Sunday, April 28, 2024

उच्च अदालतों ने भेजा ज्ञानवापी को बाबरी मस्जिद के रास्ते!

ज्ञानवापी मस्जिद में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को सर्वे की अनुमति इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दी। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने उस अनुमति पर अपनी मुहर लगा दी है। साधारण भाषा में कहें तो इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की अनुमति से ही ज्ञानवापी का सर्वे किया जा रहा है। तय ही है कि इसका उद्देश्य अन्य धार्मिक स्थल (मस्जिद) के स्वरूप को बदलने की योजना को अनुमति देना है। इससे पहले बाबरी मस्जिद को जिस प्रकार से राम मंदिर का निर्माण करने का रास्ता साफ किया गया, वह पूरे देश के सामने स्पष्ट है। यह राम मंदिर आंदोलन ही था, जिसने सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए भाजपा का रास्ता साफ किया था।

इस आंदोलन के रथ के सारथी आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे और उनके गुरु आडवाणी रथ पर सवार योद्धा थे। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद पर हमला कर उसका विध्वंस कर दिया गया। लेकिन उसके पहले भारतीय संसद ने बाबरी मस्जिद-राम मंदिर जैसे संघर्षों का रास्ता बंद करने के लिए 1991 में पूजा (विशेष प्रावधान) अधिनियम पास कर दिया था। इस अधिनियम ने 15 अगस्त, 1947 तक जो पूजा स्थल जिस रूप में थे, उसी रूप में बनाए रखने का कानून बना दिया। इसमें सिर्फ बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद को अपवाद की श्रेणी में रखा गया। 

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में हिंदू पक्ष के मुकदमे को यह कहकर कोर्ट ने स्वीकार किया था, कि यह मुकदमा पूजा करने के अधिकार के लिए है, न कि यह घोषणा करने के लिए इमारत एक मंदिर था। इस प्रकार कोर्ट ने किसी अन्य समुदाय के धार्मिक स्थलों पर पूजा करने के अधिकार का दावा करने का रास्ता खोल दिया। इसे सरल भाषा में कहें तो अदालतों ने एक समुदाय को दूसरे समुदाय के धार्मिक स्थल पर पूजा करने या प्रार्थना करने के अधिकार के लिए रास्ता खोल दिया। ऐसे में तय था कि बहुसंख्यक ताकतवर समुदाय ( हिंदू) ही ऐसी दावेदारियां पेश करेंगे।

विभिन्न मस्जिदों, बाद में चर्चों पर भी पूजा करने के अधिकार यह दावा कर मांगे गये कि यह पहले मंदिर था। इस तरह से चाहे-अनचाहे 1991 के पूजा (विशेष प्रावधान) अधिनियम के मूल मंतव्य को किनारे लगा दिया गया। जिसका मुख्य उद्देश्य यह था कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि जैसे किसी अन्य विवाद के लिए देश में कोई जगह न बचे। देश की आजादी के समय (15 अगस्त 1947) जो धार्मिक स्थल जिस रूप में था,वैसा ही बना रहेगा। इसके बाद कोई किसी दूसरे पूजा स्थल पर दावेदारी न करे।

1991 के कानून से बच निकलने का रास्ता अपनाते हुए तथाकथित हिंदू उपासकों ने ज्ञानवापी मस्जिद को पुरातत्वविदों से सर्वेक्षण कराने के लिए अदालत में मुकदमा दायर किया। ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या ज्ञानवापी मस्जिद एक हिंदू मंदिर की ध्वस्त संरचना पर बनाई गई थी या नहीं। अदालतों ने यह कहकर इसे स्वीकार कर लिया कि हिंदू पक्ष इस स्थल को पुन: मंदिर में बदलने की मांग नहीं कर रहा है, बल्कि सिर्फ पूजा करने के अधिकार की मांग कर रहा है। ऐसा जान पड़ता है कि अदालत को यह नहीं पता कि सिर्फ ढांचा विशेष अपनी बनावट के चलते पूजा स्थल नहीं होता है, बल्कि वहां किस धर्म की पूजा या प्रार्थना हो रही है, उसके आधार पूजा स्थल या धार्मिक स्थल माना जाता है।

इस तरह सीधे नाक न पकड़ घुमाकर पकड़ने की रणनीति को वैधता प्रदान करते हुए अदालतों ने एएसआई के माध्यम से आधिकारिक साक्ष्य इकट्ठा करने की इस चालबाजी का समर्थन किया है। अभी तक हिंदू पक्ष के पास कोई साक्ष्य नहीं है कि यह मंदिर था। सर्वे के बाद उन्हें साक्ष्य मिल सकता है। फिर वह यह दावा पेश कर सकते हैं कि यह तो मंदिर है, हमें इसे मंदिर में बदलने की अनुमति भले न दी जाए, लेकिन पूजा करने का अधिकार दिया जाए। इस तरह उनके पास पहला अधिकार पूजा करने का हासिल हो जायेगा।

