जस्टिस डिलीवरी सिस्टम की स्थिति बहुत गम्भीर है। बात सिर्फ आलोचना की नहीं है बल्कि न्यायपालिका के शीर्ष पर बैठे विद्वान एवं माननीय न्यायमूर्तियों के लिए गम्भीर चिंता और मनन का विषय है कि क्या कार्यपालिका कोर्ट के निर्णयों का तब तक अनदेखी करती रहती है जब तक कि सम्बन्धित पीठ, खंडपीठ समन्धित आला अधिकारी को कोर्ट में व्यक्तिगत उपस्थिति के लिए नहीं कहती या उनके विरुद्ध अवमानना नोटिस नहीं जारी करती, या सरकारी वकील को कड़ी फटकार नहीं लगाती। आखिर न्यायपालिका को इतने लापरवाह ढंग से कार्यपालिका क्यों ले रही है? क्या इसके लिए न्यायपालिका का सरकार के प्रति अनुकूल रवैया जिम्मेदार है? ये बात जनचौक नहीं कह रहा है बल्कि न्यायपालिका के हालिया आदेश से ऐसी ध्वनि निकल रही है।
मद्रास हाईकोर्ट ने 18 दिसंबर, 2020 को एक मामले में टिप्पणी की है कि यदि सचिव स्तर के अधिकारियों ने ही सरकार के आदेशों का अनुपालन नहीं किया है, तो हम आम नागरिक से सरकार के आदेशों का पालन करने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने 21 दिसम्बर, 2020 को एक प्रकरण में तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि सरकार ऐसे बर्ताव नहीं कर सकती, जैसे समय सीमा कानून उस पर लागू नहीं होता। उच्चतम न्यायालय ने एसएलपी दाखिल करने में 462 दिनों की देरी के लिए अधिकारियों पर जुर्माना लगाया।
उच्चतम न्यायालय ने 12 दिसम्बर, 2020 को सीईआरसी में नियुक्ति नहीं किये जाने के लिए केंद्र को फटकार लगाते हुए तल्ख टिप्पणी की कि कार्यपालिका द्वारा फैसलों का उल्लंघन किये जाने से अराजकता पैदा हो जायेगी।
मद्रास हाईकोर्ट ने शुक्रवार (18 दिसंबर) को कड़ी टिप्पणी करते हुए एक सरकारी आदेश (जीओ) 2010, को लागू करने में प्रतिक्रिया की कमी के लिए राज्य सरकार, तमिलनाडु राज्य में भ्रष्टाचार मुक्त और पारदर्शी प्रशासन सुनिश्चित करने के लिए कहा। जस्टिस एन. किरुबाकरन की अगुआई वाली खंडपीठ ने कहा कि यदि सरकारी सेवक सरकार के आदेशों का पालन नहीं कर रहा है, तो उसी को कदाचार माना जा सकता है या सरकारी सेवक के असहयोग के रूप में उनके खिलाफ उचित विभागीय कार्यवाही शुरू करने का आरोप लगाया जा सकता है।
खंडपीठ ने कहा कि भ्रष्टाचार मुक्त और पारदर्शी प्रशासन सुनिश्चित करने के लिए मद्रास हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश डॉ. न्यायमूर्ति एके राजन की अध्यक्षता में एक प्रशासनिक सुधार समिति का गठन किया गया था। सरकार द्वारा उक्त समिति की कुछ सिफारिशों को भी स्वीकार कर लिया गया है जिसमें हर स्तर पर प्रत्येक सरकारी कर्मचारी पर जवाबदेही तय करने की सिफारिशें भी शामिल हैं। सरकार ने इन सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सभी विभागाध्यक्षों से शक्तियों को सौंपते हुए इस आशय के आवश्यक आदेश जारी करने को कहा था। खंडपीठ ने कहा कि भले ही उक्त सरकारी आदेश वर्ष 2010 में पारित किया गया हो, लेकिन किसी भी विभाग ने उक्त सरकारी आदेश को लागू करने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया है। इस पृष्ठभूमि में, खंडपीठ ने कहा कि जब तक सरकार अधिनियम या नियम के साथ नहीं आती है, यह केवल कागज में होगा प्रभावी कार्यान्वयन के बिना। सुनवाई अभी लम्बित है ।
