Sunday, April 28, 2024

हमारे देश ने अपना नैतिक विवेक खो दिया है: अरुंधति रॉय

मैं भारत में स्वतंत्र प्रेस के खात्मे के बारे में बात नहीं करने जा रही हूं। यहां इकट्ठे हुए हम सभी लोग इसके बारे में सब कुछ जानते हैं। न ही मैं इसके बारे में बात करने जा रही हूं कि उन सभी संस्थानों के साथ क्या हुआ, जिन्हें हमारे लोकतंत्र के कामकाज में नियंत्रण और संतुलन के लिए बनाया गया था। मैं 20 वर्षों से इन मुद्दों को उठा रही हूं और मुझे यकीन है कि यहां एकत्र हुए आप सभी लोग मेरे विचारों से परिचित हैं।

उत्तर भारत से केरल या लगभग किसी भी अन्य दक्षिणी राज्य में आते हुए, मैं इस तथ्य के बारे में आश्वस्त और चिंतित महसूस करती हूं कि उत्तर में हम में से कई लोग जिस डर के साये में हर दिन रहते हैं, जब मैं यहां होती हूं तो वह डर बहुत दूर लगता है। हलांकि यह उतना भी दूर नहीं है जितना हम कल्पना करते हैं।

यदि मौजूदा सरकार अगले साल सत्ता में लौटती है, तो 2026 में परिसीमन की कवायद के बाद संसद में हमारे द्वारा भेजे जाने वाले सांसदों की संख्या को कम करके पूरे दक्षिण भारत को शक्तिहीन बना दिये जाने की आशंका है। परिसीमन ही हमारे सामने एकमात्र खतरा नहीं है। संघवाद, जो हमारे विविधतापूर्ण देश की जीवनधारा है, वह भी खतरे में है।

जैसे-जैसे केंद्र सरकार खुद के पास व्यापक शक्तियां समेटती जा रही है, हम देख रहे हैं कि विपक्ष शासित राज्यों के, शान से चुने गये मुख्यमंत्रियों को, सार्वजनिक धन के अपने राज्यों के हिस्से के लिए वस्तुतः भीख मांगनी पड़ रही है।

संघवाद को ताजा झटका हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से भी लगा है, जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य को अर्ध-स्वायत्त दर्जा देने वाली धारा 370 को निरस्त करने के फैसले को बरकरार रखा गया है। यह भारत का एकमात्र राज्य नहीं है जिसे विशेष दर्जा प्राप्त था। यह कल्पना करना एक गंभीर गलती है कि यह निर्णय केवल कश्मीर से संबंधित है। यह हमारी राजनीति की मूलभूत संरचना को प्रभावित करता है।

लेकिन आज मैं कुछ और जरूरी बात करना चाहती हूं। हमारे देश ने अपना नैतिक विवेक खो दिया है। सबसे जघन्य अपराध, नरसंहार और जातीय सफाये का आह्वान करने वाली सबसे भयानक घोषणाओं का स्वागत अब तालियां बजाकर और राजनीतिक इनाम के साथ किया जाने लगा है। जब देश का धन लगातार मुट्ठी भर हाथों में केंद्रित होता जा रहा है, ऐसे में गरीबों को टुकड़े फेंकने से उन शक्तियों को समर्थन मिलता है जो उन्हें और कमजोर कर रही हैं।

हमारे समय की सबसे हैरान करने वाली पहेली यह है कि आज दुनिया भर में लोग खुद को ही कमजोर करने के पक्ष में मतदान कर रहे हैं। उन्हें मिलने वाली सूचनाओं के आधार पर वे ऐसा करते हैं। वे सूचनाएं क्या हैं और इन्हें नियंत्रित कौन करता है?

