Friday, April 19, 2024

हिंदुत्ववादी और वैज्ञानिक विश्व दृष्टिकोण का संघर्ष: रामदेव का धंधा बनाम वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति

यह देखना, इस दौर में, आशाजनक और आश्वस्तकर है कि अंतत: इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (भारतीय चिकित्सा संगठन) ने आधुनिक चिकित्साशास्त्र बल्कि कहना चाहिए तार्किकता और वैज्ञानिक चेतना एवं स्वयं विज्ञान के खिलाफ विगत सात वर्षों से चल रहे दुष्प्रचार के खिलाफ खड़े होने का निर्णय ले लिया है। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि अविराम चलने वाला यह आक्रमण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से भारत सरकार की छत्रछाया में चल रहा था और चल रहा है। इसमें शंका नहीं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली यह भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपनी सोच और समझ दोनों में रूढ़िवादी है।

भारतीय संस्कृति की ‘महानता’ के छद्म की आड़ में यह उन पुनरुत्थानवादी महत्त्वाकांक्षियों का उपक्रम है जो ज्ञान-विज्ञान से इसलिए डरे हुए हैं क्योंकि वह उनके संकीर्ण हितों के पक्ष में नहीं जा सकते। इसलिए वे आधुनिक ज्ञान और चेतना के बल पर नहीं बल्कि पौराणिक काल्पनिकता और रूढ़िवादिता के सहारे सत्ता चलाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में वह धर्म और परंपरा के नाम पर समाज को अतीतजीवी और अंधभक्तों में बदलने में लगे हैं, कम से कम उसके उस हिस्से को जो अनंतकाल से पिछड़ा और वंचित है, जिससे कि स्वयं उनका सत्ता में बने रहना सुनिश्चित हो सके।

इसीलिए यह सरकार एक अमूर्त भारतीयता की आड़ में लगातार अतार्किकता, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास और अंधश्रद्धा को बढ़ावा देती आ रही है। आश्चर्यजनक यह है कि इस सबके बावजूद न तो वैज्ञानिकों ने, विशेष तौर पर उनके संगठनों ने मिलकर सरकार और उसके शीर्ष नेताओं का विरोध करना तो रहा दूर, उनकी अतार्किकताओं की दबे स्वर तक से खंडन करने की जरूरत नहीं समझी। निश्चय ही इसका कारण जातीयता और सांप्रदायिकता का वह घातक घोल है जो ऊंची जातियों के चिकित्सा और वैज्ञानिक ज्ञान के क्षेत्र में एकाधिकार को बरकार रखने में निर्णायक तत्व की तरह काम करता है। यह कम मजेदार नहीं है कि सबसे ज्यादा डाक्टरी व्यवसाय से जुड़े लोग भाजपा के साथ हैं बल्कि कहना चाहिए सत्ता से जुडऩे में देर नहीं लगाते। इसका बड़ा कारण इस व्यवसाय की वह लोच है जो इसे व्यक्ति केंद्रित उद्यम से लेकर कॉरपोरेट इंटरप्राइज तक में बदलने की क्षमता प्रदान करती है।

एक उदाहरण यह भी है कि सबसे ज्यादा पद्म पुरस्कार पाने वालों में प्रोफेशनलों के तौर पर डॉक्टरों की संख्या संभवत: सबसे ज्यादा मिलेगी। निजी तौर पर अपवाद हो सकते हैं, पर एक समुदाय के तौर पर डॉक्टरों ने तथा अन्य क्षेत्रों में कार्यरत वैज्ञानिकों ने भी अपनी चुप्पी और अवसरवादिता से अपने अनुशासन (डिसिप्लिन) और वृहत्तर समाज का जो नुकसान किया वह अब छिपा नहीं है। इसलिए विगत सात वर्षों की परिणति के रूप में वैज्ञानिकता और तार्किकता की जो तबाही इस अर्ध-विकसित और जातिग्रस्त देश और इसकी जनता के सामने नजर आ रही है उसकी जिम्मेदारी शासक वर्ग की तो है ही वैज्ञानिकों, डाक्टरों, इंजीनियरों तथा विज्ञान की शिक्षा से जुड़े लोगों की भी कम नहीं है। इस अपराध में जो अन्य व्यावसायिक वर्ग शामिल हैं उनमें मुख्यत: भाषायी पत्रकार और संचार माध्यमों के मालिक हैं जिन्होंने लाभ के लिए समाज के प्रति अपने दायित्व को नहीं निभाया।