एक एनी मामले में उच्चतम न्यायालय के जस्टिस एसके कौल, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने 21 दिसम्बर, 2020 को एक प्रकरण में तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि सरकार ऐसे बर्ताव नहीं कर सकती, जैसे समय सीमा कानून उस पर लागू नहीं होता। उच्चतम न्यायालय ने एसएलपी दाखिल करने में 462 दिनों की देरी के लिए अधिकारियों पर जुर्माना लगाया। एक बार फिर से मात्र औपचारिकता निभाने के लिए सरकार द्वारा देरी से अपील दाखिल करने पर अनिच्छा जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एसएलपी दाखिल करने में 462 दिनों की देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों से वसूले जाने के लिए 15000 रुपये का जुर्माना लगाया। पीठ ने कहा कि देरी के लिए जिम्मेदार अधिकारियों से ये जुर्माना राशि वसूल की जानी चाहिए और राशि को एक महीने के भीतर सुप्रीम कोर्ट कर्मचारी कल्याण कोष में जमा की जानी चाहिए।
पीठ ने कहा कि यह एक और मामला है जिसे हमने एक “औपचारिक मामलों” के रूप में वर्गीकृत किया है जो इस अदालत के समक्ष दायर किया गया था कि यह केवल औपचारिकता को पूरा करने और उन अधिकारियों की खाल को बचाने के लिए किया गया जो मुकदमे का बचाव करने में लापरवाही बरत रहे हैं!
एक अन्य मामले में उच्चतम न्यायालय के जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और जस्टिस हृषिकेश रॉय विनियामक आयोग (सीईआरसी) में विधि सदस्य की नियुक्ति न किये जाने को लेकर केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि हमने इस मामले में काफी संयम दिखाया है। हालांकि, ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे संयम का गलत अर्थ लगाया गया है। कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा कि सरकार उपभोक्ताओं की मदद करने या आयोग को व्यवहारिक बनाने के प्रति रुचि दिखाती नहीं प्रतीत होती है। मामले के निपटारे के लिए नियुक्तियां नहीं किये जाने के कारण अन्य ट्रिब्यूनल्स और आयोगों के कामकाज को देखकर यह कोई असामान्य परिदृश्य नजर नहीं आता।
उच्चतम न्यायालय ने 2018 में व्यवस्था दी थी कि आयोग में कानून के क्षेत्र से एक सदस्य होना अनिवार्य होगा, जो या तो न्यायिक अधिकारी के पद पर रहा हो या कानूनी पेशे में व्यापक अनुभव रखने वाला व्यक्ति हो, जिसके पास हाईकोर्ट के न्यायाधीश अथवा जिला जज नियुक्त किये जाने की पर्याप्त योग्यता हो। आयोग में विधि सदस्य नियुक्त न किये जाने के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की गयी थी। कोर्ट ने प्रथम दृष्ट्या जान बूझकर आदेश की अवज्ञा किये जाने के मद्देनजर इससे पहले केंद्रीय विद्युत विनियामक आयोग के दो सदस्यों को तब तक छुट्टी पर जाने का निेर्देश दिया था, जब तक आयोग में एक विधि सदस्य की नियुक्ति नहीं हो जाती।
पीठ ने कहा कि जिस तरीके से सरकार न्यायालय के फैसले के खिलाफ कार्य कर रही है, उसके प्रति हमें नाराजगी व्यक्त करनी होगी। कानून पारित करना विधायिका का काम है और कानून के प्रावधानों को लागू करना कार्यपालिका का। न्यायपालिका के पास कानून की व्याख्या करने का काम है। संबंधित कानून की व्याख्या हमारे फैसलों द्वारा की गयी थी। कार्यपालिका से न तो इस कोर्ट के फैसले के उल्लंघन की अपेक्षा की जा सकती है, न ही इसकी अनुमति दी जा सकती है। यह अराजकता को निमंत्रण देगा। लोकतंत्र के इन तीनों स्तंभों के परस्पर सम्मान के लिए जरूरी है कि वे एक-दूसरे की भूमिका और कार्यप्रणाली का सम्मान करें।
पीठ ने हालांकि अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल का आग्रह मानकर मामले की सुनवाई 20 जनवरी 2021 तक के लिए स्थगित कर दी।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)