Sunday, April 28, 2024

आज का भारत और इमरजेंसी: एकदलीय प्रचंड बहुमत डेमोक्रेसी के लिए बड़ा ख़तरा

सन् 1975 की 25 जून को जब इमरजेंसी लागू की गई, मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए का छात्र था और हमें अगले दिन की सुबह पता चला कि देश में इमरजेंसी लागू हो गयी है। सब कुछ रातों-रात हुआ था। अचरज हुआ कि इमरजेंसी क्यों लागू की गई! जब नेताओं, विपक्षी कार्यकर्ताओं और यहां तक कि कुछ अध्यापकों और लेखकों की धड़ाधड़ गिरफ़्तारी की खबरें मिलने लगीं। तब हमें समझ में आया कि संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत जो राज्यादेश जारी हुआ है उसका क्या मतलब है! विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं के छोटे-छोटे समूहों में छिटपुट विरोध देखा गया। पर हमारे इलाक़े में जनता के बीच ज़्यादा विरोध की बात हमें कहीं नहीं दिखी।

बीच में गांव गया तो लोग हमसे ही पूछने लगे: ‘इ इमरजेंसिया का चीज ह हो?’ गांव-क़स्बे के ज़्यादातर लोगों में इमरजेंसी को लेकर कुछ समय बाद तब अकुलाहट शुरू हुई, जब नसबंदी का जबरन अभियान तेज हुआ! यह भी चर्चा होने लगी कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी ने शासन को कड़ा करने का अभियान छेड़ दिया है। विपक्षी नेता जेल में चले गये। सत्ता समर्थक नेता मैदान में थे। वे शहरों में घूमते दिखते थे। ग़ैर-सरकारी जासूसों का एक बड़ा तंत्र भी खड़ा हो गया। उनके इशारे पर गिरफ़्तारियां भी होने लगीं।

इमरजेंसी का पूरा तंत्र बेशुमार शासकीय शक्ति पाकर मदांध हो गया था। इसके असंख्य उदाहरण दिये जा सकते हैं। लेकिन हमारा मक़सद यहां ऐसे उदाहरणों की फ़ेहरिस्त देना नहीं अपितु उस सामाजिक-राजनीतिक कारण की शिनाख्त करना है, जिसके तहत शासन तंत्र अचानक इस कदर निरंकुश हो गया! आख़िर केंद्र की कांग्रेस (आर) सरकार ने ऐसा कदम क्यों उठाया?

इसके लिए उस समय की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना होगा। इमरजेंसी से तक़रीबन चार साल पहले इंदिरा गांधी ने ‘ग़रीबी हटाओ, देश बचाओ’ नारे के साथ सन् 1971 का चुनाव प्रचंड बहुमत से जीता था। उस चुनाव से पहले के कुछ वर्ष इंदिरा गांधी के शासन के बेहतरीन वर्ष रहे। बेहद जनपक्षीय और लोकप्रिय कदमों से उन्होंने आम लोगों का मन मोह लिया था। जो काम उनके पिता और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी नहीं कर सके थे, वह इंदिरा गांधी पूरी निर्भीकता से किये जा रही थीं।

ऐसे कुछ कदमों में बैंकों और कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण जैसे बड़े फैसले शामिल थे। राजाओं-महाराजाओं के प्रिवीपर्स के ख़ात्मे जैसे क्रांतिकारी फ़ैसले भी लिये थे। पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले की तरह उसे भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। कुछ समय बाद कोर्ट ने राजा-महाराजाओं के पक्ष में फ़ैसला देकर इंदिरा गांधी की सरकार के फ़ैसले को पलट दिया था। बाद में वह लागू हुआ।

कांग्रेस के अंदर भी इसका विरोध हुआ था। पार्टी के अमीर सामंती-पृष्ठभूमि के अनुदार नेताओं ने इंदिरा गांधी की खुलकर आलोचना की। कांग्रेस का विभाजन भी हुआ। वह दो खंड में बंट गयी थी-कांग्रेस (आर) और कांग्रेस (ओ)। लेकिन इंदिरा जी की पार्टी कांग्रेस (आर) को जनता ने असली कांग्रेस माना। जनादेश उनके पक्ष में आया। इंदिरा गांधी के विरोधी कांग्रेस गुट ने स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, बीएसपी और जनसंघ आदि के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। लोकसभा की कुल 518 में 352 सीटों के साथ इंदिरा जी की पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला। सीपीएम को 25, सीपीआई को 23 कांग्रेस (ओ) को सिर्फ़ 16 सीटें मिलीं।

