Sunday, April 28, 2024

जी-20: पश्चिम के पराभव का गवाह बनी नई दिल्ली

नई दिल्ली। शिखर सम्मेलन शुरू होने से ठीक पहले इसी मंच पर इस स्तंभकार ने यह सवाल उठाया था कि क्या नई दिल्ली जी-20 के पराभव की गवाह बनेगी? यह प्रश्न अभी भी अपनी जगह प्रासंगिक है, लेकिन नई दिल्ली में असल में जो कहानी खुल कर सामने आई, वह पश्चिम के पराभव की है। नई दिल्ली में जी-20 के मंच पर देखने को मिला कि दुनिया पर पश्चिम की पकड़ किस हद तक ढीली पड़ चुकी है।

सम्मेलन का साझा घोषणा-पत्र जारी होने के बाद एक रिपोर्ट में बीबीसी ने विश्लेषकों के हवाले से कहा: जी-20 में आर्थिक संतुलन और शक्ति का गतिशास्त्र बदल रहे हैं। यह संतुलन अब पश्चिम के विकसित देशों से दूर होते हुए उभरती अर्थव्यवस्था वाले- खासकर एशियाई- देशों की तरफ झुकता जा रहा है।

इसी विश्लेषण में बीबीसी ने कहा: बहुत कम लोगों को इस वर्ष के जी-20 शिखर सम्मेलन में साझा घोषणा-पत्र जारी होने की अपेक्षा थी- पहले ही दिन जारी हो जाने की तो बिल्कुल संभावना नहीं थी। पिछले साल यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से यह समूह बुरी तरह बंटा हुआ है। ना तो रूस के व्लादिमीर पुतिन और ना ही चीन के शी जिनपिंग नई दिल्ली आए- दोनों ने अपने से निचले दर्जे के अधिकारियों को वहां भेजा।

इसीलिए सम्मेलन शुरू होने के कुछ घंटों के बाद ही जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलान किया कि साझा वक्तव्य में यूक्रेन से संबंधित हिस्से पर आम सहमति बन गई है, तो इस पर सबको हैरत हुई। पिछले साल के शिखर सम्मेलन में हुई रूस की प्रत्यक्ष आलोचना को इस बार के साझा बयान में काफी नरम बना दिया गया है।

नई दिल्ली आए रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने साझा घोषणा-पत्र को एक ‘मील का पत्थर’ बताया। उन्होंने कहाः ‘सच कहूं तो हमें इसकी अपेक्षा नहीं थी। हमारे सामने तैयारी घोषणा-पत्र में अपने शब्दों की रक्षा की थी। (लेकिन यह साफ हो गया है कि) ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) को अब लेक्चर नहीं दिया जा सकता।’

रूस के समाचार माध्यम Russia Today ने अपनी रिपोर्ट में कहाः यह संभावना तो हमेशा से थी कि घोषणा-पत्र में यूक्रेन के मुद्दे पर दो टूक शब्दों में किसी का पक्ष नहीं लिया जाएगा। विभिन्न सदस्यों के बीच मतभेद के साथ-साथ इस मुद्दे पर मेजबान भारत के तटस्थ रुख के कारण ऐसा होने का अनुमान था। यूक्रेन से संबंधित पैराग्राफ को सबसे आखिर में अंतिम रूप दिया गया। घोषणा-पत्र में कहा गया कि सभी देशों को इलाकाई कब्जे के लिए ताकत का इस्तेमाल करने या ऐसा करने की धमकी देने से बचना होगा। किसी देश की प्रादेशिक अखंडता और संप्रभुता या राजनीतिक स्वतंत्रता का हरण करना या परमाणु हथियारों का इस्तेमाल या इनके इस्तेमाल की धमकी देना अस्वीकार्य है।

Russia Today ने कहाः रूस और यूक्रेन दोनों का एक दूसरे के इलाकों पर दावा है। इसलिए घोषणा-पत्र में इस्तेमाल हुए उपरोक्त शब्द रूस के अनुकूल हैं। यह ऐसी शब्दावली है, जो रूसी विदेश मंत्री लावरोव और पश्चिमी नेता दोनों को स्वीकार्य हुआ।

बात यहीं तक नहीं रही। साझा घोषणा-पत्र में यह बात दो टूक ढंग से कही गई कि जी-20 असल में आर्थिक मामलों का मंच है, जिसे भू-राजनीतिक मसलों से प्रभावित नहीं होने दिया जाना चाहिए। यह चीन का रुख रहा है। यह बात ना सिर्फ स्वीकार की गई, बल्कि जारी हुए घोषणा-पत्र में इसकी झलक भी देखने को मिली।

