Thursday, March 28, 2024

कोरोना की दूसरी लहर के बाद भी सरकार कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं

कोरोना की दूसरी लहर के दौरान, जिस अभूतपूर्व त्रासदी के दौर को हम सबने भोगा है और अब भी भोग रहे हैं, वह बेहद तकलीफदेह है। कुछ लोगों के अनुसार, वह सौ साल पहले आये प्लेग की तरह भयावह संक्रमण के दौर की पुनरावृत्ति थी। पर सौ साल पहले की स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर और आज की परिस्थिति में बहुत अंतर आ गया है। सौ साल में देश और दुनिया के चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ चुका है। उस प्लेग के बाद भी देश में मलेरिया, चेचक, काला आज़ार,  इंसेफेलाइटिस जैसी महामारी आती रही हैं। कुछ के टीके बन गए और कुछ के इलाज ढूढ़ लिए गए। कोरोना भी, महामारियों का पटाक्षेप नहीं है, और अभी तो इसके बारे में भी कहा जा रहा है कि इस आपदा की और लहरें भी आ सकती हैं।

2020 के 30 जनवरी को मिले केरल में पहले संक्रमित मरीज के बाद इस महामारी की यह दूसरी लहर चल रही है। अब तक सरकारी आंकड़ों के अनुसार, लगभग 4 लाख लोग इस महामारी की दूसरी लहर में मर गए, पर गैर सरकारी आंकड़े इस संख्या को 30 लाख तक आंकते हैं। सरकार द्वारा दिये जाने वाले ऐसी मौतों के आंकड़े कभी भी विश्वसनीय नहीं रहे हैं, और उन पर एक संशय बराबर उठता रहा है। यह एक सामान्य धारणा है कि, सरकार उन आंकड़ों को छुपाती है, जिनसे उनका निकम्मापन ज़ाहिर होता है। अभी हाल ही में बिहार सरकार ने पटना हाईकोर्ट में कोरोना से हुई मौतों के सम्बंध में दो अलग अलग हलफनामे दिए हैं जिनमें आंकड़ों में अंतर है। हाईकोर्ट ने इन अलग अलग दिए गए कोरोना संक्रमितों की मृत्यु के आंकड़ों पर सख्त ऐतराज भी जताया है। यह एक बानगी है। सच तो यह है कि महामारी के आंकड़े सरकार द्वारा किसी ठोस आधार पर गम्भीरता से जुटाए भी नहीं गए हैं।

मौतों का कारण, कोविड संक्रमण तो था ही साथ ही सबसे बड़ा कारण देश का लचर और अपर्याप्त हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर रहा है। लगभग महीने भर, मीडिया, सोशल मीडिया, अखबार सहित संचार के सभी माध्यम, ऑक्सीजन, जीवन रक्षक दवाओं, ऑक्सीमीटर जैसे ज़रूरी उपकरणों की किल्लत और मांग से भरे रहे। उस दौरान, सरकारी अस्पतालों में जगह नहीं बची और निजी अस्पतालों ने मरीज तो ठीक, भले ही कर दिया हो, पर उनकी अनाप शनाप फीस वसूली ने मरीज के परिवार को आर्थिक रूप से तोड़ दिया। मौतें इतनी अधिक हुयीं कि, विद्युत शवदाह केंद्र निरन्तर शव दाह करते करते अपनी चिमनियां तक गला बैठे। श्मशान पर लाइन लगा कर टोकन से चिताएं जलाई जा रही थीं। लकड़ी की बढ़ती कीमतों और लोगों की बदहाल आर्थिक स्थिति के कारण, लोग अपने परिजनों के शव को गंगा और अन्य नदियों के रेते में दफन करने लगे। इसकी खबर और तस्वीरों ने दुनियाभर में हमारे विकास, संस्कार, सभ्यता, संस्कृति और विपन्नता का एक बेहद अश्लील चेहरा दिखा दिया। इस महामारी ने, हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की सभी कमज़ोरियों और नाकामियों को उधेड़ कर रख दिया। इस महामारी की आपदा के दैत्य ने, अस्पताल के बेड पर मुआयने के दौरान रखे गए लाल कम्बल और सफेद चादरों को झटके से खींच कर हटा दिया और फिर पलंग की टूटी स्प्रिंग से लेकर, चूहों से कुतरे बेड सब कुछ नंगा हो गया और नंगी हो गयी सत्ता, राजनीतिक वादे और सरकार का गवर्नेंस।

20 अप्रैल, 2020 को सीडीडीईपी की प्रकाशित एक रिपोर्ट में 2019 के नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल की चर्चा की गयी है। उक्त रिपोर्ट के अनुसार,