कुछ ही समय बाद पाकिस्तान के साथ उसके पूर्वी इलाक़े में युद्ध हुआ। पाकिस्तान को अमेरिका से समर्थन की उम्मीद थी। पर ईस्ट पाकिस्तान में उसकी सेना पस्त हो गई। उसे समर्पण करना पड़ा। वहां स्थानीय जनता भी पाकिस्तान के विरोध में थी। इस तरह विश्व के नक्शे पर नया देश बना-बांग्लादेश। इंदिरा गांधी को लोग ‘दुर्गा’ तक कहने लगे। इसके बाद इंदिरा गांधी ने न पीछे मुड़कर देखा और न असहमति की आवाज़ों को सुनने की ज़हमत उठाई। पूरी कांग्रेस पार्टी उनके इर्द-गिर्द सिमट गई। बाद के दिनों में तो उनके छोटे बेटे संजय गांधी की पार्टी और सरकार में तूती बोलने लगी।

संजय गांधी का अपना एक ‘कॉकस’ सा बन गया। जब इमरजेंसी लगी तो यह कॉकस अचानक बहुत सक्रिय हो गया। सरकार ने इमरजेंसी का तात्कालिक कारण बताया-देश में व्याप्त अराजकता और विघटनकारी तत्वों की गतिविधि को नियंत्रित करना। इस तरह 25 जून, 1975 से 21 मार्च,1977 तक यह लागू रही। लेकिन विपक्षी नेता और अनेक राजनीति विज्ञानी भी मानते हैं कि अपने प्रचंड बहुमत के घमंड में इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने असहमति और विरोध की हर आवाज़ को विघटनकारी, अराजकता और देश-विरोधी कार्रवाई कहना शुरू कर दिया।

यह बात सही है कि इंदिरा जी के कुछ ग़लत कदमों के विरोध के बीच राजनीतिक विपक्ष के बीच ऐसे लोगों का एक जमावड़ा भी हो गया था जो दक़ियानूसी, घोर दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक था। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में चलाये जा रहे इंदिरा विरोधी अभियान में अगर कुछ अच्छे और लोकतांत्रिक मिज़ाज के लोग थे तो उस ‘दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक जमावड़े’ के भी अनेक प्रतिनिधि आंदोलन में आगे दिखाई देते थे।

इंदिरा गांधी की सरकार इस आंदोलन या अभियान का राजनीतिक स्तर पर मुक़ाबला करने की जगह दमनकारी कदम उठाने लगी। ग़लतियों की शुरुआत इमरजेंसी लागू किये जाने से काफी पहले ही हो गयी थी। सन् 1971 के चुनाव में की गयी कथित धांधली और ग़लत ढंग से चुनाव जीतने के आरोप की याचिका पर सन् 1975 में आये इलाहाबाद हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले ने इंदिरा गांधी को सांसद के तौर पर अयोग्य घेषित कर दिया। उनकी अयोग्यता की अवधि छह साल सुनाई गयी। इस फ़ैसले के बाद उनका प्रधानमंत्री बने रहना असंभव हो गया।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी धांधली के मुद्दे को आगे की सुनवाई के लिए कायम रखते हुए हाईकोर्ट के फ़ैसले के कुछ व्यावहारिक पहलुओं को स्थगित करते हुए इंदिरा जी के प्रधानमंत्री बने रहने के पक्ष में फ़ैसला सुनाया। इस तरह वह सत्ता में बनी रहीं। प्रतिकूल माहौल और अपने विरोधियों की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए कुछ ही समय बाद इंदिरा जी ने इमरजेंसी लागू करने का फ़ैसला किया जो 21 महीने तक जारी रही। सन् 1977 में उन्होंने स्वयं ही इमरजेंसी हटाते हुए नया चुनाव कराने का फ़ैसला किया।

इमरजेंसी के 21 महीने और उसके पहले के कम से कम दो ढाई साल के दौरान देश के अनेक क्षेत्रों में दमन और उत्पीड़न काफी तेज हो गया था। इसके शिकार हर तरह के लोग हुए। अगर कुछ सफ़ेदपोश लोग और विपक्षी नेता इसके निशाने पर थे तो बंगाल, बिहार और आंध्र प्रदेश में अति-वामपंथी समूहों के दमन के नाम पर बहुत सारे नौजवानों की भी पुलिस मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं हुईं। इनमें कुछ नये-नये वामपंथी थे तो कुछ बिल्कुल निर्दोष। इनमें अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग शामिल थे। इंदिराजी की सरकार जिन गरीबों के लिए काम करने का दावा कर रही थी, उस पृष्ठभूमि के लोगों में भी उनकी सरकार से नाराज़गी बढ़ती दिखी।

