Tuesday, April 16, 2024

शांति, एकजुटता और महात्मा गांधी

(राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर रायगढ़ में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ था। जिसमें जनचौक के नियमित लेखक डॉ. राजू पांडेय मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित थे। वह न केवल कार्यक्रम में शामिल हुए बल्कि उन्होंने गांधी के सभी पक्षों को समेटते हुए एक लंबा वक्तव्य दिया। यह पूरा भाषण लिखित था। जनचौक ने उसको प्रकाशित करने का फैसला लिया है। उसका पहला भाग आज यहां दिया जा रहा है-संपादक)

पिछले दिनों गांधी जी के साम्प्रदायिकता विषयक विचारों पर एक विद्वान मित्र के साथ चर्चा हो रही थी। साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की चर्चा करते हुए मैंने उनके जीवन के अंतिम वर्षों का जिक्र किया जब वे साम्प्रदायिक हिंसा से आहत थे, व्यथित थे, राष्ट्र ध्वज फहराने तथा राष्ट्र के नाम संदेश देने के अनिच्छुक थे और नोआखाली के ग्रामों की संकीर्ण गलियों में अपने प्राणों की परवाह किए बिना प्रेम, दया, क्षमा और करुणा का संदेश दे रहे थे। मैंने कहा- साम्प्रदायिक एकता गांधी जी के लिए महज एक आदर्श नहीं थी वह उनकी आत्मा में रची बसी थी।

मेरे विद्वान मित्र ने गांधी जी को एक यूटोपियन थिंकर के रूप में चित्रित किया जिसने हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रश्न को जितना सुलझाने की कोशिश की उतना ही वह उलझता गया। देश का विभाजन हुआ। भीषण साम्प्रदायिक हिंसा हुई। जो कटुता तब उत्पन्न हुई थी वह खत्म नहीं हुई। उसने जोर देकर कहा कि देश के अंदर धीरे धीरे साम्प्रदायिकता का विमर्श फिर से राजनीतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में आ गया है।

इसके अलावा हमें एक धर्मांध और युद्ध प्रिय पड़ोसी मिला है जो आतंकवाद का जहर देश में फैला रहा है। मेरे मित्र ने गांधी जी पर हुए आधा दर्जन प्राण घातक हमलों का भी जिक्र किया- जिसमें शायद एक को छोड़कर सभी हिन्दू अतिवादियों द्वारा किए गए थे। अपनी बात समाप्त करते हुए उसने कहा कि गांधी जी इतने असफल रहे कि वे न हिंदुओं का विश्वास जीत पाए न मुसलमानों का। मैंने धैर्यपूर्वक उसे सुना और अंत में केवल इतना ही कहा कि यह गांधी की असफलता से अधिक हमारा दुर्भाग्य था कि हम उनकी सीखों पर अमल न कर पाए और हमने स्वयं को हिंसा- प्रतिहिंसा एवं घृणा की लपटों में झुलसकर नष्ट होने के लिए छोड़ दिया है।

साठ के दशक में मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उनके साथियों ने गांधी को थोड़ा बहुत आत्मसात किया और उनका अनुकरण किया फलस्वरूप वे अमेरिका में नागरिक अधिकारों के आंदोलन का नेतृत्व सफलतापूर्वक कर सके। गांधी से प्रेरित नेल्सन मंडेला ने 1990 के दशक में लंबे कारावास और अत्याचारों की कटुता को भुलाते हुए जब नए दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समाप्ति और श्वेतों के लिए भी बिना किसी भेदभाव के समान अधिकारों की घोषणा की तब घृणा, हिंसा और प्रतिशोध के लंबे एवं दुःखद अध्याय की समाप्ति हुई और स्थायी शांति स्थापित हुई।

गांधी जी द्वारा दमन और शोषण के अहिंसक प्रतिरोध का तरीका जिसमें शत्रुओं के लिए भी किसी प्रकार की कटुता एवं वैमनस्य के लिए स्थान न था, पूरे विश्व में कितने ही छोटे बड़े संघर्षों के सम्पूर्ण समाधान का जरिया बना और स्थायी शांति एवं एकता की स्थापना में सहायक भी रहा।