दरअसल सूचना-तंत्र पर इसी नियंत्रण के माध्यम से उन्हें मीठा जहर दिया जा रहा है। आज जो तकनीक को नियंत्रित कर रहा है, वही दुनिया को नियंत्रित कर रहा है। लेकिन मेरा मानना है कि, अंततः लोगों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है और न ही किया जा सकेगा। मुझे विश्वास है कि एक नयी पीढ़ी विद्रोह में उठ खड़ी होगी। क्रांति होगी। क्षमा करें, मैं इसे दोहराती हूं। क्रांति नहीं, बल्कि क्रांतियां होंगी।

मैंने कहा कि एक देश के रूप में हमने अपना नैतिक विवेक खो दिया है। दुनिया भर में लाखों लोग- यहूदी, मुस्लिम, ईसाई, हिंदू, कम्युनिस्ट, नास्तिक, अज्ञेयवादी- गाजा में तत्काल युद्धविराम का आह्वान करते हुए मार्च कर रहे हैं। लेकिन हमारे देश की सड़कें, जो कभी उपनिवेश बनाये गये लोगों की सच्ची दोस्त होती थीं, फिलिस्तीन की सच्ची दोस्त थीं, जिन्होंने कभी लाखों लोगों को मार्च करते हुए देखा होगा, आज खामोश हैं।

हमारे अधिकांश लेखक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी, कुछ को छोड़कर, सभी चुप हैं। कितनी भयानक शर्म की बात है। और दूरदर्शिता की कमी का कितना दुखद प्रदर्शन है। जब हम देख रहे हैं कि हमारे लोकतंत्र की संरचनाओं को व्यवस्थित रूप से ध्वस्त किया जा रहा है, और अविश्वसनीय विविधता वाली हमारी इस भूमि को एक इकहरे राष्ट्रवाद के नकली, संकीर्ण विचार में तब्दील किया जा रहा है, तो कम से कम जो लोग खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि हमारा देश भी विस्फोट कर सकता है।

यदि हम इजराइल द्वारा फिलिस्तीनियों के निर्लज्ज वध के बारे में कुछ नहीं कहते हैं, भले ही हम अपने व्यक्तिगत जीवन के सबसे निजी समय में इसका सीधा प्रसारण देखते हों, तो इस अपराध में हम भी सहभागी हैं। हमारे नैतिक स्वत्व में कुछ हमेशा के लिए बदल जाएगा। क्या हम बस खड़े होकर देखते रहेंगे जबकि घरों, अस्पतालों, शरणार्थी शिविरों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, अभिलेखागारों पर बमबारी हो रही है, दस लाख लोग विस्थापित हो रहे हैं, और मृत बच्चों को मलबे से बाहर निकाला जा रहा है?

गाजा की सीमाएं सील कर दी गयी हैं। लोगों के पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है। उनके पास न आश्रय है, न भोजन है, न पानी है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि आधी से अधिक आबादी भूख से मर रही है, और फिर भी उन पर लगातार बमबारी की जा रही है। क्या हम एक बार फिर से एक पूरी अवाम को इस हद तक इंसानियत के दर्जे से गिराये जाते हुए, खामोश खड़े देखते रहेंगे? क्या हमारे लिए उनका विनाश कोई मायने नहीं रखता?

फिलिस्तीनियों को इंसानियत के दर्जे से गिरा दिये जाने की परियोजना बेन्जामिन नेतन्याहू और उनकी टीम द्वारा शुरू नहीं हुई थी- यह दशकों पहले शुरू हुई थी।

2002 में, 11 सितंबर 2001 की पहली वर्षगांठ पर, मैंने संयुक्त राज्य अमेरिका में “आओ सितंबर” नामक एक व्याख्यान दिया था, जिसमें मैंने 11 सितंबर की अन्य वर्षगांठों के बारे में भी बात की थी। यही तारीख थी, जब 1973 में चिली के राष्ट्रपति सल्वाडोर अलेंडे के खिलाफ सीआईए समर्थित तख्तापलट कराया गया था, और फिर 11 सितंबर, 1990 को अमरीकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश, सीनियर का भाषण, जिसमें उन्होंने इराक के खिलाफ युद्ध में जाने के अपनी सरकार के फैसले की घोषणा की थी।

