Friday, March 29, 2024

स्व-श्रेष्ठता के दंभ में हर किसी को खारिज करने के खतरे

अभी हाल की बात है, एक दिन मैंने अपने फेसबुक पेज पर दक्षिणपंथी खेमे के एक वरिष्ठ संपादक की असमय मौत पर दुख प्रकट करते हुए संक्षिप्त श्रद्धांजलि-लेख लिखा। इस पर कुछ ‘वामपंथी’ और ‘समाजवादी’ किस्म के बुद्धिजीवी खासे नाराज हो गये। उन्हें लगा, एक दक्षिणपंथी संपादक, जिसने वीपी सिंह द्वारा मंडल रिपोर्ट की आरक्षण सम्बन्धी एक सिफारिश को लागू करने के विरोध में जमकर लिखा-लिखवाया, उसकी मौत पर यह शोक क्यों? इसी संपादक की मौत पर उक्त अखबार के एक पत्रकार ने शोक प्रकट करते हुए बताया कि उनके कारण कुछेक सौ पत्रकार-गैर-पत्रकारकर्मियों की नौकरी बची रही, तनख्वाह मिलती रही और परिवार चलता रहा। अखबार से बाहर के एक पूर्व स्तम्भकार ने लिखाः ‘उन जैसे दलित समाज से आये लेखक को दिवंगत संपादक ने मशहूर स्तम्भकार बनाया, सिर्फ स्तम्भकार ही नहीं, पहला दलित स्तम्भकार। लिखने की मेरे पास क्षमता और योग्यता, दोनों थी। लेकिन उनका क्या करता? उक्त संपादक ने लिखने का मौका न दिया होता तो उनकी स्थिति उस कलम जैसी होती जिसे स्याही ही न मिली हो।’

एक और सत्यकथा सुनिये, कुछ अलग संदर्भ वाली। तकरीबन तीन दशक पहले की बात है। हमारे एक पत्रकार-मित्र ने बड़ी दिलचस्प सत्य-कथा सुनाई। वह जितनी दिलचस्प थी, उतनी ही गंभीर भी। शहर में उनके एक वामपंथी मित्र बहुत ईमानदार और सरल स्वभाव के थे। एक शासकीय संस्थान में काम करते हुए वह किसी वामपंथी पार्टी से भी जुड़ गये थे। वह पिछड़े समाज (सबाल्टर्न) से आते थे। अपनी पार्टी में उच्च-वर्णीय हिन्दू पृष्ठभूमि के नेताओं के बढ़ते वर्चस्व से उन दिनों वह कुछ दुखी नजर आते थे। हमारे मित्र से वह एक दिन मिले तो कुछ ज्यादा मायूस नजर आये। मित्र ने उनसे पूछा-क्या बात है, कुछ उदास लग रहे हैं? हाथ मलते हुए उन्होंने कहाः ‘क्या कहें, इस पार्टी से हमें बड़ी आशाएं रही हैं। डर लगता है, इसका हाल पुराने जमाने वाली वामपंथी पार्टी जैसा न हो जाय!’ मेरे पत्रकार-मित्र का जिज्ञासु मन फुदकने लगा।

उन दिनों मैं भी अखबार के लिए राजनीतिक विषयों की रिपोर्टिंग करता था। इसलिए इस कथा को विस्तार से सुनने के लिए मैं भी उत्सुक हो गया। मैंने उन्हें स्कूटर पर बैठाया शहर के एक अच्छे लेकिन आमतौर पर कम भीड़भाड़ वाले कैफे में ले गया। वहां पकौड़ा और चाय का आॉर्डर दिया। फिर उनसे आहिस्ते से पूछाः ‘आपके कहने का मतलब समझा नहीं? पूरी कहानी ठीक से समझाइये।’ मेरे इस सवाल के जवाब में वह लगातार आधे घंटे बोलते रहे। हम लोग तब तक दो-दो कप चाय खाली कर चुके थे। मुझे बहुत सी नयी जानकारियां मिलीं। कुछ दिनों के अंतराल पर उक्त पार्टी के एक प्रमुख नेता मिले। वह पार्टी के बड़े बुद्धिजीवी भी थे। मैंने उनसे हालचाल पूछा। फिर इधर-उधर की बात होती रही। अचानक उन महाशय का उल्लेख आया, जिनके बारे में कुछ दिनों पहले मेरे पत्रकार-मित्र ने कैफे में बैठकर पूरे विस्तार से वह सत्यकथा सुनाई थी।