दुर्भाग्य से हम भारतीय ऐसा न कर सके और हमने गांधी जी को हाशिए पर डालने के लिए अपनी अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के अनुकूल उनके अपूर्ण और संकीर्ण पाठ तैयार किए जो न केवल गांधीवाद से असंगत थे अपितु अनेक बार गांधी जी की मूल अवधारणाओं से एकदम विपरीत भी थे। हमने राष्ट्रपिता के साथ केवल इतनी रियायत बरती कि उन्हें एकदम से रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिया। हमने उन्हें भव्य स्मारकों और संग्रहालयों में कैद करने की कोशिश की। उन्हें विशाल अजीवित प्रतिमाओं में बदलने की चेष्टा की। हमने सत्याग्रही गांधी को स्वच्छाग्रही गांधी के रूप में रिड्यूस करने का प्रयास किया।

हिन्दू धर्म के सबसे उदार एवं अहिंसक समर्थक को हमने निर्ममतापूर्वक ठोक पीटकर हिंसक हिंदुत्व के संकीर्ण खांचे में डालने की कोशिश की। कभी उनके आकलन में हमसे चूक हुई और हमने उन्हें वर्ग संघर्ष और सर्वहारा के राज्य का विरोधी और जनक्रांति के मार्ग में बाधक प्रतिक्रियावादी तथा धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान वादी की संज्ञा दी। यद्यपि बाद में हमने अपनी भूल सुधारी। आज भी जब मैं गांधी जी को ईमानदारी से समझने की सच्ची कोशिश करते प्रबुद्ध जनों के समुदाय से मुख़ातिब हूं तब स्वयं से भयभीत हूं कि क्या मैं अपनी विचारधारा और अपनी राजनीतिक पसंद से परे हटकर गांधी जी को आपके सम्मुख रखने में समर्थ हो सकूंगा। मन सशंकित है।

गांधी जी का गद्य सरल, संक्षिप्त और स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए जाना जाता है। उनके विचारों की प्रभावी एवं असरदार अभिव्यक्ति का कारण इन विचारों के पीछे निहित आचरण की शक्ति है। ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है, स्वयं चले बिना उन्होंने जिसका प्रतिपादन कर दिया हो। गांधी जी के राष्ट्रीय एकता और साम्प्रदायिक सद्भाव विषयक विचारों को आपके सम्मुख उनके मूल स्वरूप में यथावत उद्धरण के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ। बीच बीच में छोटी छोटी टिप्पणियां अवश्य दूंगा।

गांधी जी ने बहुत पहले ही यह संकेत कर दिया था कि अधिनायकवादी नजरिया रखने वाली और देश की विविधताओं और संघीय ढांचे की अनदेखी करने वाली कथित रूप से मजबूत सरकार जब जब लोगों पर बलपूर्वक राजनीतिक एकता थोपने का प्रयास करेगी तब तब दूरियां घटने के बजाए बढ़ेंगी और एकता के स्थान पर बिखराव और हिंसक असन्तोष को बढ़ावा मिलेगा। गांधी जी के अनुसार – कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीतिक एकता नहीं है। राजनीतिक एकता तो जोर जबरदस्ती से भी लादी जा सकती है। मगर एकता के सच्चे मानी तो यह है – वह दिली दोस्ती जो किसी के तोड़े न टूटे।

इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेस जन, फिर वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों अपने को हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी वगैरह सभी कौमों का नुमाइंदा समझें। हिंदुस्तान से करोड़ों बाशिंदों में से हर एक के साथ वे अपनेपन का, आत्मीयता का अनुभव करें यानी कि उनके सुख-दुख में अपने को उनका साथी समझें।