और फिर मैंने फिलिस्तीन के बारे में बात की। मैं अपने उस व्याख्यान के उस हिस्से को पढ़ूंगी और आप देखेंगे कि अगर मैंने आपको नहीं बताया होता कि यह 21 साल पहले लिखा गया था, तो आप सोचते कि यह आज के बारे में बताया जा रहा है।

“11 सितंबर की एक दुखद प्रतिध्वनि मध्य पूर्व तक भी जाती है। 1917 की बालफोर घोषणा, जिसे शाही ब्रिटेन ने गाजा के द्वारों पर अपनी सेनाएं तैनात करके जारी किया था, इसमें उसने यहूदी राष्ट्र के लिए अभियान चलाने वाले यूरोपीय ज़ियोनिस्टों को वादा किया था कि वह यहूदियों को एक अपना राष्ट्र देगा। (यह वह दौर था, जब ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूरज अस्त नहीं होता था, और जिस तरह किसी स्कूल का कोई दबंग छात्र किसी भी छात्र से कंचे छीनकर अपनी मनमर्जी से किसी भी छात्र को बांट देता है, उसी तरह ब्रिटिश साम्राज्य भी किसी से भी उसकी राष्ट्रीय मातृभूमि को छीनने और उसे किसी को भी बांट देने और वसीयत कर देने के लिए स्वतंत्र था।)..

.. उसी बाल्फोर घोषणा की अगली कड़ी के तौर पर 11 सितंबर 1922 को भी, अरब आक्रोश की अनदेखी करते हुए, ब्रिटिश सरकार ने फिलिस्तीन में एक फरमान जारी किया। कितनी लापरवाही से एक साम्राज्यवादी शक्ति ने प्राचीन सभ्यताओं का अंग-भंग कर दिया। फिलिस्तीन और कश्मीर आधुनिक दुनिया को ब्रिटेन से मिले मवाद-भरे और रक्त-रंजित उपहार हैं। दोनों ही आज के सुलगते हुए अंतरराष्ट्रीय विवादों की कमजोर कड़ियां हैं।”

“1937 में, विंस्टन चर्चिल ने फिलिस्तीनियों के बारे में कहा था कि, ‘मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि चरनी में रह रहे कुत्ते का चरनी पर अंतिम अधिकार है, भले ही वह बहुत लंबे समय से वहां रह रहा हो। मैं इस अधिकार को स्वीकार नहीं करता। उदाहरण के लिए, मैं यह स्वीकार नहीं करता कि अमेरिका के रेड इंडियन्स या ऑस्ट्रेलिया के काले लोगों के साथ बहुत गलत बर्ताव किया गया है। मैं यह स्वीकार नहीं करता कि इन लोगों के साथ कुछ गलत हुआ है, क्योंकि एक मजबूत नस्ल, एक उच्च श्रेणी की नस्ल, सांसारिक बुद्धिमत्ता के लिहाज से एक बेहतर नस्ल ने उनकी जगह ले लिया है।’

इसी सोच ने फिलिस्तीनियों के प्रति इजराइली राज्य के रवैये की प्रकृत्ति निर्धारित किया है। 1969 में, इजराइल की प्रधानमंत्री गोल्डा मायर ने कहा, ‘फिलिस्तीनियों का कोई अस्तित्व ही नहीं है’। उनके उत्तराधिकारी, प्रधानमंत्री लेवी एस्कोल ने कहा, ‘फिलिस्तीनी क्या होते हैं? जब मैं यहां (फिलिस्तीन) आया, तो 250,000 गैर-यहूदी थे, वे मुख्य रूप से अरब और बेडौइन (बद्दू, एक खानाबदोश अरब जनजाति) लोग थे। यह एक रेगिस्तान था, बिल्कुल अविकसित, यह इससे ज्यादा कुछ नहीं था’। प्रधानमंत्री मेनकम बेगिन ने फिलिस्तीनियों को ‘दो पैरों वाले जानवर’ कहा। प्रधानमंत्री यित्जाक शमीर ने उन्हें ऐसे ‘टिड्डे’ कहा जिन्हें कुचला जा सकता था। यह राष्ट्राध्यक्षों की भाषा है, आम लोगों की नहीं।”