● देश में कुल 69,264 अस्पताल हैं, जिनमें से 25,778 सरकारी और 43,486 निजी अस्पताल हैं।

● इन अस्पतालों में कुल 18,99,227 बेड सरकारी अस्पतालों में और 11,85,241 बेड निजी अस्पतालों में हैं।

● आईसीयू में कुल 94,564 बेड हैं, जिनमें से, 35,700 सरकारी अस्पतालों में और 59,264 निजी अस्पतालों में हैं।

● कुल वेंटिलेटरों की संख्या 47,481 जिसमें, 17,850 सरकारी क्षेत्र में और 29,631 निजी क्षेत्रों में हैं। 

उपरोक्त आंकड़ों से यह साबित होता है कि, देश का अधिकांश हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर निजी क्षेत्रों में केंद्रित हो रहा है। यदि इन आंकड़ों को और स्पष्ट करें तो, प्रति 10 हज़ार की जनसंख्या पर, 5 सरकारी अस्पतालों के बेड और 9 निजी अस्पतालों के बेड उपलब्ध हैं। पर जब आईसीयू बेड के संदर्भ में यह आंकड़ा देखते हैं तो, 1 लाख की आबादी पर, सरकारी अस्पतालों में 3 और निजी अस्पतालों में 4 बेड का ही अनुपात आता है।

अब इसी संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोविड 19 से जुड़ी रिपोर्ट देखते हैं। यह रिपोर्ट कोरोना वायरस डिजीज रिपोर्ट-46 के नाम से जारी हुयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार कोरोना से संक्रमितों में से 15% को अस्पतालों की और 5% मरीजों को वेंटिलेटर की ज़रूरत होती है। यानी इतने प्रतिशत मरीज क्रिटिकल या बहुत अधिक क्रिटिकल होते हैं। अब इस अध्ययन को अपने देश में मौजूद हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के अनुसार विश्लेषित करते हैं। यदि कोरोना संक्रमितों की कुल संख्या 1 लाख है तो, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के अनुसार, 15 हज़ार मरीजों को अस्पतालों में बेड की और उनमें से 5 हज़ार अधिक क्रिटिकल होंगे उनके लिए वेंटिलेटर की ज़रूरत पड़ेगी। पर जिस देश में जहां प्रति 10 हज़ार की आबादी पर, 14 अस्पताल बेड, और 1 लाख की आबादी पर 4 वेंटिलेटर सपोर्ट सिस्टम ही उपलब्ध हैं तो, अस्पतालों, बेड, ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की भयावह कमी होगी ही। कोरोना की दूसरी लहर ने जैसी स्थिति हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के बारे में हमारे सामने उजागर की, उससे तो, भयावह अफरातफरी मचनी ही थी। बेहद क्रिटिकल मरीजों और बेहद रसूखदार लोगों को भी ज़रूरत पर न अस्पतालों में बेड मिला, न वेंटिलेटर और वे तड़प-तड़प कर मर गए। यह सरकारों द्वारा हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की उपेक्षा का दुःखद परिणाम है जो देश की बीमार जनता ने झेला है।

हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी तो है ही साथ ही देश में हेल्थ प्रोफेशनल, जिसमें डॉक्टर, नर्सेस तथा पैरा मेडिकल स्टाफ है की भी भारी कमी है। यदि प्रोफेशनल ही नहीं रहें तो हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर का उपयोग कैसे हो पायेगा ? WHO के ही आंकड़ों के अनुसार, दुनिया के सर्वाधिक विकासशील देशों, जैसे दक्षिण अफ्रीका, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व के एशियाई देशों में प्रति 10 हज़ार की आबादी पर 10 डॉक्टर हैं। जबकि भारत मे यह अनुपात प्रति 10 हज़ार पर, 8.57 डॉक्टर का ही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के जनसंख्या के अनुपात में डॉक्टरों की बात करें तो, वह मानक एक हज़ार की आबादी पर एक डॉक्टर का है। हम इस अनुपात से बहुत पीछे हैं। 2020 की कोरोना की पहली और 2021 में आयी दूसरी लहर ने रहे सहे हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को और बेनकाब कर दिया। अस्पतालों के बेड, आईसीयू बेड, वेंटिलेटर, डॉक्टर, और प्रशिक्षित पैरामेडिकल प्रोफेशनल की आवश्यकताओं और उनकी उपलब्धता में बेहद असमानता थी। इसका दुष्परिणाम भारी संख्या में हुयी मौतों के रूप में हमें झेलना पड़ा।