इस तरह की आत्मीयता सिद्ध करने के लिए हर एक कांग्रेसी को चाहिए कि वह अपने धर्म से भिन्न धर्म का पालन करने वाले लोगों के साथ निजी दोस्ती कायम करे और अपने धर्म के लिए उसके मन में जैसा प्रेम हो, ठीक वैसा ही प्रेम दूसरे धर्म से भी करे। (रचनात्मक कार्यक्रम, पृष्ठ 11-12)

जम्मू कश्मीर में वर्तमान सरकार द्वारा धारा 370 की समाप्ति जबरन लादी गई राजनीतिक एकता ही है। कश्मीर के लोगों का दिल जीतने की कोई ईमानदार कोशिश किए बिना उन्हें अनिश्चित काल के लिए मूलभूत सुविधाओं से वंचित करते हुए उनसे यह अपेक्षा की जा रही है कि वे स्वयं को सुरक्षित समझें।

फैक्टचेकर.इन ने मीडिया रिपोर्ट्स के आधार पर यह चौंकाने वाले आंकड़े प्रस्तुत किए हैं कि सन 2014 से 2019 की अवधि में देश में धार्मिक घृणा पर आधारित मॉब लिंचिंग की 266 घटनाएं हुईं। यह संख्या विचलित और हताश करने वाली है। इन घटनाओं में एक बड़ी संख्या कथित गोरक्षकों द्वारा की गई मॉब लिंचिंग की है। सन 2016 से 2019 के मध्य नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन द्वारा अल्प संख्यकों एवं दलितों के साथ हुई हिंसा और मॉब लिंचिंग के 2008 मामले दर्ज किए गए जिसमें से 869 अकेले उत्तर प्रदेश से थे। इधर पश्चिम बंगाल के सत्ता संघर्ष में सांप्रदायिकता के जहर का खुल कर इस्तेमाल हो रहा है और मुसलमानों को सड़कों पर नमाज पढ़ने से रोकने के लिए हिन्दू समुदाय भी सड़क पर आरती और हनुमान चालीसा के पाठ जैसे आयोजन कर रहा है।

इस प्रकार हिंसक संघर्ष की स्थिति बार बार बन रही है। यंग इंडिया में आज से लगभग 88 वर्ष पूर्व महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियां इन दोनों दुर्भाग्यपूर्ण और लज्जाजनक प्रवृत्तियों का न केवल सम्पूर्ण विश्लेषण करती हैं बल्कि उनका प्रायोगिक समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। गांधी जी लिखते हैं-  हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी आदि को अपने मतभेद हिंसा का आश्रय लेकर और लड़ाई झगड़ा करके नहीं निपटाने चाहिए। हिंदू और मुसलमान मुंह से तो कहते हैं कि धर्म में जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं है लेकिन यदि हिंदू गाय को बचाने के लिए मुसलमान की हत्या करें तो वह जबरदस्ती के सिवा और क्या है।

यह तो मुसलमान को बलात हिंदू बनाने जैसी ही बात है। इसी तरह यदि मुसलमान जोर-जबरदस्ती से हिंदुओं को मस्जिदों के सामने बाजा बजाने से रोकने की कोशिश करते हैं तो यह भी जबरदस्ती के सिवा और क्या है। धर्म तो इस बात में है कि आसपास चाहे जितना शोरगुल होता रहे फिर भी हम अपनी प्रार्थना में तल्लीन रहें। यदि हम एक दूसरे को अपनी धार्मिक इच्छाओं का सम्मान करने के लिए बाध्य करने की बेकार कोशिश करते रहें तो भावी पीढ़ियां हमें धर्म के तत्वों से बेखबर जंगली ही समझेंगी।