हमें समझ लेना चाहिए कि रामदेव इस निंदनीय कृत्य में अकेला नहीं है। उसे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से केंद्र से लेकर राज्य तक सत्ता तथा बहुसंख्यक उच्च तथा मध्यवर्ग का पूरा समर्थन है। और यह समर्थन अकारण नहीं है। बदले में रामदेव सत्ताधारी दल का खुला समर्थन करता है और कौन जाने कितने करोड़ों के चुनावी बांड खरीदता होगा या कहिए खरीद सकता है। यही हाल भाषायी माध्यमों का है जिनका पतंजली बड़ा विज्ञापनदाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अज्ञानता के महिमामंडन का यह विरोध कुछ नहीं तो सात साल पहले तो हो ही जाना चाहिए था।

उसी दिन, यानी 14 अक्टूबर 2014 को, जब नए-नए प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने अपने मित्र मुकेश अंबानी के देश के सबसे आधुनिक और महंगे रिलायंस सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल का मुंबई में उद्घाटन करते हुए कई अतार्किक और विज्ञान विरोधी बातें कहीं थीं। उन्होंने कहा था, ”मेडिकल साइंस की दुनिया में हम गर्व कर सकते हैं कि हमारा देश किसी समय में क्या था। महाभारत में कर्ण की कथा, हम सब कर्ण के विषय में महाभारत में पढ़ते हैं। लेकिन कभी हम थोड़ा-सा और सोचना शुरू करें ध्यान में आएगा कि महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद (गर्भ) से पैदा नहीं हुआ था। इसका मतलब यह हुआ कि उस समय जैनेटिक साइंस मौजूद था तभी तो मां की गोद के बिना उसका जन्म हुआ होगा।”

वह यहीं पर नहीं रुके। उन्होंने कहा, ”हम गणेश जी की पूजा करते हैं, कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने में जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रख करके प्लास्टिक सर्जरी का प्रारंभ किया होगा।”

उन्होंने यह भी कहा, ”कई ऐसे क्षेत्र होंगे जिनमें हमारे पूर्वजों का योगदान रहा। इनमें से कई के बारे में हम खूब जानते हैं। अगर हम अंतरिक्ष विज्ञान की बात करें तो हमारे पूर्वजों ने अंतरिक्ष विज्ञान में कई उपलब्धियां हासिल की थीं। आर्यभट्ट जैसे लोगों ने जो शताब्दियों पहले कहा उसे आज विज्ञान मानता है। मैं यह कहना चाहता हूं कि हम वह देश हैं जिसमें ये क्षमताएं थीं। इन्हें पुन: हासिल करने की जरूरत है।”

 नरेंद्र मोदी ने उस दिन विज्ञान को ही नहीं नकारा बल्कि हजारों वर्ष की अपनी यात्रा में जुटाए मानव सभ्यता के पूरे ज्ञान को ही मिट्टी में मिला दिया था। यह स्तब्ध करने वाला था, पर क्या वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और इंजीनियरों का हमारा कोई संगठन बोला? चुप रहा तो आखिर क्यों?