इस तरह ‘भूमिहीन जनों के लिए एक निर्जन भूमि’ नाम के उस भयानक मिथक की शुरुआत हुई।

“1947 में, संयुक्त राष्ट्र ने औपचारिक रूप से फिलिस्तीन को विभाजित किया और फिलिस्तीन की 55 प्रतिशत भूमि ज़ियोनिस्टों को आबंटित कर दिया। लेकिन एक साल के भीतर ही, उन्होंने 76 प्रतिशत जमीन पर कब्जा कर लिया था। 14 मई 1948 को इज़राइल राज्य घोषित किया गया था। घोषणा के कुछ ही मिनटों बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका ने इजराइल को मान्यता दे दी। वेस्ट बैंक पर जॉर्डन ने कब्जा कर लिया था। गाजा पट्टी मिस्र के सैन्य नियंत्रण में आ गयी, और फिलिस्तीन औपचारिक रूप से शरणार्थी बना दिये गये उन सैकड़ों हजारों फिलिस्तीनी लोगों के दिमाग और दिलों को छोड़कर कहीं अस्तित्व में नहीं रह गया।

1967 में, इज़राइल ने वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी पर कब्जा कर लिया। दशकों से विद्रोह, युद्ध और फिलिस्तीनी बग़ावतें (इंतिफादा) होती रही हैं। हजारों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। समझौतों और संधियों पर हस्ताक्षर किये गये हैं। संघर्ष विराम की घोषणा की गयी और उल्लंघन किया गया। लेकिन खून-खराबा खत्म नहीं होता। फिलिस्तीन पर अभी भी अवैध कब्जा है। इसके लोग अमानवीय परिस्थितियों में, आभासी बंटुस्तान (भेदभाव करके अलग बसायी गयी बस्तियों) में रहते हैं, जहां उन्हें सामूहिक दंड दिया जाता है, 24 घंटे के कर्फ्यू के अधीन रखा जाता है, जहां उन्हें रोज-रोज अपमानित किया जाता है और उनके साथ क्रूरता की जाती है।

वे कभी नहीं जानते कि कब उनके घरों को ध्वस्त कर दिया जाएगा, कब उनके बच्चों को गोली मार दी जाएगी, कब उनके कीमती पेड़ काट दिए जाएंगे, कब उनकी सड़कें बंद कर दी जाएंगी, कब उन्हें भोजन और दवा खरीदने के लिए बाजार जाने की अनुमति दी जाएगी, और कब नहीं दी जाएगी। उनकी जिंदगी में गरिमा की कोई झलक तक नहीं रह गयी है। कोई उम्मीद भी नजर नहीं आती। उनका अपनी जमीनों, अपनी सुरक्षा, अपनी आवाजाही, अपने संचार, अपनी पानी की आपूर्ति तक पर कोई नियंत्रण नहीं है।

इसलिए जब समझौतों पर हस्ताक्षर किये जाते हैं, और ‘स्वायत्तता’ और यहां तक कि ‘राज्य’ जैसे शब्दों के बारे में बात की जाती है, तो यह सवाल हमेशा खड़ा होता है- किस तरह की स्वायत्तता? किस तरह का राज्य? उसके नागरिकों को किस तरह के अधिकार होंगे? युवा फिलिस्तीनी जो अपने गुस्से को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं, वे खुद को मानव बम में बदल देते हैं और इजराइल की सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर विस्फोट करते हैं, आम लोगों को मारते हुए खुद को उड़ा देते हैं, रोजमर्रा के जीवन में आतंक घोल देते हैं, और अंततः दोनों समाजों के संदेह और एक-दूसरे के प्रति आपसी घृणा को और मजबूत कर देते हैं।