गोरक्षा को मैं हिंदू धर्म का प्रधान अंग मानता हूं। प्रधान इसलिए कि उच्च वर्गों और आम जनता दोनों के लिए यह समान है। फिर भी इस बारे में हम जो केवल मुसलमानों पर ही रोष करते हैं, यह बात किसी भी तरह से मेरी समझ में तो नहीं आती। अंग्रेजों के लिए तो रोज इतनी गाय कटती है किंतु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही हिलाते होंगे।  केवल जब कोई मुसलमान गाय की हत्या करता है तभी हम क्रोध के मारे लाल पीले हो जाते हैं। गाय के नाम से जितने झगड़े हुए हैं उनमें से प्रत्येक में निरा पागलपन भरा शक्ति क्षय हुआ है।

इससे एक भी गाय नहीं बची। उलटे मुसलमान ज्यादा जिद्दी बने हैं और इस कारण ज्यादा गायें कटने लगी हैं। गोरक्षा का प्रारंभ तो हम ही को करना है हिंदुस्तान में पशुओं की जो दुर्दशा है वह ऐसी दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्से में नहीं है। हिंदू गाड़ी वालों को थक कर चूर हुए बैलों को लोहे की तेज आर वाली लकड़ी से निर्दयता पूर्वक हांकते देख कर मैं कई बार रोया हूं। हमारे अधभूखे रहने वाले जानवर हमारी जीती जागती बदनामी के प्रतीक हैं। हम हिंदू गाय को बेचते हैं इसीलिए गायों की गर्दन कसाई की छुरी का शिकार होती है। ऐसी हालत में एकमात्र सच्चा और शोभास्पद  उपाय यही है कि हम मुसलमानों के दिल जीत लें और गाय का बचाव करना उनकी शराफत पर छोड़ दें।

गोरक्षा मंडलों को पशुओं को खिलाने पिलाने, उन पर होने वाली निर्दयता को रोकने, गोचर भूमि के दिन रात होने वाले लोप को रोकने, पशुओं की नस्ल सुधारने, गरीब ग्वालों से उन्हें खरीद लेने और मौजूदा पिंजरापोलों को दूध की आदर्श स्वावलंबी डेयरी बनाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ऊपर बताई हुई बातों में से एक के भी करने में हिंदू चूकेंगे तो वे ईश्वर और मनुष्य दोनों के सामने अपराधी ठहरेंगे। मुसलमानों के हाथ से होने वाले गोवध को  वे रोक न सकें तो इसमें उनके पाप नहीं चढ़ता लेकिन जब गाय को बचाने के लिए मुसलमानों के साथ झगड़ा करने लगते हैं तब वे जरूर भारी पाप करते हैं।

मैंने सुना है कि कई जगह हिंदू लोग जानबूझकर और मुसलमानों का दिल दुखाने के इरादे से ही आरती ठीक उसी समय करते हैं जब मुसलमानों की नमाज शुरू होती है। यह हृदयहीन और शत्रुता पूर्ण कार्य है। मित्रता में मित्र के भावों का पूरा पूरा ख्याल रखा ही जाना चाहिए। इसमें तो कुछ सोच विचार की भी बात नहीं है। लेकिन मुसलमानों को हिंदुओं से डरा धमकाकर बाजा बंद करवाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। धमकियों अथवा वास्तविक हिंसा के आगे झुक जाना अपने सम्मान और धार्मिक विश्वासों का हनन है। लेकिन जो आदमी धमकियों के आगे नहीं झुकेगा, वह जिनसे प्रतिपक्षी को चिढ़ होती हो ऐसे मौके हमेशा यथासंभव कम करने की और संभव हो तो टालने की भी पूरी कोशिश करेगा।

मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि यदि नेता ना लड़ना चाहें तो आम जनता को लड़ना पसंद नहीं है इसलिए यदि नेता लोग इस बात पर राजी हो जाएं कि दूसरे सभ्य देशों की तरह हमारे देश में भी आपसी लड़ाई झगड़ों का सार्वजनिक जीवन से पूरा उच्छेद कर दिया जाना चाहिए और वह जंगलीपन एवं अधार्मिकता के चिह्न माने जाने चाहिए तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी। (यंग इंडिया, 24 दिसंबर 1931)