मैंने पार्टी के इन बड़े नेता से पूछा-‘अमुक जी (वही शासकीय संस्थान में काम करने वाले वामपंथी सज्जन) का क्या हाल है?’ उन्होंने छूटते ही कहाः ‘आज कल वह कुछ बीमार चल रहे हैं।‘ मैंने पूछा-‘कब से?’ उन्होंने कहाः ‘छह-सात महीने से।‘ मैने कहाः ‘उनसे तो हाल ही में हमारे एक मित्र की मुलाकात हुई थी। उससे कुछ समय पहले मुझसे भी हुई थी। तब भी वह पूरी तरह स्वस्थ और सक्रिय नजर आये थे। स्वयं ही स्कूटर चलाकर आपकी पार्टी की कोई प्रेस विज्ञप्ति देने मेरे दफ्तर आये थे।‘ इस पर पार्टी के उक्त बड़े बौद्धिक नेता ने कहाः ‘मेरा मतलब उनके मानसिक स्वास्थ्य से था।‘ चूंकि उन सज्जन ने अपनी पार्टी के अंदर तेजी से बढ़ते उच्चवर्णीय हिन्दू पृष्ठभूमि के कुछ तिकड़मी किस्म के नेताओं के प्रभाव पर संगठन में कई बार सवाल उठाय़े थे इसलिए पार्टी के एक समूह की तरफ से उनके ‘बीमार’ होने की बात प्रचारित की जाने लगी थी। मैं इस तथ्योद्घाटन से चकित रह गया। पार्टी के उस प्रभावशाली खेमे में एक सदस्य या समर्थक के ‘अप्रिय सवालों’ से इतना गुस्सा था कि सवाल करने वाले को ‘बीमार’ घोषित कर दिया।

देखिये-एक व्यक्ति और विचार के कितने अलग-अलग रंग हैं। हर विचार, धारा और वर्ग-वर्ण के लोगों में इसे देखा जा सकता है। कुछ साल पहले की बात है-लखनऊ में रहने वाले एक विख्यात मार्क्सवादी लेखक को मार्क्सवादी खेमे के ही कुछ उच्चवर्णीय पृष्ठभूमि के जनवादी-क्रांतिकारी विद्वानों ने यकायक ‘सबाल्टर्निस्ट’ घोषित कर दिया। मतलब कि ‘शुद्ध और खांटी’ मार्क्सवादी लोग उन्हें ‘मिलावट वाला’ मानने लगे। फिर ईमानदार और बिरादराना संवाद कैसे संभव होता! उन्हें ‘शुद्ध मार्क्सवादियों’ ने कुजात या अशुद्ध घोषित कर दिया। दिलचस्प बात कि यूपी की तत्कालीन सरकार में पिछड़े वर्ग के नेताओं का वर्चस्व था। लेकिन सरकार में बैठे लोग उक्त अशुद्ध-कुजात वामपंथी यानी ‘सबाल्टर्निस्ट’ को ‘खांटी मार्क्सवादी’ और इस तरह अपने विरूद्ध समझते हुए हमेशा नजरंदाज करते रहते थे।

किसी नामोल्लेख के बगैर ये तीनों कथाएं सत्य और तथ्य पर आधारित हैं। इन्हें सुनाने या यहां लिखने का मकसद किसी मित्र, लेखक या विचारक को कमतर करके देखना नहीं है। हम उस सोच और समस्या पर चर्चा करना चाहते हैं कि हमारे जैसे समाज में लगभग समान सोच के बौद्धिक लोगों के बीच कितनी अलग-अलग धारणाएं हैं! हमारे जैसे समाज में निषेध, नकार और खारिज करने की प्रवृत्ति विकसित लोकतांत्रिक देशों और समाजों के मुकाबले क्यों ज्यादा प्रभावी है? अपने निजी अनुभव की रौशनी में मैं कह सकता हूं कि हमारे कई मित्र ऐसे तमाम लोगों को ख़ारिज करते रहते हैं, जिनके किसी एक या कुछ धारणाओं से उनकी असहमति होती है।

