटरसाइकिल नहीं चला सकते। भले ही संविधान और आपकी माली हालत आपको ऐसा करने के हक़-सहूलियत देती हो। पूना पैक्ट का हश्र यही होगा ये बाबा साहब जानते थे। और यक़ीनन गांधी भी।
इस देश का तथाकथित दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र (जनसंख्या के आधार पर) सिर्फ़ मोदी जैसे मौत के सौदागरों को अमरीका का वीज़ा दिलवा सकता है। और मोदी को ये अधिकार दे सकता है कि वो भूख से बिलखती जनता की खून पसीने की कमाई से असली क़ीमत से कई गुना ज़्यादा दाम देकर लड़ाकू विमान, सामान, हेलीकाॅप्टर ख़रीद कर दुनिया के मुखियाओं के गले पड़कर झप्पी सेल्फी खींच कर अकड़ दिखाए।
गांधी ने आमरण अनशन करके उस दिन अम्बेडकर से पूना पैक्ट के ज़रिये देश की एकता पर नहीं इन हालातों पर दस्तख़त करवाए थे। जिसे अंबेडकर बखूबी समझ रहे थे। गांधी को इस अपराध से अगर आप बरी करना चाहते हैं तो उनकी समझ-दूरदर्शिता पर आपको सवाल खड़े करने होंगे। या तो गांधी मूर्ख थे या मासूम जो ये सब नहीं समझ पाए उस वक़्त। या बेहद धूर्त। जो श्रेष्ठ जातिवाद और पूंजीवाद का राज ही भारत पर चाहते थे।
भले ही कुछ सालों बाद कोई अंबानी-अडानी-टाटा आदि-आदि हिटलर मोदी और पंडा चोटी भागवत जैसों को कब्ज़े में कर देश का बेड़ा गर्क़ ही क्यों न कर दें। एशिया-विश्व के सबसे धनी जंतुओं की लाइन में शीर्ष पर पहुंचने के लिए शर्त है कि ग़रीब किसानों-आदिवासियों, दलितों, मुसलमानों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं के लहू में डूबे छप-छप करते बूटों के लाल निशान पीछे छोड़ते जाना। और गांधीवाद उन्हें ये मौक़ा देने का ही जैसे दूसरा नाम है।
चंद्रशेखर ने घोषणा की है कि संघ की तर्ज पर भीम आर्मी बनेगी। और पार्टी में भीम आर्मी की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। जैसा भीम आर्मी चाहेगी वैसा ही राजनीतिक दल के लोगों को करना पडे़गा। वो मिशन 78 यानि कांशीराम के बामसेफ को दोबारा ज़िंदा करेंगे।
वो पिछड़े जिन्हें ब्राह्मण धर्म शूद्र (जाट-गुर्जर आदि) श्रेणी में रखता है। पर वो ख़ुद को क्षत्रिय कहते-समझते हैं। जो हिंदू राज और मनुस्मृति विधान में अपनी दुर्दशा समझने में असमर्थ हैं। जिन्हें हिंदू-मुसलमान के नाम पर उकसा कर ब्राह्मण के पक्ष में लठैती करवाना आसान है। हाल ही में दिल्ली में सीएए के समर्थन के नाम पर मुसलमानों का क़त्लेआम हुआ है। जिसमें गुर्जरों की भागीदारी की बात बड़े पैमाने पर की जा रही है। गुर्जरों की संख्या किसी भी राज्य में इतनी नहीं है कि वो राजनीति में निर्णायक भूमिका में आ पाएं। वो ये सवाल करने में भी असमर्थ हैं कि कम संख्या वाला ब्राह्मण आखि़र क्यों और कैसे पूरी तरह से सत्ता-प्रशासन, न्याय व्यवस्था, मीडिया पर कब्ज़ा जमाए रहता है?
सिर्फ़ गुर्जर ही नहीं देश भर में ख़ुद को क्षत्रिय का दर्जा देने वाली पिछड़ी-शूद्र जातियां दरअसल 85 प्रतिशत बहुमत की ताकत को समझने में नाकाम हैं। क्या चंद्रशेखर इन्हें अपने साथ ला पाएंगे?
तथागत बुद्ध, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, पेरियार, बिरसा मुंडा, अंबेडकर, कांशीराम को अपना आर्दश मानने वाले चंद्रशेखर आज़ाद रावण पंजाब के सफर के दौरान अपने इन सभी आदर्शों को फगवाड़ा के मदियापुर में मौजूद अंबेडकर पार्क में एकसाथ देखकर वहां रुक जाते हैं। और लाइव करते हुए सबको ये पार्क दिखाकर देश समाज के लिए अपना जीवन देने वाले इन आदर्शों के बारे में बताते हुए कहते हैं ‘‘हमें चित्रों पर नहीं चरित्रों पर ध्यान देना है।”
नेतृत्व के नाम पर भारत इतना दरिद्र क्या कभी और भी था? लोग तो बहुत हैं पर अब जबकि राजनीति के मैदान में मोदी विकल्प का अकाल बताया जा रहा है देश भर के आदिवासी, अल्पसंख्यक, बहुजन, महिलाएं सब इन नौजवानों को उम्मीद की नज़र से देख रहे हैं। सिर्फ ‘‘अपने समाज” के मसीहा बनने के आदि इस देश में बहुजन को अपना बनाकर चलना नामुमकिन न भी कहें तो मुश्किल तो ज़रूर है। देखना ये है किसका चरित्र इस सफ़र में तपकर इंसान बनता है। और कहां तक पहुंचता है भीम आर्मी पार्टी के परिवर्तन का नीला सलाम।
(वीना जनचौक की दिल्ली हेड हैं।)
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