जबकि शिखर सम्मेलन से पहले तक पश्चिमी देशों का रुख इतना सख्त था कि वे ‘यूक्रेन पर हमला करने के लिए’ रूस की साफ शब्दों में निंदा को घोषणा-पत्र में शामिल करवाने पर अड़े हुए थे। उनकी इसी जिद के कारण शिखर सम्मेलन से पहले भारत में हुई जी-20 देशों की विदेश, वित्त, पर्यावरण मंत्रियों सहित कई अन्य बैठकों में कोई साझा बयान जारी नहीं हो सका था।

नई दिल्ली घोषणा-पत्र पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए चीन ने कहा: जी-20 का घोषणा-पत्र राय-मशविरे का परिणाम है। इसमें सभी सदस्य देशों की समझ की झलक देखने को मिलती है। नई दिल्ली शिखर सम्मेलन ने इस बात की फिर पुष्टि की है कि जी-20 मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग का मंच है, यह भू-राजनीतिक या सुरक्षा संबंधी मुद्दों को हल करने का मंच नहीं है।

चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहाः हमारी हमेशा यह राय रही है कि यूक्रेन संकट का हल शीत युद्ध की मानसिकता छोड़ने, हर संबंधित पक्ष की सुरक्षा संबंधी वैध चिंताओं को महत्त्व देने, और लेन-देन की भावना से बातचीत के जरिए राजनीतिक समाधान ढूंढने में है।

घोषणा-पत्र का बारीक विश्लेषण किया जाए, तो उसमें उपरोक्त भावनाओं की साफ झलक है। पहले पश्चिमी देश इस सोच को स्वीकार करने पर राजी नहीं थे। नतीजतन, शिखर सम्मेलन में कोई साझा घोषणा-पत्र ना जारी होने की आशंका गहराती चली गई थी। पश्चिमी देश पिछले साल इंडोनेशिया के बाली में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन की भाषा शामिल करवाने पर तुले हुए थे, वहीं रूस और चीन ने स्पष्ट कर दिया था कि वे इस बार अपने रुख में पहले जैसी नरमी नहीं दिखाएंगे। रूस और चीन अपनी बात पर अडिग रहे।

ऐसे में सिर्फ एक सूरत हो सकती थीः या तो कोई घोषणा-पत्र जारी नहीं होता और शिखर सम्मेलन को नाकाम घोषित कर दिया जाता, या फिर पश्चिमी देश झुकने को तैयार होते। अंतिम नतीजे के तौर पर पश्चिमी देश झुके। इसे संभव बना लेना बेशक भारतीय कूटनीति की बहुत बड़ी सफलता है।

बाली में जारी हुए साझा घोषणा-पत्र में साफ-साफ कहा गया था कि अनेक देशों ने यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की कड़ी निंदा की। इसके साथ जोड़ दिया गया था कि कुछ देश (खासकर रूस और चीन) इस रुख से सहमत नहीं थे। जी-7 के सदस्य पश्चिमी देशों का कहना था कि नई दिल्ली घोषणा-पत्र में कम से कम उतनी बात अवश्य शामिल होनी चाहिए, जितनी बाली में स्वीकार की गई थी। लेकिन नई दिल्ली में नौ सितंबर को जारी हुए घोषणा-पत्र में “यूक्रेन पर रूस के हमले” का जिक्र तक नहीं हुआ।

इसके बावजूद जी-7 के देशों ने घोषणा-पत्र को स्वीकार किया, तो इसे दुनिया में उनकी कमजोर पड़ती स्थिति के अलावा और किस बात का संकेत माना जा सकता है?

एक धारणा यह है कि जिस समय रूस से युद्ध में यूक्रेन के तमाम ताजा दांव फेल हो गए हैं, चीन के खिलाफ अमेरिका के टेक वॉर (टेक्नोलॉजी युद्ध) के नाकाम होने के संकेत मिल रहे हैं, और विकासशील देशों में ब्रिक्स एवं शंघाई सहयोग संगठन जैसे नए उभर रहे मंचों का आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है, खासकर अमेरिका भारत से अपनी दूरी नहीं बनाना चाहता था। नई दिल्ली शिखर सम्मेलन की सफलता के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा जोड़ रखी थी। ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने रूस की निंदा ना करने का कड़वा घूंट पी लिया। और जब एक बार अमेरिका इस पर राजी हो गया, तो उसके पिछलग्गू यूरोपीय देशों, जापान एवं ऑस्ट्रेलिया के पास कोई और चारा नहीं रह गया।