अब अगर हम राज्यों के हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर का विश्लेषण करेंगे तो और भी आश्चर्यजनक निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। कुछ राज्यों में स्वास्थ्य ढांचा बहुत ही व्यवस्थित और सुगठित है तो कुछ राज्यों में हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थिति बेहद खराब और दयनीय है। देश के 35 राज्यों, जिसमें केंद्र शासित प्रदेश भी शामिल हैं, उनमें से 20 राज्यों, लक्षद्वीप, चंडीगढ़, कर्नाटक, पुड्डुचेरी, अंडमान और निकोबार, गोवा, सिक्किम, केरल, तेलंगाना, दादरा नागर हवेली दमन और दियु, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मिजोरम, तमिलनाडु, पंजाब, दिल्ली, महाराष्ट्र, मेघालय, आंध्र प्रदेश, राष्ट्रीय औसत से अधिक समृद्ध हैं जबकि अन्य 15 राज्य उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान,नगालैंड, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, असम, जम्मू कश्मीर, मणिपुर, ओडिशा, बिहार राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं। इससे यह लगता है राज्यों में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर का समान रूप से विकास नहीं हुआ है। कर्नाटक, गोवा, सिक्किम और केरल में 10 हज़ार की आबादी पर जितने अस्पताल बेड उपलब्ध हैं, वे राष्ट्रीय औसत से दुगुने हैं, जबकि असम, ओडिशा बिहार आदि राज्यों में अस्पताल बेड की उपलब्धता राष्ट्रीय औसत की आधी या उससे भी नीचे है। यह सभी आंकड़े https://www.mohfw.gov.in पर उपलब्ध हैं। मैंने इन्हें इंडियन पोलिटिकल डिबेट वेबसाइट पर सुजय घोष के छपे एक लेख से लिया है।

इसी वेबसाइट में दिए गए हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के आंकड़ों के साथ यदि कोरोना से ठीक होने वालों का राज्यवार आंकड़ा देखें तो, सबसे अधिक रिकवरी रेट वाले राज्य, दिल्ली – 96.6%, उत्तर प्रदेश – 94.3%, हरियाणा – 93.8%, झारखंड – 93.2%, और महाराष्ट्र – 92.5% रहा है। इसमें केंद्र शासित राज्यों का विवरण शामिल नहीं है, हालांकि उनके यहां भी रिकवरी रेट बहुत अच्छी रही है। लेकिन सबसे खराब रिकवरी रेट वाले राज्य कर्नाटक, सिक्किम, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा रहे हैं।

चूंकि बेहतर हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर, जिसके मानक में, अस्पतालों के बेड, वेंटिलेटर सपोर्ट, डॉक्टर तथा अन्य मेडिकल स्टाफ की उपलब्धता, आती है, से समृद्ध राज्यों में, ऐसा सोचा गया था कि, वहां रिकवरी रेट अच्छी होगी, और वे इस महामारी से बेहतर तऱीके से सामना कर पाएंगे, पर वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। कमज़ोर स्वास्थ्य ढांचे वाले कुछ राज्यों में रिकवरी रेट, मज़बूत हेल्थ इंफ्रा वाले राज्यों की तुलना में कम रही। उदाहरण के लिये उत्तर प्रदेश, हरियाणा, झारखंड और बिहार राज्यों में, जहां स्वास्थ्य ढांचा अपेक्षाकृत कमज़ोर था, वहां रिकवरी रेट बेहतर थी, बनिस्पत, कर्नाटक राज्य के जहां स्वास्थ्य ढांचा तो बेहतर था पर रिकवरी रेट उसकी तुलना में कम थी।

