Sunday, April 28, 2024

महिला आरक्षण पर मैंडेट के दायरे से बाहर काम कर रही है मोदी सरकार

पीएम मोदी ने न केवल सरकार का बल्कि संसद का भी मजाक बना दिया है। क्या किसी सरकार को कोई ऐसा कानून पारित करने का हक है जिसको वह अपने कार्यकाल में लागू न कर सके? और अगर आप लागू नहीं कर सकते हैं तो आप उसे पारित क्यों कर रहे हैं? भारतीय लोकतंत्र और चुनावी व्यवस्था के तहत किसी भी सरकार का मैंडेट केवल पांच साल का होता है। यानि जनता किसी सरकार को उन पांच सालों में अपनी नीतियों और कानूनों को बनाने और उन्हें लागू करने का हक देती है। और वह हक भी इतना स्वच्छंद नहीं होता है कि सरकार जो भी चाहे वह कानून बना सकती है। वह सब कुछ भी संवैधानिक व्यवस्था के दायरे में होता है और आखिर में सुप्रीम कोर्ट उसकी जांच-परख करता है कि वह संवैधानिक कसौटियों पर कितना खरा उतर रहा है। 

लेकिन यह क्या, मोदी जी यहां एक ऐसा कानून ला रहे हैं जिसके लागू होने की न्यूनतम मियाद अगला दस साल है और उसके बाद भी वह लागू हो पाएगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। इंडिया एलायंस की बढ़त से घबराए पीएम मोदी ने जब अचानक संसद के विशेष सत्र को बुलाने का ऐलान किया और सरकार ने उसका कोई एजेंडा भी नहीं बताया तभी से कयासों का बाजार गर्म हो गया था। और लोग ‘एक देश, एक चुनाव’ से लेकर तमाम मुद्दों पर संसद से कानून पारित करने की आशंकाएं जाहिर करने लगे थे।

सत्र शुरू होने के दिन शाम को हुई कैबिनेट की बैठक में जब महिला आरक्षण बिल का एजेंडा सामने आया तो भी लोगों को लगा कि सरकार कुछ बड़ा करने जा रही है और जनता के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने की उसने रणनीति बना ली है। लेकिन ये क्या? जब ड्राफ्ट सामने आया तो पता चला कि यह कानून भले संसद से पारित हो जाए लेकिन इसके लागू होने की कोई तिथि नहीं है। अब कोई पूछ सकता है कि भला ऐसे अनडेटेड ब्लैंक ड्राफ्ट को लेकर कोई क्या करेगा? उसके लिए वह कागज के एक टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं है।

उसकी शर्तें ये हैं कि पहले जनगणना होगी और फिर उसके बाद परिसीमन होगा तब यह कानून लागू हो पाएगा। अब रही जनगणना की बात तो यह 2021 में होनी थी। चलिए कोविड था उसके चलते कुछ देरी हो सकती थी। लेकिन अब जबकि 2023 आ गया है और इस पर सरकार की तरफ से कोई जुंबिश नहीं हो रही है तो यह मान लिया गया है कि अब चुनाव से पहले कत्तई यह हो पाना संभव नहीं है। ऐसे में जनगणना कराने की जो जिम्मेदारी इस सरकार की थी उसको उसने निभाया नहीं।

जबकि तमाम विकसित देश इसी कोविड के बीच अपने यहां जनगणना कराए हैं। और यहां भी जब कोविड के दौरान चुनाव हो सकता था तो उस दौरान न सही उसके बाद तो यह ज़रूर संभव था लेकिन दरअसल सरकार की नीयत में ही खोट है। और देश और व्यवस्था में वह कोई ऐसा अथेंटिक आंकड़ा नहीं चाहती है जिसके जरिये देश और समाज की तथ्यात्मक सच्चाई सामने आ जाए। इससे सरकार को चीजों को मैनीपुलेट करने में दिक्कत होती है। लिहाजा वह किसी भी तरह के तथ्यात्मक आंकड़े से परहेज करती है। एनसीआरबी से लेकर तमाम क्षेत्रों में होने वाली रूटीन की कवायदों को इसने रोक दिया है।

और वैसे भी अगर सरकार को लगता है कि देश में एक तिहाई हिस्सेदारी महिलाओं की बनती है। तो उसके लिए किसी जनगणना और परिसीमन के इंतजार की भला क्या जरूरत है? कल लोकसभा में जब राहुल गांधी ने इस कानून को तत्काल लागू करने की मांग की तो उन्होंने क्या गलत कहा या फिर दूसरे राजनीतिक दल और उसके नेता ऐसा कह रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं? लेकिन सरकार की मंशा साफ हो तब न?

एक ऐसी सरकार जिसके काल में महिलाओं का सिर्फ और सिर्फ उत्पीड़न हुआ हो और सशक्तिकरण की बात तो दूर वो बलात्कार और हर तरह के हमले का शिकार बनीं हों। और ऐसा करने वाले कोई और नहीं बल्कि सत्ता से सीधे जुड़े लोग हों। जिसमें बृजभूषण शरण सिंह से लेकर चिन्मयानंद और सेंगर से लेकर राम-रहीम जैसे तमाम नाम गिनाए जा सकते हैं। तब महिलाओं के प्रति इस सरकार के रुख को समझना किसी के लिए मुश्किल नहीं है। 

