पश्चिम बंगाल की विख्यात जादवपुर यूनिवर्सिटी में हाल ही में एक छात्र ने कथित रूप से रैगिंग से परेशान होकर खुदकुशी कर ली। यह खबर बहुत उद्वेलित और दुखी करने वाली है। कई सवाल भी उठाती हैं ऐसी घटनाएं। स्कूली जीवन बिताने के बाद अचानक किसी दूसरे संस्थान और अक्सर किसी दूसरे शहर में जाकर नया जीवन शुरू करने का विचार अपने साथ कई तरह की चिंताएं और तनाव भी लाता है। बच्चों के लिए और उनके माता-पिता के लिए भी। ऐसे में रैगिंग की फिक्र बच्चों की मानसिक स्थिति को और अधिक बिगाड़ कर रख देती है।
कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के रतलाम से एक मेडिकल कॉलेज का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें दिखाया गया था कि कई नए बच्चे दीवार की तरफ पीठ करके खड़े थे और उनके सीनियर उन्हें चटाक-चटाक तमाचे जड़ रहे थे। बाद में इस घटना में शामिल सात सीनियर बच्चों को निलंबित कर दिया गया। इस तरह की कई घटनाएं हर वर्ष नए अकादमिक सत्र की शुरुआत में होती है। कुछ तो सिर्फ हल्के-फुल्के मज़ाक का रूप लेती हैं और कुछ बहुत क्रूर होती हैं। अलग-अलग बच्चों पर इनका अलग असर पड़ता है। जो बहुत संवेदनशील होते हैं, उनका हश्र वैसा ही होता है जैसा जादवपुर में पढने वाले बच्चे का हुआ।
आत्मसम्मान पर चोट करता है रैगिंग
रैगिंग की शुरुआत कभी एक मजाक के तौर पर ही हुई थी, पर आगे चल कर इसने ऐसा भयावह रूप ले लिया है कि अब तो यह कई तरह के मनोरोगों की अभिव्यक्ति के रूप में भी देखी जाती है। हालात ऐसे बन चुके हैं कि इसे एक आपराधिक गतिविधि की श्रेणी में रख दिया गया है और इसके खिलाफ कानून भी बना दिए गए हैं। कई बच्चों के लिए यह भयंकर शारीरिक और मानसिक शोषण और पीड़ा का कारण हो चुकी है जिसका असर उनके समूचे जीवन और करियर पर पड़ता है।
जादवपुर यूनिवर्सिटी की घटना से रैगिंग के कई भद्दे और भयावह पहलू सामने आये हैं। वहां के कुछ छात्रों ने बताया है कि सीनियर छात्र जूनियर्स के लिए भद्दे, अपमानजनक और जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। एक छात्र जो सिक्किम के किसी आदिवासी समुदाय का है, उसने बताया कि सीनियर्स उसे निचली जाति का बताते हैं। एक अन्य छात्र ने बताया कि सीनियर छात्र जूनियर बच्चों से अपने टॉयलेट साफ़ करवाते हैं।
मूल रूप से रैगिंग एक ऐसी हरकत है जिससे किसी छात्र या छात्रा की गरिमा और आत्म-सम्मान को चोट पहुंचती है। किसी नए छात्र के स्वागत के नाम पर उसकी रैगिंग की जाती है। लेकिन अधिकांश मामलों में यह ‘स्वागत’ ऐसा होता है कि छात्र लंबे समय तक इसकी दुखदायी स्मृति से बाहर ही नहीं निकल पाता। इस तरह के क्रूर और अभद्र स्वागत के कारण कुछ छात्र तो अपनी विदाई की तैयारी कर लेते हैं, जैसा कि जादवपुर यूनिवर्सिटी में हुआ।
2017 में हुए एक सर्वे से पता चलता है कि चालीस फीसदी के आस-पास भारतीय छात्रों को उनके नए संस्थानों में रैगिंग के नाम पर परेशान किया गया और हड़काया गया। इस तरह की सबसे अधिक घटनाएं मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में हुई। गौरतलब है कि इतनी अधिक घटनाएं रैगिंग के खिलाफ सख़्त कानून बनने के बावजूद हुईं।
1980 के दशक तक नहीं होता था उच्च संस्थानों में रैगिंग
कई चीज़ों की तरह हमारे समय में रैगिंग भी नहीं थी। 1980 के दशक में जब हम कॉलेज में थे तो वहां सिर्फ पढ़ाई होती थी, और चोरी छिपे, अव्यक्त प्रेम होता था, जिसकी अभिव्यक्तियां अक्सर अकेले में मन के कोने में ही दबी पड़ी रह जाती थीं। पर रैगिंग है बड़ी पुरानी बीमारी। यह देश की आजादी से पहले भी होती थी, पर सिर्फ अंग्रेजी माध्यम के और सेना के कॉलेज में। आम तौर पर इसे सिर्फ मज़ाक के तौर पर लिया जाता था। मज़ाक में भी शालीनता होती थी, संवेदनशीलता होती थी।
1980 के दशक में रैगिंग की घटनाएं बढ़ती गईं, और छात्रों में हिंसक प्रवित्तियों के रूप में भी व्यक्त होने लगीं। नब्बे के दशक में यह अपने चरम पर पहुंच गई। उन दिनों दक्षिण भारत में इसके बहुत बुरे प्रभाव देखने में आये और कई छात्रों ने वहां खुदकुशी भी कर ली। आंकड़े बताते हैं कि सबसे अधिक रैगिंग के मामले 1997 में तमिलनाडु में देखे गए। इसकी गंभीरता को देखते हुए तमिलनाडु ही ऐसा पहला राज्य बना जहां रैगिंग पर रोक लगी।