भारत के हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर की एक और विडंबना है, और वह है, स्वास्थ्य ढांचे का अधिकांश भाग निजी क्षेत्रों द्वारा संचालित होना। देश के पूरे स्वास्थ्य ढांचे का लगभग 60% से अधिक हिस्सा निजी स्वामित्व में उनके द्वारा संचालित है। अधिकतर बड़े राज्यों में, स्वास्थ्य ढांचे पर विशेषकर सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रभावशाली वर्चस्व है। उदाहरण के लिये महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, केरल, और मध्यप्रदेश राज्य में, निजी क्षेत्र की उल्लेखनीय भूमिका है। इसके विपरीत नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में जहां स्वास्थ्य ढांचा कमज़ोर है, वहाँ अधिकतर अस्पताल सरकारी क्षेत्र में हैं। इस प्रकार भारत में स्वास्थ्य ढांचे में जनस्वास्थ्य का मुद्दा निजी क्षेत्र पर अधिक निर्भर है। यह स्थिति एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा वाले देश में उचित नहीं है। स्वास्थ्य राज्य की जिम्मेदारी है। कम से कम बेहद गम्भीर बीमारियां, जिनका इलाज सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में ही सम्भव है को छोड़ कर, सामान्य बीमारियों का इलाज सरकार द्वारा बनाये गए स्वास्थ्य ढांचे के अंतर्गत किया जाना चाहिए। निजी क्षेत्रों के वर्चस्व या उनके ऊपर हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के अधिक आश्रित होने का दुष्प्रभाव महामारी के आपदाकाल में लोगों को भुगतना पड़ा। निजी अस्पतालों ने दस दिन के इलाज के लिये 12 लाख रुपए तक के बिल बना दिये जाने की खबरें भी हैं। राज्य सरकार द्वारा निजी अस्पतालों में चिकित्सा की दर निर्धारित न होने के कारण, यह अस्पताल लूट खसोट के अड्डे बन गए। निजी अस्पताल एक उद्योग के रूप में चलाए जा रहे हैं और उनकी सुविधाओं, शुल्कों में एकरूपता पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इसका सीधा असर जनता और बीमार पर पड़ता है।

एक राज्य केरल ने जिसका हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर देश में सबसे उत्तम है ने अपने राज्य के निजी अस्पतालों को इस महामारी में जनहित में रेगुलेट करने के लिये नियम बनाये। अन्य राज्य सरकारें भी अपने अपने राज्य में ऐसी व्यवस्था स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार कर सकती हैं। केरल ने अपने अपेक्षाकृत बेहतर हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर का लाभ लेने के साथ साथ, निजी अस्पतालों की मुनाफाखोरी पर भी लगाम लगाया और उनके लिये उनकी चिकित्सा की दर को भी संशोधित किया। केरल सरकार ने,

● अस्पतालों और स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं-मान्यता प्राप्त अस्पतालों (एनएबीएच अस्पतालों) और गैर-एनएबीएच अस्पताल के सामान्य वार्डों के प्रति दिन की कीमत क्रमशः 2910 और 2645 रुपये निर्धारित की।

● इसमें ऑक्सीजन, चिकित्सा और ड्रग्स, नर्सिंग और बोर्डिंग चार्ज आदि शामिल हैं और सीटी, एचआरसीटी आदि को बाहर रखा गया है।

● पीपीई किट, दवाओं और इस तरह के अन्य टेस्ट की कीमत को अधिकतम खुदरा मूल्य या किसी अन्य अधिसूचना या आदेश के रूप में नियंत्रित किया गया है।

● सरकार ने आरटी पीसीआर (RT-PCR) की कीमत 500 रुपये रखी।

●  केरल क्लीनिकल प्रतिष्ठान अधिनियम और नियम के अंतर्गत जिला चिकित्सा अधिकारी और अधिकारी शिकायत निवारण अधिकारियों के रूप में निजी अस्पतालों को रेगुलेट करने के लिये नियुक्त किये गए। 

● सरकार ने इलाज के लिए जो कीमतें निर्धारित की हैं, वे इन कीमतों के बारे में मिलने वाली शिकायतों की जांच करेंगे।

● गैर-निजी अस्पतालों में 50% बेड कोविड 19 के उपचार के लिए रखे गए।

● सरकार द्वारा कोविड अस्पतालों के रूप में नामित अस्पतालों (सूचीबद्ध अस्पतालों) में कोविड के लिए 50% बेड पहले से ही सरकार के नियंत्रण में हैं।

लेकिन इस महामारी ने हमारे हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को ही नहीं, बल्कि गवर्नेंस के पूरे सिस्टम को ही बेनकाब कर दिया। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि, देश के हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर में जो गिरावट आयी है वह, इसी सरकार के कार्यकाल की देन है। बल्कि यह गिरावट लम्बे समय से स्वास्थ्य ढांचे के प्रति उदासीनता और निजी अस्पतालों के प्रति सरकार की बढ़ती ललक का परिणाम है। 2014 के बाद भाजपा सरकार की मुख्य नीति ही, निजीकरण की है तो उसकी सरकारी स्वास्थ्य ढांचे के प्रति उदासीनता और बढ़नी ही थी। सरकार के सबसे बड़े थिंकटैंक नीति आयोग ने तो सरकारी अस्पतालों को भी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी मॉडल पर चलाने का प्रस्ताव दिया है। यह मॉडल एक प्रकार से कॉरपोरेट या बड़े अस्पतालों की चेन को देश के सभी सरकारी अस्पतालों को सौंप देना ही है। पर सरकार ने फिलहाल इस पर कोई निर्णय नहीं लिया। तब तक तो इस महामारी की दो लहरें ही आ गयीं और उन्होंने जनता के सबसे बड़े मुद्दों में से एक स्वास्थ्य और देश के हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की पोल खोल कर रख दिया।