गांधी जी पर अपना ठप्पा लगाने की दक्षिणपंथी विचारकों की कोशिश कोई नई नहीं है। उन्हें एक कट्टर हिन्दू धर्मावलंबी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास श्री गोलवलकर द्वारा 1969 में लिखे गए एक आलेख में किया गया था- एक ऐसा कट्टर हिन्दू धर्मावलम्बी जो गोवध और धर्मान्तरण रोकने के लिए अपने प्राण तक दे सकता था। किंतु श्री गोलवलकर और महात्मा गांधी की हिन्दू धर्म की समझ बिल्कुल अलग अलग है। गांधी जी के लिए न केवल हिन्दू धर्म अपितु विश्व के सभी धर्म, एकीकरण करने वाली शक्ति के रूप में कार्य करते हैं। जबकि गोलवलकर के लिए हिन्दू धर्म संकीर्ण असमावेशी राष्ट्रवाद की स्थापना का एक आधार है।

महात्मा गांधी रिलिजन को स्पिरिचुअलिटी की सूक्ष्मता प्रदान करते हैं और इस प्रकार कर्मकांडों को गौण बना देते हैं जबकि गोलवलकर की विचारधारा स्थूल धार्मिक प्रतीकों और रूढ़ कर्मकांडों की रक्षा को राष्ट्र गौरव का विषय मानती है। मैं आप सबसे आग्रह करता हूं कि गांधी जी को पढ़ते समय यह ध्यान रखें कि किसी शब्द विशेष का प्रयोग वे किस अर्थ में करते रहे हैं। उदाहरण स्वरूप राम राज्य शब्द को लिया जा सकता है। इसका प्रयोग महात्मा गांधी ने पौराणिक राम राज्य के लिए नहीं अपितु ऐसे राज्य के लिए किया था जो न्यूनतम शासन करता हो।

गांधी जी टॉलस्टॉय और थोरो से प्रभावित थे और एनलाइटेण्ड अनार्की के समर्थक थे। उनका मत था कि आदर्श स्थिति में लोग नैतिक रूप से इतने विकसित हो जाएंगे कि स्वयं को नियमित और नियंत्रित कर सकेंगे, इस दशा में राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी। किंतु आज दक्षिणपंथी शक्तियां गांधी जी के राम राज्य का उपयोग उन्हें अपने खेमे में लाने के लिए कर रही हैं।

गांधी जी के अनुसार – दुनिया में कोई भी एक धर्म पूर्ण नहीं है। सभी धर्म उनके मानने वालों के लिए समान रूप से प्रिय हैं। इसलिए जरूरत संसार के महान धर्मों के अनुयायियों में सजीव और मित्रतापूर्ण संपर्क स्थापित करने की है ना कि हर संप्रदाय द्वारा दूसरे धर्मों की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्ठता जताने की व्यर्थ कोशिश करके आपस में संघर्ष पैदा करने की। ऐसे मित्रतापूर्ण संबंध के द्वारा हमारे लिए अपने अपने धर्मों की कमियों और बुराइयों को दूर करना संभव होगा। (यंग इंडिया, 23 अप्रैल 1931)

किसी भी धर्म में यदि मनुष्य का नैतिक आचार कैसा है इस बात की परवाह न की जाए तो फिर पूजा की पद्धति विशेष- वह पूजा गिरजाघर मस्जिद या मंदिर में कहीं भी क्यों न की जाए- एक निरर्थक कर्मकांड ही होगी, इतना ही नहीं वह व्यक्ति या समाज की उन्नति में बाधा रूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धति के पालन का अथवा अमुक धार्मिक सिद्धांत के उच्चारण का आग्रह, हिंसा पूर्ण लड़ाई झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है। यह लड़ाई झगड़े आपसी रक्तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिसमाप्ति मूल धर्म में यानी ईश्वर में ही घोर अश्रद्धा के रूप में होती है।(हरिजन सेवक, 30-01-1937)

