पहचान की राजनीति को तोड़ते हुए नये फलक पर जनता के बीच एकता बना रहा है किसान आंदोलन

विगत 30 और 35 वर्षों का भारतीय लोकतंत्रिक इतिहास मूलत, पहचान की राजनीति और प्रतीकात्मकता के दायरे में ही घूमता रहा है। ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ के कर्कश शोर के बीच, इसके समानांतर पिछड़े दलित होने की वर्णवादी व्यवस्था के चलते अपनी पहचान को बुलंद रखो जैसे नारे भारतीय राजनीति के आकाश में गूंजते रहे। राम मंदिर के इर्द-गिर्द बुनी गई ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पूरी राजनीति हिंदू पहचान को बुलंद करने और राजनीति को धर्म के इर्द-गिर्द परिभाषित करने पर केंद्रित की गई। हिंदू बहुमत होने का सवाल केंद्र में रखकर समग्र भारतीय समाज को हिंदू सांस्कृतिक पहचान की इकाई के अंदर समाहित करने का लंबा और दीर्घकालीन अभियान चलाया गया।

स्वाभाविक है कि लोकतांत्रिक परिवेश के मध्य विकसित हो रहा भारतीय समाज सामंती उत्पादन प्रणाली के जकड़न के ढीला होने और राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रगति के क्रम में पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक समाज में भी मध्यवर्गीय बौद्धिक और आर्थिक रूप से सशक्त सामाजिक समूहों का विकास हुआ। अपने सामाजिक आर्थिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए इन मध्यवर्गीय समूहों ने भी पहचान की ही राजनीति के सरल और सुलभ मार्ग को चुना। राजनीति में प्रतीकात्मकता ने लोकतांत्रिक परिवेश को घेर लिया। सारे आयोजन कार्यक्रम विचार निर्माण की प्रक्रिया के दौरान अतीत के मिथकीय नायकों की खोज और गौरवशाली अतीत की काल्पनिक स्वर्णिम परिकल्पना ने सभी तरह के समाजों में आधे-अधूरे ऐतिहासिक संदर्भों के साथ मुख्य भूमिका ग्रहण कर ली। समाज के राजनीतिक सामाजिक समीकरण इस पहचान की मूल राजनीतिक परियोजना के इर्द-गिर्द घूमने लगे। हम देखते हैं 25, 30 वर्षों में राजनीतिक सत्ता में भागीदारी अपने-अपने सामाजिक समूहों के सुदृणीकरण और हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहचान के बीच में ही टकराती रही, घूमती रही और आगे पीछे होती रही।

पाकिस्तान और इस्लाम विरोधी राष्ट्रवादी हिंदू राजनीति और वैचारिक विमर्श की परियोजना का केंद्रीय सार तत्व बना। 9/11 के बाद अमेरिका की राजनीति के केंद्र में इस्लाम विरोध मुख्य भूमिका में आ गया। भारत की हिंदूवादी राजनीति में इसी विचार विमर्श को अपना रणनीतिक कार्यभार बना लिया और श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों और आतंकवादी घटनाओं के परिवेश में इस राजनीति को तार्किक आधार भी दे दिया। कॉरपोरेट नियंत्रित आईटी क्रांति के बाद किसी भी शासकीय विचार और चिंतन को केंद्रीय तत्व बनाने में आधुनिक मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ समय तक उसने हिंदुत्व की परियोजना और सम्मान और पहचान की राजनीति जिसे सामाजिक न्याय की खूबसूरत शब्दावली में सजाया गया था उसके मध्य संतुलनकारी बनने की कोशिश करता रहा। लेकिन अंतर्वस्तु कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की ओर झुकी रही और उपर्युक्त अवसर आते यह गठजोड़ समाज का संचालनकर्ता बन गया।

वही सामाजिक पहचान की वैचारिकी ब्राह्मणवादी सामाजिक ढांचे में दलित और पिछड़ी जातियों के समायोजन और संयोजन के समीकरण बैठाने मैं उलझी रही। और इन्हीं समीकरणों के आधार पर चुनावी वैतरणी पार करने की राजनीति लंबे समय तक भारतीय समाज को अपनी गिरफ्त में लिए रही। कभी-कभी विकास और कानून व्यवस्था के सवाल भी उठाए जाते रहे लेकिन इनकी मूल प्रवृत्ति ऊपर चिन्हित किए गए दो अंतर्विरोधों की वैचारिक धाराओं के बीच केंद्रित रहे। उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई बार विकास पुरुष बनने के तमाशे उसी उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण की धारा के अंतर्गत चलने वाली नई आर्थिक नीतियों के इर्द-गिर्द ही केंद्रित थे। वैश्विक राजनीतिक परिस्थिति में हुए परिवर्तन के चलते कारपोरेट पूंजी केंद्रित उदारीकरण की नीतियों पर पहचान और हिंदुत्व की राजनीति में आम सहमति बनी रही।  