ऐसा नहीं है कि देश में स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं बना था। आज़ादी के पहले जिला मुख्यालयों पर सिविल अस्पताल बन चुके थे। कुछ मेडिकल कॉलेज भी बने थे। पर आज़ादी के बाद जब योजना आयोग के अनुसार पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुयीं तो, प्रायमरी हेल्थ सेंटर और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर्स के निर्माण हुए और यह सुविधा गांवों तक पहुंची। मेडिकल कॉलेज बने, एम्स जैसे सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल और शोध संस्थान बने, पर वे बढ़ती आबादी और लोगों में बढ़ती हुयी स्वास्थ्य चेतना को देखते हुए पर्याप्त नहीं थे। इस बीच कॉरपोरेट का स्वास्थ्य सेक्टर में दखल हुआ और महंगे पर बेहतर स्वास्थ्य सुविधा युक्त अस्पतालों की चेन बननी शुरू हुयी। उसी समय, मैक्स, फोर्टिस, मेदांता, अपोलो, जैसे बड़े ग्रुप आये। पर उन तक सामान्य जन की पहुंचने और इलाज कराने की हैसियत नहीं थी। पर बाद में सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद उनसे कहा गया कि वे कुछ अस्पताल बेड, आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के लिये भी आरक्षित करें।

सरकार को इस महामारी से सबक लेनी चाहिए। यह अंतिम महामारी नहीं है। कोरोना की दोनों लहरों ने देश की अर्थव्यवस्था को बहुत ही नुकसान पहुंचाया है। वैसे तो, भारत की आर्थिकी में गिरावट 2016 ई में लिए गए सरकार के नोटबन्दी के निर्णय के बाद ही शुरू हो गयी थी। पर उसके बाद कोरोना आपदा ने इसे और तोड़ दिया। आर्थिकी सुधरे कैसे, फिलहाल इसका कोई रोडमैप सरकार के पास दिख नहीं रहा है। इंटरनेशनल रेटिंग एजेंसिया लगातार भारत के जीडीपी ग्रोथ के अनुमानित आंकड़े को घटाती जा रही हैं।

● विश्व बैंक ने साल 2021 में भारतीय अर्थव्यवस्था में 8.3 फीसद की विकास दर रहने का अनुमान दिया है। इससे पहले विश्व बैंक ने कहा था कि वित्त वर्ष 2021-22 में भारतीय अर्थव्यवस्था 10.1 फीसद की दर से ग्रोथ करेगी।

● रेटिंग फर्म S&P ग्लोबल ने चालू वित्त वर्ष 2021-22 के लिए भारत के जीडीपी ग्रोथ रेट के अनुमान को 11 फीसदी से घटाकर 9.8 फीसदी कर दिया।

● मूडीज ने कहा है भारत की जीडीपी, GDP मार्च 2022 को समाप्त फाइनेंशियल इयर में 9.3% बढ़ेगी जबकि पहले उसने 13.7 फीसदी का अनुमान दिया था।

● एसबीआई ने भी 2021-22 में विकास दर 7.9% रहने का अनुमान लगया है जबकि इससे पहले इसी वित्तीय वर्ष के लिए उसने जीडीपी दर, 10.4% रहने का अनुमान दिया था।

सरकार को अपनी आर्थिक नीतियों को लोककल्याणकारी राज्य के दृष्टिकोण को रख कर बनानी पड़ेगी। सात साल के शासन में सरकार की आर्थिकी का बस एक ही बिंदु समझ आता है कि जो कुछ भी सरकारी कम्पनियां हैं, उन्हें निजी क्षेत्रों को बेच दिया जाय। निजीकरण एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का अंग है, पर भारत में हो रहा निजीकरण किसी स्पष्ट नीति के अंतर्गत नहीं बल्कि यह अफरातफरी की तरह जिसे घबराहट में बेचना कहते हैं हो रहा है। तात्कालिक रूप से कुछ धन ज़रूर आ जा रहा है। पर दीर्घकाल में यह बिना सोचे समझे लागू की गयी योजना देश को विपन्न बना कर रख देगी। सरकार को इसे सोचना होगा और एक स्पष्ट आर्थिक नीति बनानी होगी।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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