गांधी जी समावेशी राष्ट्रवाद की हिमायत करते हैं। वे हमारी बहुलताओं की स्वीकृति के पक्षधर हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म एक व्यक्तिगत विषय है और राज्य को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कदापि नहीं करना चाहिए। वे धर्म और राजनीति को पृथक रखने का प्रबल आग्रह करते हैं। गांधी जी राष्ट्र के निर्माण और उसके स्थायित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता को प्राथमिक आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे बहुत शालीनता से हमें चेतावनी देते हैं कि सर्व धर्म समभाव की अवधारणा न केवल नैतिक रूप से वरेण्य है अपितु इस पर अमल करना हमारी विवशता भी है क्योंकि इसी प्रकार हम अपनी और अपने राष्ट्र की रक्षा तथा उन्नति कर सकते हैं।

उनका स्पष्ट मत है कि धर्म हमारे देश की नागरिकता का आधार नहीं बन सकता। गांधी जी के अनुसार- हिंदुस्तान में चाहे जिस मजहब के मानने वाले रहें उससे अपनी एकजुटता मिटने वाली नहीं। नए आदमियों का आगमन किसी राष्ट्र का राष्ट्रपन नष्ट नहीं कर सकता। यह उसी में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई देश एक राष्ट्र माना जाता है।

उस देश में नए आदमियों को पचा लेने की शक्ति होनी चाहिए। हिंदुस्तान में यह शक्ति सदा रही है और आज भी है। यूं तो सच पूछिए तो दुनिया में जितने आदमी हैं उतने ही धर्म मान लिए जा सकते हैं। पर एक राष्ट्र बनाकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते। करें तो समझ लीजिए वे एक राष्ट्र होने के काबिल ही नहीं हैं। हिंदू अगर यह सोच लें कि सारा हिंदुस्तान हिंदुओं से ही भरा हो तो यह उनका स्वप्न मात्र है। मुसलमान यह मानें कि केवल मुसलमान इस देश में बसें तो इसे भी दिन का सपना ही समझना होगा। हिंदू मुसलमान पारसी ईसाई जो कोई भी इस देश को अपना देश मानकर यहां बस गए हैं वह सब एक देशी, एक मुल्की हैं।

देश के नाते भाई भाई हैं और अपने स्वार्थ अपने हित खातिर भी उन्हें एक होकर रहना ही होगा। दुनिया में कहीं भी एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं माना गया, हिंदुस्तान में भी कभी नहीं रहा। हिन्दू मुसलमान के बीच सहज बैर की धारणा तो उन लोगों के दिमाग की उपज है जो दोनों के दुश्मन हैं। जब हिंदू मुसलमान एक दूसरे से लड़ते थे तब ऐसी बात जरूर कहते थे और उनकी लड़ाई तो कब की खत्म हो चुकी है। हिंदू मुसलमान के और मुसलमान हिंदू के राज्य में रहते आए हैं। कुछ दिन बाद दोनों ने समझ लिया कि लड़ने झगड़ने में किसी का लाभ नहीं। लड़ने से जैसे कोई अपना धर्म नहीं छोड़ता वैसे ही अपना हक भी नहीं छोड़ता इसलिए दोनों ने आपस में मेलजोल से रहने की ठहरा ली। (हिन्द स्वराज, अध्याय-10, हिंदुस्तान की हालत- 3)

हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए हैं और पले हैं और जो दूसरे किसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों बेनी इजरायलों, हिंदुस्तानी ईसाईयों मुसलमानों और दीगर गैर हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज्य हिंदुओं का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा।

मैं एक ऐसे मिस्र बहुमत की कल्पना कर सकता हूं जो हिंदुओं को अल्पमत बना दे। स्वतंत्र हिंदुस्तान में लोग अपनी सेवा और योग्यता के आधार पर ही चुने जाएंगे। धर्म एक निजी विषय है जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पाई जाती है उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने बनावटी फिरके बन गए हैं। (हरिजन सेवक, 1-08-1942)

जारी..

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