ऐसे मित्रों में सिर्फ वामपंथी, समाजवादी ही नहीं हैं, अपने आपको सेक्युलर लोकतंत्रवादी या उदार-लिबरल कहने वाले लोगों की भी अच्छी खासी संख्या है। एक बड़े मीडिया संस्थान के बेहद कामयाब, लोकप्रिय और लिबरल खेमे से सम्बद्ध पत्रकार के बारे में मैं यह सुनकर हैरत में रह गया कि किसी ने उनकी तनिक भी आलोचना कर दी या किसी मुद्दे पर उनसे असहमति जता दी तो वह उस व्यक्ति के प्रति अपना व्यवहार और विचार बदल देते हैं। असहिष्णुता के खिलाफ अपने संस्थान, कार्यक्रमों या लेखों के जरिये बड़ा अभियान चलाने वाले इस सेलिब्रेटी संपादक को सिर्फ ‘एक ही तरह के लोग’ पसंद हैं। ‘एक ही तरह’ यानी उच्चवर्णीय-पृष्ठभूमि के लोग या फिर दलित-पिछड़े वर्ग का कोई भक्त-नुमा प्रशंसक। मुझे लगता है, ऐसी प्रवृत्तियां उन लोगों में ज्यादा प्रभावी दिखती हैं, जो बुनियादी तौर पर ‘करियरवादी’ होते हैं और जिन्हें ज्यादा संघर्ष के बगैर ही बड़ी कामयाबी मिल जाती है।

गैर-सेलिब्रेटी किस्म के गंभीर लोगों में भी ऐसी प्रवृत्तियां दिखती हैं। यहां तक कि गैर-कुलीन सबाल्टर्न समूह के अनेक लोगों में भी यह काफी प्रभावी दिखती हैं। किसी विषय या व्यक्ति पर तनिक सी असहमति हुई नहीं कि वे किसी के बारे में अपना पूरा मूल्यांकन मिनटों में बदल देते हैं। उस व्यक्ति या संस्था के अन्य सारे पहलू नज़रंदाज़ कर दिये जाते हैं। ऐसे लोग हमेशा कठोर फैसले देने की मुद्रा में रहते हैं। सोशल मीडिया ने इन्हें मुद्रा-प्रदर्शन का दायरा भी दे दिया है। ऐसे लोगों को लगता है कि इससे उनकी क्रांतिकारिता की चमक बनी रहेगी।  किसी व्यक्ति, संस्था या समाज को देखने और समझने के ऐसे नज़रिये मुझे सही नहीं लगते। ऊपर जिन कुछ प्रवृत्तियों और उनके लक्षणों की चर्चा मैंने की है, वे अलग-अलग रूप और रंग में भी मिलेंगे। मैंने तो मोटे तौर पर कुछ प्रवृत्तियों और लक्षणों को रेखांकित करने की कोशिश की है।  

मुझे लगता है, किसी व्यक्ति या संस्था का मूल्यांकन उसकी संपूर्णता में होना चाहिए। पत्रकार हों या संपादक, विचारक हों या प्रसारक, एंकर हों या लेखक, मार्क्सवादी हों या अम्बेडकरवादी, लोहियावादी हों या गांधीवादी, अध्यात्मवादी हों या धर्मवादी, समतावादी हों या बहुजनवादी; आप जो भी हों, क्या इस दुनिया में अपने-अपने विचार के लोगों के अलावा किसी में कुछ भी सुंदर, सकारात्मक या अनुकरणीय नहीं देखते? लोगों के नकारात्मक पक्षों के साथ कुछ सकारात्मक दिखते हैं तो उनका क्या बिल्कुल ही उल्लेख नहीं होगा?  अगर नहीं तो यक़ीनन आप ‘रोबोट’ बनते जा रहे हैं! अगर कोई इतनी बड़ी दुनिया में अपने खास पसंदीदा दायरे के अलावा हर जगह (फासिस्टों, निरंकुश तत्वों या कट्टरपंथी उग्रवादिय़ों जैसे कुछ बहुत बुरे अपवादों को छोड़कर) सिर्फ और सिर्फ नकारात्मकता ही देखता है तो यकीनन उसका नज़रिया बहुत तंग है। किसी व्यक्ति या संस्था के बारे में उसका मूल्यांकन यांत्रिक होने के लिए अभिशप्त है। बेशक, आप किसी की आलोचना कीजिये पर उसमें कुछ सकारात्मक है या रहा है तो उसे भी बताइये। बहुत सारी चीजें जो आपको पसंद नहीं हैं, उनमें भी कई दफा आकर्षण के कुछ पहलू नजर आ जाते हैं।