ऐसी प्रत्येक बमबारी बेरहम प्रतिशोध और फिलिस्तीनी लोगों पर और भी अधिक कठिनाइयों को आमंत्रित करती है। आखिरकार आत्मघाती बम विस्फोट व्यक्तिगत निराशा का कार्य है, न कि एक क्रांतिकारी रणनीति। यद्यपि फिलिस्तीनी हमले इजराइली नागरिकों में आतंक पैदा करते हैं, लेकिन वे फिलिस्तीनी क्षेत्र में इजराइल सरकार की दैनिक घुसपैठ के लिए एकदम सटीक बहाना मुहैया कराते हैं। पुराने जमाने के, उन्नीसवीं सदी के उपनिवेशवाद के लिए जो एकदम सही बहाना होता था, वह नये जमाने, 21 वीं सदी के ‘युद्ध’ का रूप धारण कर चुका है। इजराइल का सबसे कट्टर राजनीतिक और सैन्य सहयोगी हमेशा अमेरिका रहा है।”

“अमेरिकी सरकार ने इजराइल के साथ संयुक्त राष्ट्र के लगभग हर उस प्रस्ताव को अवरुद्ध कर दिया है, जिसमें इस विवाद के शांतिपूर्ण, और न्यायसंगत समाधान की मांग की गयी है। इसने इजराइल द्वारा लड़े गये लगभग हर युद्ध का समर्थन किया है। जब इजराइल फिलिस्तीन पर हमला करता है, तो यह अमेरिकी मिसाइलें होती हैं जो फिलिस्तीनी घरों को नष्ट करती हैं। और हर साल इज़राइल संयुक्त राज्य अमेरिका से कई अरब डॉलर प्राप्त करता है– यह अमरीकी करदाताओं का पैसा होता है।”

आज इजराइल द्वारा नागरिक आबादी पर गिराए जाने वाले हर बम, हर टैंक और हर गोली पर संयुक्त राज्य अमेरिका का नाम लिखा हुआ है। अगर अमेरिका पूरे दिल से इसका समर्थन नहीं कर रहा होता तो यह सब नहीं होता। हम सभी ने अभी देखा है कि इसी आठ दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में क्या हुआ?

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 13 सदस्य देशों ने संघर्ष विराम के पक्ष में मतदान किया जबकि अमेरिका ने इसके खिलाफ मतदान किया। प्रस्ताव को वीटो करने के लिए हाथ उठाने वाले अमेरिकी उपराजदूत, जो खुद एक अश्वेत अमरीकी हैं, उनका परेशान करने वाला वीडियो हमारे दिमाग में फंस सा गया है। सोशल मीडिया पर कुछ कड़वे टिप्पणीकारों ने इसे इंटरसेक्शनल, यानि समाज के भीतर ही एक हिस्से के ऊपर दूसरे हिस्से का, साम्राज्यवाद कहा है।

नौकरशाहों के रवैये से तो यही समझ में आ रहा है कि इजराइल को अमेरिका का संदेश यही है- अपना काम तो पूरा करो, लेकिन दयालुता भी दिखे।

“इस दुखद संघर्ष से हमें क्या सबक लेना चाहिए? यहूदी लोग, जिन्होंने खुद इतनी क्रूरता झेली है, जितनी शायद इतिहास में किसी भी अन्य समूह ने नहीं झेली है, क्या उनके द्वारा उन लोगों की पीड़ा और तड़प को समझना असंभव है जिन्हें उन्होंने विस्थापित किया है? क्या अत्यधिक पीड़ा हमेशा क्रूरता को जन्म देती है? तो मानव जाति के पास क्या आशा बचती है? जीत के बाद फिलिस्तीनी लोग क्या करेंगे? जब एक राज्यहीन राष्ट्र अंततः एक राज्य की घोषणा करेगा, तो यह किस तरह का राज्य होगा? इसके झंडे तले क्या भयावहता की जाएगी?