इससे पश्चिम में जो संदेश गया है, उसका दीर्घकालिक असर होगा। दरअसल, इससे पश्चिम के मनोविज्ञान पर गहरी चोट पहुंची है। तीन-चार सौ साल के उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी दौर में वहां के लोगों में आत्म श्रेष्ठता और दुनिया का शासक होने का जो भाव बैठा हुआ है, ताजा घटनाक्रम से उस पर प्रहार हुआ है। वहां अभी तक बात दुनिया में समीकरण बदलने और एक नए विश्व ढांचे के उभरने की संभावनाओं की होती थी। लेकिन नई दिल्ली इस बात का गवाह बना कि ये परिघटना किसी सुदूर भविष्य की बात नहीं है। यह इसी समय अमेरिका और उसके पिछलग्गू देशों के “शक्तिशाली” नेताओं की आंख के ठीक सामने खुल कर सामने आ रही है।

कुछ पश्चिमी विश्लेषकों ने नई दिल्ली में हुए आयोजन को बहुध्रुवीय दुनिया का पहला जी-20 शिखर सम्मेलन कहा है। अर्थशास्त्री फिलिप पिलकिंग्टन ने लिखा हैः पश्चिमी नेता घोषणा-पत्र पर दस्तखत करने के लिए इसीलिए राजी हुए, क्योंकि वे भारत को खुद से दूर नहीं करना चाहते थे। पिछले महीने छह नए देशों के ब्रिक्स में शामिल होने के बाद अब पश्चिम तेजी से बदल रही दुनिया की हकीकत के प्रति जागा है। उसे अब हालात के मुताबिक नीति अपनाने की जरूरत नजर आने लगी है। पश्चिम की नई उभर रही रणनीति में भारत का प्रमुख स्थान इसलिए बन गया है, क्योंकि भारत अपने को ग्लोबल साउथ के नेता के रूप में पेश तो करता है, लेकिन रूस-चीन के खेमे के साथ वह मजबूती से जुड़ा हुआ नहीं है।

इन नई परिस्थितियों के दबाव का असर पश्चिमी देशों के रुख में अब लगातार नजर आता है। जी-20 शिखर सम्मेलन के लिए रवाना होने से पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन विश्व बैंक के ऋण का दायरा बढ़ाने की अपील की। उन्होंने कहा कि इसके लिए रखी गई 25 बिलियन डॉलर की रकम को बढ़ा कर 100 बिलियन डॉलर कर दिया जाना चाहिए। नई दिल्ली घोषणा-पत्र में इस बात को शामिल किया गया। उसमें निम्न और मध्य आय वर्ग वाले देशों को रियायती शर्तों पर कर्ज देने का आह्वान किया गया। जाहिरा तौर पर यह न्यू डेवलपमेंट बैंक (ब्रिक्स बैंक) के एक महत्त्वपूर्ण एजेंसी और निम्न एवं मध्य आय वर्ग के देशों के लिए ऋण के वैकल्पिक स्रोत के रूप में उभरने से बने दबाव का परिणाम है।

पिछले महीने दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन ने उभर रहे नए विश्व ढांचे के ठोस रूप से दुनिया को रू-ब-रू कराया था। जी-20 के नई दिल्ली शिखर सम्मेलन पर उस नए ढांचे के साया पड़ा रहा। उस घटनाक्रम का प्रभाव इस पर नजर आया, जिसकी स्पष्ट झलक घोषणा-पत्र में देखने को मिली है।

इस शिखर सम्मेलन में यह साफ हो गया कि अब अगर जी-20 को प्रासंगिक बने रहना है, तो उसे अपनी भूमिका पुनर्परिभाषित करनी होगी। भूमंडलीकरण के प्रबंधन में उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों को भागीदारी देने के लिए बने इस मंच के सामने भूमंडलीकरण की दिशा पलट जाने के कारण अप्रसांगिक हो जाने की सख्त चुनौती खड़ी हो गई है। पश्चिमी देशों ने झुक कर फिलहाल इस मंच को बचा लिया है, लेकिन यह तात्कालिक समाधान है।

स्थायी समाधान निकलने की संभावना तब बनेगी, जब पश्चिमी ताकतें इस हकीकत को आत्मसात कर लेंगी कि अब दुनिया बदल रही है। नई उभर रही दुनिया में वे अपनी शर्तें थोपने की हैसियत में नहीं हैं। ना ही वे अब बाकी दुनिया को नैतिक उपदेश देने की हैसियत में हैं। बल्कि उन्हें अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए अपनी अर्थव्यवस्थाओं  में नई प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता विकसित करनी होगी। जिस वित्तीय पूंजीवाद के दुश्चक्र में पश्चिमी देश फंस गए हैं, उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं है। मगर बहुध्रवीय दुनिया में ऐसा करने के अलावा कोई और विकल्प भी उनके पास नहीं है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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