बीजेपी-संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत को एक नहीं दसियों बार सार्वजनिक तौर पर यह कहते सुना गया है कि महिलाओं की जगह घर का किचेन और पति की सेवा है और उन्हें परिवार संभालने में ही अपना भविष्य देखना चाहिए। संघ और बीजेपी के रिश्तों को लेकर अभी भी किसी के भीतर कोई भ्रम हो तो उसके लिए क्या किया जा सकता है। लेकिन अब यह बात दिन के उजाले की तरह साफ हो गयी है कि बीजेपी का वैचारिक नेतृत्व संघ करता है। और बीजेपी संघ के लक्ष्य को हासिल करने का महज एक जरिया भर है। उससे ज्यादा कुछ नहीं।

अनायास नहीं एक दौर में गुरु गोलवलकर ने कहा था कि जनसंघ संघ की एक पुंगी है और जब यह संघ के इशारे पर बजना बंद कर देगा उसे तोड़ कर फेंक देंगे। और मोदी या फिर बीजेपी की कोई सरकार संघ के किसी वैचारिक दायरे से बहुत दूर नहीं जा सकती है। इस देश में संघ जैसा समाज निर्मित करना चाहता है बीजेपी की सरकारें उसकी मददगार बनें यही कुनबे का पितृ संगठन चाहता है। 

ऐसे में महिलाओं के सशक्तिकरण की बात बीजेपी-संघ के लिए केवल किसी दु:स्वप्न से कम नहीं है। अनायास नहीं संघ के भीतर महिलाओं का कोई प्रवेश नहीं है। संघ की मुख्य शाखा और बॉडी में उनका प्रवेश वर्जित है। संघ के लिए धार्मिक यात्रा में कलश ढोने से ज्यादा उनकी दूसरी भूमिका नहीं है। ऐसे में कोई बीजेपी की सरकार आएगी और वह महिलाओं को अपने बराबर खड़ा कर लेगी और इस तरह से 33 फीसदी और 50 फीसदी आरक्षण दे देगी यह सिर्फ एक सपना ही हो सकता है। 

उल्टे सच्चाई यह है कि मोदी सरकार ने घर से बाहर कामकाज के लिए निकली महिलाओं की बड़ी संख्या को फिर से घरों की ओर लौटा दिया है। कोरोना के बाद मजदूर और महिलाएं दोनों इसके शिकार हुए। बताया जा रहा है कि महिलाओं की एक बड़ी संख्या हमेशा के लिए काम से बाहर हो गयी है। 

और यह सरकार यही चाहती है। लेकिन इस सरकार को भी ज़रूर यह समझना होगा कि देश की सर्वोच्च संवैधानिक और राजनैतिक संस्थाओं में अगर महिलाओं की गुणवत्तापरक और उच्च स्तरीय भागीदारी वह सुनिश्चित करना चाहती है तो उसके लिए सबसे पहले उसे समाज में इस तरह की पौध तैयार करनी होगी। लेकिन क्या सरकार इसके लिए तैयार है? देखने में सामने आ रहा है कि सभी जगहों से महिलाओं को काटा जा रहा है और उनकी भूमिका सीमित की जा रही है।

यह पूरा मामला 2014 के चुनाव से पहले 15 लाख रुपये लोगों की जेब में डालने के जुमले सरीखा है। इस बात में कोई शक नहीं कि उस बार कुछ लोग फंस गए थे। लेकिन क्या 15 लाख रुपये मिले? और जब इस पर सवाल पूछा गया तो गृहमंत्री शाह का जवाब था कि ये तो जुमला था और जनता भी जानती है कि इस तरह के जुमलों को पूरा नहीं किया जाता है। मोदी सरकार द्वारा संसद से पारित कराया जा रहा महिला आरक्षण बिल भी महज एक जुमला है जिसकी कोई मियाद नहीं है। और हां इसके बहाने मोदी जी अगले चुनाव में वोट हासिल करने की जुगत में ज़रूर हैं। लेकिन कहते हैं कि दूध से जलने वाला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। लिहाजा तमाम जुमलों में पहले ही फंसे मतदाता फिर से मोदी जी के किसी नये जुमले में फंसेंगे इसकी संभावना बहुत कम है।

हां एक बात यहां कहना बहुत जरूरी है। अभी तक महिलाओं की राजनीति में भागीदारी पुरुषों की दया पर निर्भर रही है। और पूरी भूमिका पति प्रधानों से आगे नहीं बढ़ पायी है। लेकिन समय के साथ यह सिलसिला टूटा है। और अब समाज में महिलाओं का एक हिस्सा ऐसा है जो शीर्ष स्तर पर राजनीतिक कमान लेने के लिए तैयार हो गया है। और महिला बिल अगर भागीदारी की कमी को पूरा करने के लिए लाया गया है और समाज के हर हिस्से की हिस्सेदारी हो यह उसकी बुनियादी शर्त बन जाती है।

इस नजरिये से कोटे में कोटा का जो सवाल है वह प्रमुख प्रश्न बन जाता है। और अच्छी बात यह है कि इस मामले में अब महज सामाजिक न्याय की पार्टियां सपा, बसपा, आरजेडी और जेडीयू ही नहीं बल्कि कांग्रेस भी शामिल हो गयी है। हालांकि लेफ्ट की तरफ से अभी तक इस पर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है लेकिन जिस तरह से सामाजिक न्याय और लोगों की भागीदारी के प्रति उनका सकारात्मक नजरिया रहा है उम्मीद की जानी चाहिए कि वो भी बहुत जल्दी इस प्रश्न पर अपना नजरिया स्पष्ट कर देंगे।   

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)

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