हमारी लड़ाई एक अलग राज्य के लिए होनी चाहिए या सभी के लिए स्वतंत्रता और गरिमापूर्ण जीवन के अधिकारों के लिए होनी चाहिए, चाहे उनकी जातीयता या धर्म कुछ भी क्यों न हो? फिलिस्तीन एक बार मध्य पूर्व में एक धर्मनिरपेक्ष क़िला था। लेकिन अब कमजोर, अलोकतांत्रिक, हर तरह से भ्रष्ट लेकिन फिर भी डंके की चोट पर गैर-सांप्रदायिक पीएलओ (फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन) उस हमास के हाथों अपनी जमीन खोता जा रहा है, जो खुलेआम सांप्रदायिक विचारधारा का समर्थन करता है और इस्लाम के नाम पर लड़ता है।

उनके घोषणापत्र का एक अंश देखें- “हम इसके सैनिक और इसकी दुश्मनों को जला देने वाली आग के लिए जलने वाली लकड़ी होंगे।” आत्मघाती हमलावरों की निंदा करने के लिए दुनिया का आह्वान किया जाता है। लेकिन क्या हम उस लंबे रास्ते को नजरअंदाज कर सकते हैं जिस पर चलकर वे इस गंतव्य पर पहुंचे हैं? 11 सितंबर, 1922 से 11 सितंबर, 2002 तक, 80 साल तक युद्ध झेलना, एक काफी लंबा वक्त है। क्या हमारे पास कोई सलाह है जो दुनिया फिलिस्तीन के लोगों को दे सके? क्या उन्हें गोल्डा मायर के सुझाव को मानकर अस्तित्वहीन हो जाने की सच्ची कोशिश करनी चाहिए?”

इजराइल के राजनीतिज्ञों और सैन्य अधिकारियों द्वारा साफ-साफ फिलिस्तीनियों के विनाश और सफाये की बात की जा रही है। एक अमेरिकी वकील ने बिडेन प्रशासन के खिलाफ मुकदमा किया है कि यह प्रशासन “नरसंहार को रोकने में विफल रहा है, जो कि खुद एक अपराध है।” उसने कहा है कि “इस तरह से साफ-साफ और सार्वजनिक रूप से नरसंहार की घोषणा करने की मिसाल इतिहास में कहीं और नहीं मिलती।”

एक बार जब वे उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे, तो शायद उनकी अगली योजना फिलिस्तीनी संस्कृति और हस्तशिल्प को प्रदर्शित करने वाले संग्रहालय बनाने, जातीय फिलिस्तीनी भोजन परोसने वाले रेस्तरां बनाने, शायद एक साउंड एंड लाइट शो भी आयोजित करने की होगी, जिसमें वे बताएंगे कि पुराने गाजा निवासी कितने जीवंत हुआ करते थे। शायद यह सब वे उस बेन गुरियन नहर परियोजना के नये गाजा हार्बर में करेंगे, जिसे कथित तौर पर स्वेज नहर को टक्कर देने के लिए तैयार किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि इस परियोजना के लिए अपतटीय ड्रिलिंग के अनुबंधों पर हस्ताक्षर भी किये जा रहे हैं।

इक्कीस साल पहले, जब मैंने न्यू मैक्सिको में “आओ सितंबर” नामक व्याख्यान दिया था, उस समय अमेरिका में फिलिस्तीन के बारे में बात करने पर एक किस्म की मनाही लागू थी। जिन लोगों ने इसके बारे में बात की, उन्हें इसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। लेकिन आज युवा सड़कों पर हैं, फिलिस्तीनियों के साथ-साथ यहूदी भी उनका आगे बढ़कर नेतृत्व कर रहे हैं, और वे अपने गुस्से का उग्र इजहार कर रहे हैं कि उनकी सरकार, अमेरिकी सरकार वहां क्या कर रही है।