किसी और का नहीं, स्वयं अपना ही उदाहरण देकर कहूँ तो ठीक रहेगा। आज की दुनिया में मुझे धर्म नामक संस्था पसंद नहीं। यह मेरी निजी धारणा है। पर मुझे भारत जैसे देश में अगर अपने लिए किसी धर्म का चयन करना होता तो मैं सिख धर्म को चुनता। इससे एक बात साफ है कि अधार्मिक क़िस्म का होने के बावजूद मेरे अंदर सिख धर्म के प्रति एक आकर्षण है या प्रेम है। क्यों है, वो अलग विषय है। लेकिन हिन्दुओं, बौद्धों, मुसलमानों और ईसाइयों के धर्म के कुछ पहलू भी मुझे कभी-कभी आकर्षित करते हैं। कई इलाकों में पुराने मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों और गोपाओं के स्थापत्य मुझे मुग्ध कर देते हैं। पर किसी भी धर्म का कर्मकांडी स्वरूप मुझे कुरूप लगता है।

दुनिया के जिन कुछ बड़े विचारकों को मैंने अब तक पढ़ा है, उनकी कुछ स्थापनाएं या विचार अगर मुझे जंचते हैं तो कुछ से असहमति भी होती है। जिनके ज्यादातर विचारों से मैं प्रभावित हुआ या जिन्होंने मुझे जीवन और समाज को समझने का रास्ता दिखाया, वे मेरे पसंदीदा विचारक हैं, हमारे नायक हैं। पर इसका ये मतलब नहीं कि दुनिया के कुछ अन्य ऐसे प्रतिभाशाली विचारकों को मैं पढूं ही नहीं या उन्हें सिरे से खारिज कर दूं, जो मेरे पसंदीदा विचारकों से कई या कुछ मामलों को लेकर असहमत थे या उनकी आलोचना करते थे। यह तो अज़ीब क़िस्म का ‘ब्राह्मणवाद’ हुआ कि जिससे आपकी तनिक भी असहमति हो, उसे ख़ारिज करो या बदनाम करो या ध्वस्त करो!

एक और उदाहरण देकर अपनी बात रखने की कोशिश करता हूं: आज भारत के मुख्यधारा मीडिया का बड़ा हिस्सा ‘सर्व-सत्तावादियों’ के नक्शेकदम या उनकी इच्छा से संचालित हो रहा है। पर इसके लिए मीडिया संस्थानों में काम करने वाले हर पत्रकार को हम ख़ारिज नहीं कर सकते। आज के मीडिया का यह ‘सर्व-समर्पण’ उसके मालिकों या संचालकों के चलते है, आम पत्रकारों के चलते नहीं। कुछ कथित संपादक, एंकर महा-एंकर या एंकरनियां जो बढ़-चढ़ कर जनता और समाज़ के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करते दिखते हैं, दरअसल उसमें भी तीन तरह के लोग हैं।

एक वे जो हाल के दिनों में कुख्यात हुए कई बड़े अफ़सरों की तरह ‘सत्ताधारियों के प्रतिबद्ध मीडिया-कार्यकर्ता’ बन गये हैं या पहले से ही ऐसा होने के चलते वे इन भूमिकाओं में नियुक्त किये गये हैं। दूसरे वे हैं, जो मजबूरीवश, नौकरी के लिए ऐसा करते हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो अनेक संपादकों, एंकरों और पत्रकारों की तरह वे भी बाहर कर दिये जायेंगे। तीसरे, वे हैं, जिनका इससे निहित स्वार्थ पूरा हो रहा है। दूसरी श्रेणी वाले पत्रकारों या संपादकों के साथ मेरा वही रवैया नहीं हो सकता जो ‘सत्ताधारियो के कार्यकर्ता’ बन चुके कथित संपादकों, एंकरों या एकरनियों के साथ होता है। मेरा मानना है कि मुख्यधारा मीडिया में आज भी अनेक अच्छे प्रोफेशनल हैं, अपनी खूबियों और कमियों के साथ। मीडिया की आजादी बहाल होने पर वे अच्छा काम करके दिखा देंगे।