कब और कहां से हुई रैगिंग की शुरुआत
रैगिंग की शुरुआत यूनान में हुई थी। खिलाड़ियों को प्रोत्साहित या अपमानित करने के लिए, दूसरे खिलाडियों से उनकी तुलना करने के लिए उनकी रैगिंग की जाती थी। इस उम्मीद से कि वह बेहतर प्रदर्शन करेंगे। बाद में सेना में भी यह शुरू हो गई। वास्तव में एक तरह का पॉवर गेम है रैगिंग। बड़े बच्चों को अपने से छोटे बच्चों पर नियंत्रण का अहसास दिलाता है। जो रैगिंग करते हैं, वह भी कहीं न कहीं पीड़ित होते हैं-हीन भावना से, शक्तिहीन होने के वास्तविक या काल्पनिक भाव से। दूसरों को पीड़ित करके, उन्हें सता कर वे इस भाव से मुक्ति पाते हैं, भले ही यह मुक्ति कितनी भी क्षणिक क्यों न हो। ज़माने से पीड़ा पाकर वे स्वयं ही परपीड़क बन जाते हैं। उन्हें कमज़ोर और अपर्याप्त महसूस करवाया जाता है और इसलिए वे दूसरों को भी ऐसा ही महसूस करवाना चाहते हैं।
रैगिंग करने वाले अपनी रूह पर कई ज़ख्म ढो रहे होते हैं, और चूंकि उन्हें इन ज़ख्मों पर मरहम लगाना नहीं सिखाया गया, इसलिए वे सोचते हैं कि दूसरों को भी ऐसे ही ज़ख्म दे दिए जाएं। जब पीड़ित छात्र तकलीफ महसूस करता है तो उन्हें गर्व और आनंद का अनुभव होता है। पर ये कारण और यह विश्लेषण रैगिंग करने वालों के व्यवहार को कहीं से भी उचित नहीं ठहराता। यह उनकी रुग्णता है। रुग्णता के बगैर कोई किसी को सता नहीं सकता; परपीड़क नहीं बन सकता।
रैगिंग से अमेरिका में हुई थी पहली मौत
रैगिंग से पहली मौत अमेरिका में हुई थी। न्यूयॉर्क सिटी में 1873 में यह घटना हुई। एक छात्र ने रैगिंग से परेशान होकर कॉर्नेल यूनिवर्सिटी की इमारत से छलांग लगा दी और उसकी मौत हो गई।
बदला लेने की भावना भी रैगिंग के लिए जिम्मेदार होती है। रैगिंग करने वाले छात्र इसलिए दूसरों को सताते हैं क्योंकि अतीत में उनके साथ भी ऐसा ही हो चुका है। पर यह भी गलत है और इसका कोई औचित्य नहीं। यह एक अंतहीन चक्र है। जिनके साथ रैगिंग होती है, उनमें भी बदले की भावना पनपने लगती है। फिर वे नए छात्रों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। इस दुष्चक्र को कहीं न कहीं रोकना जरूरी है। एक तरह रैगिंग एक फैशन भी बन गई है। दूसरे छात्रों को देख कर और कॉलेज की ‘परंपरा’ के पालन के नाम पर भी रैगिंग की जाती है। यह भी पूरी तरह गलत है।
रैगिंग पर सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में लगाई है रोक
2011 में सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में रैगिंग पर रोक लगा दी। 2009 में धर्मशाला के मेडिकल कॉलेज में एक छात्र की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्येक शिक्षण संस्थान में रैगिंग पर लगी रोक को सख्ती के साथ मानने के लिए निर्देश दिए। यदि कोई छात्र इसका दोषी पाया जाता है तो उसे तीन साल की सजा और जुर्माना हो सकता है। जो शिक्षण संस्थान इस कानून का पालन नहीं करते, उनके खिलाफ भी कार्रवाई का प्रावधान है।
यूजीसी ने भी रैगिंग पर बनाए हैं सख्त नियम
यूजीसी ने भी छात्रों के व्यवहार को लेकर सख्त नियम बनाए हैं। इनके अनुसार यदि कोई छात्र किसी अन्य छात्र के बारे में कोई टिप्पणी करता है, उसके आत्मसम्मान को आहत करता है तो इसे रैगिंग माना जायेगा। यदि कोई छात्र दूसरे छात्र की क्षेत्रीयता, भाषा, नस्ल या जाति वगैरह के आधार पर अपमानित किया जाता है तो यह भी रैगिंग की श्रेणी में आएगा। यदि छात्र को जबरन कोई काम करवाया जाए तो उसे भी रैगिंग ही कहा जायेगा। आल इंडिया कौंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन और मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया ने भी रैगिंग को लेकर अपने नियम बनाये हैं। नियम और कानून तो हर क्षेत्र में हैं। जरूरत इस बात की है कि उन्हें समझा जाए, समझाया जाए, और सही समय पर, सही स्थान पर, सही तरीके से लागू किया जाए। बस इसी में हम पिछड़ जाते हैं। यही हमारी बीमारी है, और यहीं पर सही इलाज की दरकार है।
(चैतन्य नागर स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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