विश्वविद्यालय उबाल पर हैं, जिनमें सबसे कुलीन विश्वविद्यालयों के परिसर भी शामिल हैं। प्रतिक्रिया में पूंजीवाद उन्हें बंद कर देने की कोशिशें तेज कर रहा है। दानदाता धन रोकने की धमकी दे रहे हैं, ताकि वे यह भी तय कर सकें कि अमेरिकी छात्र क्या कह सकते हैं और क्या नहीं कह सकते, और वे कैसे सोच सकते हैं और कैसे नहीं सोच सकते। यह एक तथाकथित उदारवादी शिक्षा-प्रणाली के मूलभूत सिद्धांतों पर एक प्रहार है।

उत्तर-उपनिवेशवाद, बहुसंस्कृतिवाद, अंतरराष्ट्रीय कानूनों, जिनेवा सम्मेलन के निर्णयों, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा वगैरह का सारा दिखावा अब खत्म हो चुका है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या सार्वजनिक नैतिकता का भी सारा दिखावा खत्म हो गया है। एक “युद्ध” चलता जा रहा है, जिसके बारे में वकीलों और अंतरराष्ट्रीय कानून के विद्वानों का कहना है कि वह कानूनी मानदंडों पर एक नरसंहार है, जिसमें अपराधियों ने ही खुद को पीड़ितों के रूप में पेश किया है, उपनिवेशवादियों ने ही खुद को उत्पीड़ित के रूप में पेश किया है।

अमेरिका में, इस पर सवाल उठाने का मतलब यहूदी-विरोध का आरोप झेलना है, भले ही इस पर सवाल उठाने वाले खुद यहूदी भी हैं। यह मन को व्यथित करने वाली हालत है। ऐसा तो खुद इजराइल तक में नहीं है। वहां गिदोन लेवी जैसे सबसे विद्वान असंतुष्ट इजराइली नागरिक इजराइल की कार्यवाहियों के सबसे तीखे आलोचक हैं, उनके भाषणों पर भी इजराइली पुलिस उतना नियंत्रण नहीं लगाती जितनी कि अमरीका में अमरीकी पुलिस लगाती है। (हलांकि इजराइल में भी हालात तेजी से बदल रहे हैं)।

अमेरिका में इंतिफादा, यानि विद्रोह और प्रतिरोध के बारे में बात करना, वर्तमान संघर्ष के संबंध में खुद अपने ही नरसंहार और विनाश के खिलाफ बात करना, यहूदियों के नरसंहार के लिए एक आह्वान माना जाता है। एकमात्र नैतिक चीज जो फिलिस्तीनी नागरिक स्पष्ट रूप से कर सकते हैं, वह है मरना। एकमात्र कानूनी चीज जो हम में से बाकी लोग कर सकते हैं वह है उन्हें मरते हुए देखना, और चुप रहना। यदि नहीं, तो हम अपनी छात्रवृत्ति, अनुदान, व्याख्यान शुल्क और आजीविका को जोखिम में डालते हैं।

9/11 के बाद, आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी युद्ध ने दुनिया भर के शासकों को नागरिक अधिकारों को खत्म करने और एक विस्तृत, आक्रामक निगरानी तंत्र बनाने के लिए एक बहाना दे दिया, जिसमें हमारी सरकारें हमारे बारे में सब कुछ जानती हैं और हम उनके बारे में कुछ भी नहीं जान सकते हैं। इसी तरह, अमेरिका के इस नये मैकार्थीवाद की छतरी के नीचे, भयावह प्रवृत्तियां दुनिया भर के देशों में बढ़ेंगी और पनपेंगी।

हमारे देश में भी यह वर्षों पहले शुरू हो चुका है। जब तक हम इसके खिलाफ नहीं बोलेंगे, यह गति पकड़ लेगा और हम सबको किनारे लगा देगा। अभी कल की खबर है कि कभी भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों में शुमार दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने छात्रों के लिए नयी आचरण नियमावली जारी किया है। धरना या भूख हड़ताल करने वाले किसी भी छात्र पर 20,000 रुपये का जुर्माना, और ‘राष्ट्रविरोधी नारे’ पर 10,000 रुपये का जुर्माना।