मोदी ने कर्ण की कथा को जेनेटिक साइंस (अनुवांशिकी) की उपलब्धि घोषित कर दिया जबकि यह बहुत हुआ तो गाइनोकोलॉजी (स्त्रीरोग विज्ञान) की एक नई शाखा है और गणेश के सर के ‘ट्रांसप्लांट’ को ‘प्लास्टिक सर्जरी’ बताया। आर्यभट्ट को उन्होंने अंतरिक्ष वैज्ञानिक बतलाया जबकि वह गणितज्ञ और खगोलविद् थे। निश्चय ही यह उनके आत्मविश्वास का चरम उदाहरण था।

प्रधानमंत्री द्वारा प्राचीन भारत में आधुनिकतम वैज्ञानिक खोजों की इस उपलब्धि को रेखांकित किए अभी डेढ़ महीना भी नहीं हुआ था कि जनवरी, 2015 में प्राचीन भारत की एक और नई उपलब्धि, इस बार भी मुंबई में ही, 102वीं इंडियन साइंस कांग्रेस में दिए व्याख्यान के रूप में सामने आई। भाजपाई हल्कों से बहुचर्चित इंजीनियर आनंद बोडस ने विज्ञान कांग्रेस में जो पर्चा रखा उसमें बताया कि सात हजार साल पहले भारद्वाज ऋषि लिखित विमानिक-शास्त्र नाम की पुस्तक में बताया गया है कि उस समय विमानन की तकनीक बहुत विकसित थी। उनमें दाएं, बाएं, रिवर्स गीयर होते थे और वे एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आ-जा सकते थे।

वैसे यह बात और है कि प्रधानमंत्री जो कह रहे थे वह सब अचानक नहीं बल्कि सुनिश्चित योजना के तहत हो रहा था। इस बीच सरकार ने अलग से एक आयुष मंत्रालय बनाया जो विशेषकर आयुर्वेद के लिए था, कहने को उसमें यूनानी और होमियोपैथी आदि भी शामिल हैं। इसके अलावा ‘महान परंपरा’ के नाम पर फलित ज्योतिष, कर्मकांड व प्रेत विद्या तक के विश्वविद्यालयों में विभाग खोले गए हैं।

ब्रितानवी दैनिक द गार्डियन ने नरेंद्र मोदी के अक्टूबर, 2014 में दिए भाषण की रिपोर्ट छापते हुए सवाल उठाया था कि आखिर भारतीय वैज्ञानिक बोलते क्यों नहीं हैं? वैज्ञानिकों का न बोलना किस हद तक खतरनाक हो सकता है, यह घटना उसका उदाहरण है। क्या हम ऐसे दौर में प्रवेश कर गए हैं जब कोई भी शक्तिशाली व्यक्ति स्थापित वैज्ञानिक तथ्यों को झुठलाएगा और हमारे वैज्ञानिक चुप बैठे देखते रहेंगे?

स्पष्ट है कि रामदेव की आधुनिक चिकित्साशास्त्र से नाराजगी और विरोध इस बात को लेकर है कि आधुनिक चिकित्सा उसके धंधे को बर्बाद कर रही है। सब जानते हैं कि परंपरागत चिकित्सा का धंधा भारत जैसे देश में कम बड़ा नहीं है और रामदेव की हिस्सेदारी इसमें सबसे बड़ी है। उसे जितना बड़ा योगी होना था, वह हो चुका है, अब वह ‘कोरोनिल’ बेच कर बड़ा उद्योगपति होना चाहता है रातों-रात, उसी तरह जिस तरह इधर अडानी और उससे पहले अंबानी हो चुके हैं। प्रसंगवश उसने ‘कोरोनिल’ की एक-दो नहीं, बीसियों किस्म की गोलियां तैयार कर दी हैं और सुना है हरियाणा सरकार एक लाख डिब्बियां जनता को बांटने जा रही है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान से रामदेव का झगड़ा यही है कि वह उसके मानवीय पीड़ा से कमाई के धंधे में आड़े आ रही है। यहां यह जानना भी लाभप्रद होगा कि वित्त वर्ष 2020 में उसकी कंपनी पतंजलि की कुल कमाई 13,000 करोड़  थी। वैसे रामदेव का दावा है कि अगले पांच साल में कंपनी का टर्न ओवर 50 हजार से एक लाख करोड़ तक हो जाएगा और वह देश की उपभोक्ता सामान की सबसे बड़ी कंपनी हो जाएगी। अगर उसकी कोविड की दवाओं की आइएमए आलोचना करने की जगह समर्थन कर देता तो संभव है पतंजलि अब तक देश की सब से बड़ी फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स कंपनी का सेहरा पहने होता।