आज का भारत और इमरजेंसी

आज के भारत का परिदृश्य तबसे अलग है। सिर्फ़ एक समानता है कि सन 1971-1975 की तरह इस दौर में भी हमारे यहां एक प्रचंड बहुमत की सरकार केंद्र में क़ाबिज़ है। भाजपा के पास 303 और उसकी अगुवाई वाले एनडीए के पास 353 सीटें हैं। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के पास सिर्फ़ 52 सीटें हैं। हां, मौजूदा सरकार ने अब तक कभी इमरजेंसी लगाने की घोषणा नहीं की।

पर आज का दौर जनता के लिए इमरजेंसी से कम नहीं बल्कि ज़्यादा आतंककारी है। इमरजेंसी के दौरान लोगों के नागरिक अधिकार सस्पेंड किये गये थे। लेकिन आज तो पूरे संविधान को ही बेमतलब कर दिया गया है। सेंसरशिप नहीं लागू है। पर दमन-उत्पीड़न-अत्याचार इमरजेंसी दिनों से बहुत ज़्यादा है। कुछ छिटपुट अपवादों को छोड़कर मुख्यधारा का प्रेस-मीडिया पूरी तरह नियंत्रित ही नहीं, सत्ता के संचालकों का सक्रिय प्रचारक बना हुआ है। निजी क्षेत्र में संचालित कथित फ़्री मीडिया सरकारी-प्रचार एजेंसियों से भी ज़्यादा आक्रामक होकर सरकार का प्रचार कर रहा है।

किसी अपराध या गलती के बग़ैर लोगों को जेलों में बंद किया जा रहा है। जेलों में कुछ लोगों की मौत तक हो गयी। ऐसे ही एक बुजुर्ग थे स्टेन स्वामी, जिन्हें झूठे आरोप में जेल भेजा गया। कुछ महीने बाद जेल से अस्पताल स्थानांतरित करने के साथ ही उनकी मौत हो गयी। 84 साल के स्टेन स्वामी झारखंड के थे। उन पर राज्य के विरुद्ध काम करने का आरोप लगाया गया क्योंकि वह सत्ताधारी भाजपा की नीतियों के आलोचक थे। उन्हें UAPA के तहत गिरफ़्तार कर जेल में रखा गया। इसी तरह युवा समाजशास्त्री डॉ. उमर ख़ालिद, यूनाइटेड अगेन्स्ट हेट के कार्यकर्ता ख़ालिद सैफी, सुप्रसिद्ध लेखक आनंद तेलतुंबडे, तेलुगू कवि वरवर राव और वरिष्ठ पत्रकार गौतम नवलखा सहित अनेक लोग जेल में डाले गये।

झूठे आरोप में गिरफ़्तार ऐसे लोगों की संख्या सैकड़ों में हो सकती है। आज की अघोषित इमरजेंसी में सरकार अपने विरोधियों या आरएसएस/भाजपा की विचारधारा से असहमत लोगों पर ED, IT NIA, NCB और CBI जैसी सरकारी एजेंसियों का बढ़चढ़ कर इस्तेमाल कर रही है। पाकिस्तान और म्यांमार जैसे अपने पड़ोसी देशों की निरंकुश सरकारें ऐसा हथकंडा पहले से अपनाती आ रही हैं। अब अपने देश में भी इस हथकंडे का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाने लगा है।

हालत ऐसी है कि सरकार और सत्ताधारी दल के अंदर इस पर सवाल उठाने का जोखिम कोई नहीं ले सकता। सत्ता के सिंहासन पर जो बैठा है, वही पार्टी है और वही विचारधारा है। उसे चुनौती कौन देगा? दल ने नहीं, नेता ने चुनाव जीता है! सत्ता राजनीति को किसी एक नेता के करतब और करिश्मा का रंगमंच बना दिया गया है। अगर भाजपा के संदर्भ में देखें तो वह ‘करिश्माई नेता’ मोदी जी हैं। संगठन के तौर पर आरएसएस या भाजपा ने चुनाव में काम करने की मशीनरी भर मुहैया कराई है। बाक़ी का प्रबंधन नेता ने अपने स्तर पर किया है। वरिष्ठता क्रम में ऊपर होने के बावजूद सत्ताधारी पार्टी के कई नेता प्रधानमंत्री की दौड़ में पीछे छूट गये क्योंकि देश के कई बड़े कारपोरेट घराने गुजरात के नेता को ही पसंद कर रहे थे। मुख्यधारा मीडिया में वह सन् 2012 से ही छाये हुए थे।