अभी तक इस बारे में कोई सूची नहीं जारी की गयी है कि कौन से नारे ‘राष्ट्रविरोधी’ माने जाएंगे। लेकिन हम बिल्कुल आश्वस्त हो सकते हैं कि मुसलमानों के नरसंहार और जातीय सफाये का आह्वान इस सूची में नहीं शामिल होगा। इसलिए, फिलिस्तीन में जारी लड़ाई हमारी भी लड़ाई है।

जो कहा जाना जरूरी है, उसे साफ-साफ कहा जाना चाहिए- बार-बार कहा जाना चाहिए।

वेस्ट बैंक पर इजराइल का कब्जा और गाजा की घेराबंदी पूरी मानवता के खिलाफ अपराध हैं। अमेरिका और अन्य देश जो इस कब्जे को वित्तपोषित कर रहे हैं, वे भी अपराधी हैं। अभी हम जो हमास और इज़राइल द्वारा नागरिकों की अकारण हत्या की भयावहता देख रहे हैं, वह लंबे समय से जारी फिलिस्तीन की घेराबंदी और क़ब्ज़े का ही नतीजा है।

किसी एक या दूसरे पक्ष द्वारा की गयी क्रूरता पर चाहे जैसी भी टिप्पणी की जाए, ज्यादतियों की जितनी भी निंदा की जाए, किसके द्वारा किये गये अत्याचार दूसरे से ज्यादा या कम हैं, इसकी झूठी तुलनाएं की जाएं, इससे कोई समाधान नहीं निकलने वाला।

यह क़ब्जा ही है जो इस दरिंदगी भरे बर्ताव को बढ़ावा दे रहा है। यह अपराधियों और पीड़ितों दोनों पर हिंसा कर रहा है। जिन्हें निशाना बनाया गया, वे मारे जा चुके हैं, उनके अपराधियों को अपने कुकृत्यों के साथ ही जीना होगा। उनके बच्चे भी ऐसा ही करेंगे। ऐसा पीढ़ियों तक चलेगा।

इस समस्या का समाधान सेनाओं के बल पर नहीं किया जा सकता। समाधान केवल राजनीतिक हो सकता है, जिसके अनुसार इजराइली और फिलिस्तीनी दोनों समान अधिकारों और सम्मान के साथ या तो साथ-साथ रहें, या पड़ोसी देशों के रूप में रहें। दुनिया को हस्तक्षेप करना होगा। यह कब्ज़ा ख़त्म होना चाहिए। फ़िलिस्तीनियों के पास एक वास्तविक मातृभूमि होनी चाहिए, और फिलिस्तीनी शरणार्थियों को वापस लौटने का अधिकार होना चाहिए।

यदि नहीं, तो पश्चिमी उदारवाद की नैतिक इमारत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। हम जानते हैं कि यह हमेशा से पाखंडपूर्ण रहा है। लेकिन यह पाखंड भी कुछ उम्मीद देता था। अब वह उम्मीद भी हमारी आंखों के सामने से ओझल होती जा रही है।

इसलिए कृपया फिलिस्तीन और इज़राइल के लिए, जीवित बचे लोगों के लिए और मारे गये लोगों के नाम पर, हमास के पास बंधक इज़राइलियों और इज़राइल की जेलों में बंद फ़िलिस्तीनियों की खातिर, पूरी मानवता की खातिर, इस कत्लेआम को रोकें।

मुझे इस सम्मान के लिए चुनने के लिए एक बार फिर धन्यवाद। इस पुरस्कार के साथ मिलने वाले 3 लाख रुपये के लिए भी धन्यवाद। यह मेरे पास नहीं रहेगा। यह उन कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की मदद में जाएगा जो अपने लिए भारी कीमत चुकाकर भी अपने संघर्ष में लगे हुए हैं।

(13 दिसंबर 2023 को तिरुवनंतपुरम में आयोजित पी. गोविंदा पिल्लई पुरस्कार समारोह में अरुंधति रॉय के स्वीकृति भाषण के अंश। ‘फ्रंटलाइन’ से साभार। अनुवाद- शैलेश)

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