इसी तरह समाज और विचार के दायरे को भी देखा जाना चाहिए। अगर आप समतावादी हैं, बहुजनवादी हैं, क्रांतिकारी हैं या बदलाववादी हैं तो यह बहुत बड़ी बात है पर आप समाज में दूसरों को इसलिए ख़ारिज मत करिये कि वे अब तक आपकी तरह क्यों नहीं बने या आपकी तरह क्यों नहीं सोचते? थोड़ा आत्मावलोकन भी कीजिए। कहीं यह आप या आपके वैचारिक समूहों की विफलता तो नहीं कि समाज के बड़े हिस्से तक आपने अपने विचारों को फैलाया ही नहीं, लोगों को समझाया ही नहीं, बस लोगों को ख़ारिज करते रहे! कुछ लोग बेवजह उत्तेजक बोल या लिखकर बदलाव की राजनीति को मजबूत बनाने की बात सोचते हैं। सोशल मीडिया में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे। सामाजिक जीवन में भी कम उदाहरण नहीं हैं। अभी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पिता और बहुजनवादी कार्यकर्ता नंद कुमार बघेल की गिरफ्तारी को लेकर काफी चर्चा है। तमाम बहुजनवादियों ने इसकी आलोचना की है। मुझे भी 86 वर्षीय सीनियर बघेल की गिरफ्तारी का कोई औचित्य नहीं नजर आता। उन्होंने विवादास्पद बयान यूपी में दिया, वहां ऐसा कुछ नहीं हुआ।

वहां होता तो समझा जा सकता था। पर यह सब छत्तीसगढ़ में हुआ जहां जूनियर बघेल की सरकार है। निश्चय ही इसके पीछे कोई ‘राजनीतिक पहलू’ होगा। निजी तौर पर मैं सीनियर बघेल की गिरफ्तारी को अनुचित और बेमतलब मानते हुए भी उनके विवादास्पद बयान से सहमत नहीं हूं। अगर उन्होंने ब्राह्मणवाद या ब्राह्मणवादी मूल्य़ों की जमकर आलोचना की होती तो मैं उस बयान का स्वागत करता पर ब्राह्मण जाति या वर्ण के लोगों को दुनिया के किसी अन्य भूखंड में भेजने वाली बात असंगत और अविवेकपूर्ण है। लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री यानी जूनियर बघेल अपने राज्य में तुलसी-कृत रामचरितमानस का गायन करने वालों को सरकारी स्तर पर लाखों का सम्मान देते रहते हैं। उनसे जरूर पूछा जाना चाहिए कि ‘ढोल-गंवार-शूद्र-पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी—‘ का सस्वर गायन करने वालों को सरकारी सम्मान देने का क्या औचित्य है? क्या यह कानून और संवैधानिकता का निषेध नहीं है? क्या इस तरह की पंक्तियों का प्रचार उसी 153-ए और 505-1 जैसी धाराओं के दायरे में नहीं आता, जो सीनियर बघेल के विरूद्ध लगाई गई हैं ?

ऐसे तमाम निजी और शासकीय विचारों और धारणाओं से तो यही लगता है कि हम बनते हुए ऐसे लोकतंत्र हैं, जो पूरी तरह बनने से पहले ही बुरी तरह बिगड़ना शुरू हो चुका है। इसलिए व्यक्ति, समाज और संस्थाओं को आज ज्यादा संजीदा होकर इन चुनौतियों को समझने की जरूरत है। सच जरूर कहिये, उस पर कोई समझौता नहीं। पर आपकी कही सच्ची बात अगर कोई नहीं समझता तो उसके साथ संवाद की जरूरत है। बात-बात में कठोर फैसले देने या लोगों को खारिज करने से न व्यक्ति बदलेगा और न समाज!

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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