पलट कर देखें तो समझ में आ जाता है कि गार्डियन का सवाल कितना महत्त्वपूर्ण था।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने इस बात का बिल्कुल विरोध ही न किया हो। आनंद बोडस के प्रलाप पर नासा के साथ काम करने वाले वैज्ञानिक रामप्रसाद गांधीरमन ने अपील जारी की जिसमें कहा गया था कि भारत में मिथकों और विज्ञान के घालमेल की कोशिशें बढ़ रही हैं। इस तरह के व्याख्यानों को रोका जाना चाहिए। गांधीरमन ने अपनी बात के पक्ष में डेढ़ महीने पहले मुंबई में ही दिए गए प्रधानमंत्री भाषण का भी हवाला दिया था। इस अपील पर दुनिया भर के 220 वैज्ञानिकों ने हस्ताक्षर किए थे। सत्य यह है कि इसमें भारतीय वैज्ञानिक गिनती के ही थे। पर कहा नहीं जा सकता कि हमारी सरकार ने इससे कोई सबक लिया हो।

जो भी हो, अभी भी बहुत कुछ बचाने के लिए है। हमारे पूरे वैज्ञानिक समाज को, जिसमें टेक्नोलॉजी, इलेक्ट्रॉनिक्स, शोध तथा शिक्षण में लगे सब लोग शामिल हैं, मिल कर डॉक्टरों और आइएमए का खुलकर समर्थन करना चाहिए। अगर समय रहते यह नहीं किया गया तो भारत में विज्ञान का ही नहीं बल्कि विज्ञान और आधुनिकता का भविष्य भी सुरक्षित नहीं रह पाएगा। रामदेव और उसके चेले-चाटे अपने स्वार्थ के लिए किसी को छोड़ेंगे नहीं।

(पंकज बिष्ट समयांतर के संपादक हैं। उनका यह लेख समयांतर की संपादकीय के रूप में प्रकाशित हुआ है। यह वहीं से साभार लिया गया है।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जंग का एक मैदान है साहित्य

साम्राज्यवाद और विस्थापन पर भोपाल में आयोजित कार्यक्रम में विनीत तिवारी ने साम्राज्यवाद के संकट और इसके पूंजीवाद में बदलाव के उदाहरण दिए। उन्होंने इसे वैश्विक स्तर पर शोषण का मुख्य हथियार बताया और इसके विरुद्ध विश्वभर के संघर्षों की चर्चा की। युवा और वरिष्ठ कवियों ने मेहमूद दरवेश की कविताओं का पाठ किया। वक्ता ने साम्राज्यवाद विरोधी एवं प्रगतिशील साहित्य की महत्ता पर जोर दिया।

Related Articles

साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जंग का एक मैदान है साहित्य

साम्राज्यवाद और विस्थापन पर भोपाल में आयोजित कार्यक्रम में विनीत तिवारी ने साम्राज्यवाद के संकट और इसके पूंजीवाद में बदलाव के उदाहरण दिए। उन्होंने इसे वैश्विक स्तर पर शोषण का मुख्य हथियार बताया और इसके विरुद्ध विश्वभर के संघर्षों की चर्चा की। युवा और वरिष्ठ कवियों ने मेहमूद दरवेश की कविताओं का पाठ किया। वक्ता ने साम्राज्यवाद विरोधी एवं प्रगतिशील साहित्य की महत्ता पर जोर दिया।