किसी डेमोक्रेसी में विपक्ष कमजोर हो और सत्ताधारी दल में आंतरिक लोकतंत्र भी न हो तो ऐसे मुल्क की सरकारें लोकतांत्रिक-आवरण के बावजूद किसी राजतंत्र या निरंकुश तंत्र की तरह काम करने लगती हैं। भारत में आज यही हो रहा है। ब्रिटेन की मौजूदा सुनक सरकार(कंज़रवेटिव) हो या इससे पहले की जॉनसन सरकार, इनमें किसी के पास प्रचंड बहुमत नहीं था। पर उनके राजनीतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र था क्योंकि ब्रिटेन में ज़मीनी स्तर पर भी लोकतंत्र है। दुनिया के अनेक यूरोपीय देशों में ऐसा देखा जा सकता है। अपने देश में अपेक्षाकृत एक बेहतर संविधान होने के बावजूद ज़मीनी स्तर पर डेमोक्रेसी का आधार बहुत कमजोर है। इसके तीन सबसे बड़े कारण हैंः भयानक असमानता, वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व और शिक्षा की कमी!

लेकिन हमारे प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका के अपने दौरे में भारत की डेमोक्रेसी का खूब डंका पीटा। इससे उच्च वर्णीय मध्यवर्गीय भारतीयों का बड़ा हिस्सा गौरवान्वित हुआ। यह वही हिस्सा है जो मॉल लिंचिंग, लव जेहाद और जातिगत विद्वेष जैसे कारणों से होने वाली हत्याओं और दमनात्मक कदमों पर बिल्कुल मोदी जी और उनकी सरकार की तरह ख़ामोश रहता है। बहरहाल, हमारे प्रधानमंत्री पूरी दुनिया को सुनाने के लिए भले कह दें कि डेमोक्रेसी तो हमारे डीएनए में है। पर सारे तथ्य और सरकारी आंकड़े इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि सामंती मूल्य, संकीर्ण विचार और अलोकतांत्रिक आचरण वाले हमारे समाज और राजनीति के प्रभावशाली हिस्से का मिज़ाज आज तक नहीं बदला है।

सात दशक बाद भी डेमोक्रेसी का हमारा पौधा सही रोशनी, खाद पानी और रखरखाव (ज़रूरी सामाजिक व राजनीतिक सुधार) की कमी से बहुत स्वस्थ और जीवंत नहीं है, जिसका हमारे समाज के कुछ अघाये हुए लोग हर सुबह-शाम दावा करते रहते हैं। ऐसे सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य वाले देशों में प्रचंड बहुमत की सरकारों का आना उनके लिए और उनकी जनता के लिए शुभ नहीं, बहुत अशुभ है!

भारत जैसे विशाल और विविधता भरे समाज वाला देश तो अपने आप में एक तरह के सामाजिक गठबंधन की तरह है। ऐसे मुल्क को भला प्रचंड बहुमत, एक ही सर्वशक्तिमान नेता और एक ही बड़ी पार्टी कैसे अच्छा शासन दे सकती है? ऐसे मुल्क के लिए साझा कार्यक्रम पर आधारित गठबंधन की सरकारें ही बेहतर शासन प्रशासन दे सकती हैं। बशर्ते उनके पास सचमुच एक सुविचारित और सुसंगत क़िस्म का ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ और कुछ योग्य नेतृत्वकर्ता हों! यह महज़ संयोग नहीं कि भारत के सबसे अच्छे प्रशासित और विकसित प्रदेश वही हैं, जहां राजनीतिक गठबंधन या सामाजिक गठबंधन की सरकारें सबसे ज़्यादा समय तक शासन में रही हैं। भारतीय जनता को इमरजेंसी या तानाशाही से बचना है तो उसे प्रचंड बहुमत की सरकार बनाने की गलती से भी बचना होगा।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं।)

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Satishkumar
Satishkumar
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6 months ago

युवा समाजशास्त्री डॉ. उमर ख़ालिद, यूनाइटेड अगेन्स्ट हेट के कार्यकर्ता ख़ालिद सैफी, सुप्रसिद्ध लेखक आनंद तेलतुंबडे, तेलुगू कवि वरवर राव और वरिष्ठ पत्रकार गौतम नवलखा सहित अनेक लोग जेल में डाले गये। What they done, they are in Jail? I know, you are receiving money from China via Prabir Purkayastha. Are you poor you all are begging to China? Why can’t you provide your logic 😀

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