2014 के बाद मोदी सरकार ने मनमोहन, चिदंबरम, यशवंत सिन्हा के द्वारा विकसित और संचालित आर्थिक नीतियों को आक्रामक और क्रूरता पूर्वक आगे बढ़ाया। हिंदुत्व और कारपोरेट के नग्न गठजोड़ के चलते भारत के आर्थिक और सामाजिक जीवन में तीखे तनाव पैदा हुए। मोदी सरकार के आने के बाद से ही कॉरपोरेट परस्त आर्थिक नीतियों को तेज गति से लागू करना शुरू किया गया। वे सभी कानून जो कारपोरेट पूंजी की लूट में थोड़ा सा भी अवरोध पैदा कर सकते थे उन्हें समाप्त किया जाने लगा। सामाजिक जीवन में समन्वय बनाने वाले सभी प्रावधान और संवैधानिक गारंटियों को निरस्त किया जाने लगा। राज्य अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से हाथ खींचना शुरू किया। साथ ही ऐसे कानूनों और अध्यादेशों को लागू किया गया जो भारत के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के दोहन में कारपोरेट पूंजी को पूरी छूट देते हों।

कारपोरेट पूंजी दुनिया भर के देशों का शिकार करते हुए भारतीय कारपोरेट घरानों के साथ नग्न गठजोड़ करके भारत में अपने लूट के व्यापार को मजबूत करने में जुट गई। प्राकृतिक संपदा के साथ कृषि क्षेत्र तक पर निगाहें गड़ा दीं । तीन कृषि कानून और मजदूरों के ऊपर चार श्रम संहिता और नई शिक्षा नीति सहित सभी आर्थिक क्षेत्र की गतिविधियों को कारपोरेट के हवाले करने का कदम उठाने के मकसद से लाये गये। महामारी की आड़ में इन सभी बर्बर नीतियों को क्रूरता पूर्वक लागू करने का कदम उठाया गया। संसदीय परंपराओं तक को दरकिनार करते हुए बहुमत वाद का नग्न प्रदर्शन नीतियों को लागू करने के लिए किया गया। जिसके चलते भारत के सभी उत्पादक क्षेत्रों में और सामाजिक जीवन में विरोध खुलकर के सामने आ गए। वे सामाजिक समूह जो अभी तक कारपोरेट नियंत्रित नौकरशाह पूंजीवाद के साथ रिश्तो में बंधे ‌थे वह भी टकराव और जीवन मरण के संघर्ष में उतरने के लिए मजबूर हो गए। 2013 तक जो आधुनिक कृषि के इलाके

कारपोरेट हिंदुत्व के राजनीतिक प्रभाव में थे आज आंदोलन के खौलते हुए क्षेत्र बन गए हैं। संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा संचालित किसान आंदोलन 9 महीने से इन्हीं कारपोरेट परस्त नीतियों के खिलाफ चल रहा है। वह पंजाब हरियाणा के अपने केंद्रीय इलाके से विस्तृत होते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सबसे संवेदनशील क्षेत्र मुजफ्फरनगर तक फैल गया। 5 सितंबर की मुजफ्फरनगर की मजदूर किसान पंचायत भारत में कॉरपोरेट लूट के खिलाफ एक बड़ा संदेश दे गई। अभी तक अपने को गैर राजनीतिक कहने वाले किसान संगठन विशुद्ध रूप से राजनीतिक विचारों के साथ चलने वाले किसान संगठनों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लगातार किसान आंदोलन को मजबूत करने और उसे विस्तार देने में लगे हैं।

उन्हें सफलता भी मिलती जा रही है। पहली बार किसी किसान पंचायत को मजदूर किसान पंचायत कहा गया और हिंदू मुस्लिम एकता सांप्रदायिक सद्भाव को कायम करने तथा किसानों से आह्वान किया गया कि भाजपा आरएसएस के किसी भी दंगाई मंसूबे को पूरा ना होने दें। और इस विकास क्रम में किसान पंचायतों को भाजपा संघ विरोधी राजनीतिक दिशा लेते हुए भारत के करोड़ों देशवासियों ने देखा। यह भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन के विकास में एक नई छलांग है। इस आंदोलन ने अब संविधान लोकतंत्र देश बचाओ जैसे आवाहन किये हैं। साथ ही दलित, पिछड़े, मजदूर, महिला और खाद्य सुरक्षा तक के सवालों को संबोधित करना शुरू कर दिया है जो भारत के 125 करोड़ लोगों के अपने जीवन के सवाल हैं। भारत के राजनीतिक रंगमंच पर किसान मजदूर छात्र नौजवान गरीब आदिवासी अल्पसंख्यक जैसे हासिये पर पड़ी ताकतें मुख्य भूमिका में आती हुई दिख रही हैं। यह मुजफ्फरनगर के किसान मजदूर पंचायत में साफ-साफ देखा जा सकता है। अब उन सभी तत्वों को जो लोकतंत्र, संविधान और धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक समरसता में यकीन करते हैं जाति धर्म को राजनीति से बाहर करके लोकतांत्रिक समाज बनाना चाहते हैं। उनके लिए इस किसान मजदूर पंचायत में छिपे संदेश बहुत महत्वपूर्ण है। जिन्हें अवस्य पढ़ा और देखा जाना चाहिए।

(जयप्रकाश नारायण सीपीआई (एमएल) के नेता हैं।)

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