फिर वे पूजा स्थल को मंदिर में बदलने के लिए राजनीतिक अभियान चलायेंगे। इस अभियान के माध्यम से हिंदुओं की गोलबंदी की जाएगी और मुसलमानों को आक्रमणकारी, मंदिरों के विध्वंसक के तौर पर घृणा अभियान चलाने के लिए एक और औजार मिल जाएगा। ऐसा नहीं है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट इस चालबाजी और इसके पीछे के मूल मंतव्य (राजनीति) से नावाकिफ़ हो। लेकिन भारत की अदालतें भी करीब-करीब उसी तरह बहुसंख्यकवादी ( हिंदूवादी) हो गई हैं, जैसा कि भारतीय राजनीति और एक हद तक हमारा समाज।

अदालतों ने यह नहीं पूछा कि ज्ञानवापी मस्जिद के खंभे और दीवार कब बने यह जानना क्यों जरूरी है। इस सवाल पर भी विचार नहीं किया गया कि जब 1991 के पूजा स्थल कानून के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप को नहीं बदला जा सकता है, तो सर्वे की क्या जरूरत है। यदि यह साबित भी हो जाए कि ज्ञानवापी मस्जिद मंदिर तोड़कर कर बनाई गई थी, तो उससे क्या फायदा होगा। जबकि कानून के मुताबिक अब किसी धार्मिक स्थल का स्वरूप बदला ही नहीं जा सकता है। सहज तर्क यह है कि इस सर्वे का एकमात्र उद्देश्य ज्ञानवापी मस्जिद को कानूनी तौर भी विवादस्पद मुद्दा बनाना है, ताकि इसके आधार हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को तेज किया जा सके, जो राम मंदिर निर्माण के साथ बुझने जा रही है।

अदालतों का फैसला आते ही इस राजनीति की शुरुआत योगी आदित्यनाथ ने कर दी है। उन्होंने ज्ञानवापी को मस्जिद मानने से इनकार करते हुए कहा कि,‘अगर ज्ञानवापी को मस्जिद कहा जाएगा तो इस पर विवाद होगा।’ उन्होंने इससे भी आगे बढ़कर मुस्लिम समुदाय से कहा  कि प्रस्ताव तो मुस्लिम समाज की  तरफ से आना चाहिए कि साहब ऐतिहासिक गलती हुई है और उस गलती का हम समाधान चाहते हैं।’ सीधे-सीधे योगी आदित्यनाथ सर्वे के नतीजे का इंतजार किए बगैर ही घोषणा कर रहे हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद नहीं है, यह ढांचा मंदिर है और मुसलमानों को उसे हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। 

इस संदर्भ में द हिंदू ने 5 अगस्त के अपने संपादकीय में कहा है कि “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अदालतें मुस्लिम पूजा स्थलों पर प्रेरित मुकदमेबाजी को प्रोत्साहित कर रही हैं। हर बार जब ऐसा आवेदन दायर किया जाता है, तो ऐसा कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग करके किया जाता है। बढ़ते हुए अन्याय की आशंका को जन्म देता है।”

हिंदूवादी संगठन मस्जिदों पर नए-नए दावे क्यों कर रहे हैं और क्यों 1991 के पूजा स्थल कानून को मानने को तैयार नहीं है, यह तो कोई भी सहज बुद्धि से समझ सकता है। साफ तौर उनका उद्देश्य इसके माध्यम से हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और मुसलमानों के खिलाफ घृणा अभियान को जारी रखना है। लेकिन अदालतें, जिसमें हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक शामिल हैं, ऐसा क्यों कर रही हैं, इसका जवाब जरूर ढूंढा जाना चाहिए।

इस संदर्भ में फिलहाल यह कहा जा सकता है कि “संविधान भले किसी झंडे के पीछे न चलता हो, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का रुख चुनाव-परिणामों के हिसाब से ज़रूर बदल जाता है।” इलिनॉयस के प्रतिभाशाली हास्य लेखक फिनले पीटर डन(1867-1936) ने अपनी क्लासिक कृति ‘मिस्टर डूली’ज़ ओपिनियन्सः दि सुप्रीम कोर्ट्’स डिसीजन्स’ में यह व्यंग्य किया था। लेकिन भारत की अदालतों के बारे में सिर्फ इतने से काम नहीं चल सकता है, हां यह एक तत्व जरूर है।

अदालतों की इस चरित्र के बारे में एजी नूरानी की टिप्पणी कहीं ज्यादा सटीक बैठती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अदालत का फैसला आरएसएस और उसके वंशजों, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद द्वारा पोषित बहुसंख्यकवादी माहौल को ही प्रतिबिंबित करता है। इस संदर्भ में उन्होंने  24 जनवरी 1922 को, अपने ऊपर लगाए गए राजद्रोह के अभियोग के जवाब में, मौलाना अबुल कलाम आजाद के बयान को उद्धृत किया है, जिसमें उन्होंने कहा था “दुनिया के इतिहास में युद्ध के मैदानों के बाद सबसे ज्यादा अन्याय अदालतों में ही हुए हैं।” नूरानी ने यह बात 9 नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाबरी मस्जिद मामले में एकमत स्वर में राम मंदिर के पक्ष में सुनाए गए फैसले के बाद कही थी।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के संपादक हैं।)

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