Friday, March 29, 2024

हिंसा अशांत करती है, तोड़ती है और बांटती है: गांधी

1939 में गोलवलकर ने एक पुस्तक लिखी थी- वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड। इस पुस्तक के पांचवें अध्याय में वे यह दर्शाते हैं कि जब तक अल्पसंख्यक समुदाय अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक और  प्रजातीय विशेषताओं का पूर्ण परित्याग नहीं करेंगे और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को नहीं अपनाएंगे तब तक वे भारतवर्ष के नागरिक नहीं बन सकते। गोलवलकर नाजी जर्मनी की प्रशंसा करते हैं कि किस प्रकार उसने नृजातीय शुद्धता हेतु अपने देश से यहूदियों का सफाया कर दिया। सावरकर के अनुसार वे सभी हिन्दू हैं जो इस धरा को अपनी पितृ भूमि और पुण्य भूमि दोनों मानते हैं। उनके अनुसार वैदिक एवं सनातन धर्मावलम्बी, जैन, बौद्ध,लिंगायत, सिख, आर्य समाजी, प्रार्थना समाज, ब्रह्म समाज और देव समाज आदि के अनुयायी तो हिन्दू की परिभाषा में आते हैं किंतु मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी हिन्दू नहीं हो सकते क्योंकि इनकी पुण्य भूमि अर्थात इनके धर्म का उद्गम स्थल हमारे देश में नहीं है।

इसी प्रकार चीनी और जापानी लोग यद्यपि हमारे देश को अपनी पुण्य भूमि मानते हैं किंतु ये भी हिन्दू नहीं हो सकते क्योंकि इनकी पितृ भूमि अर्थात पूर्वजों का उद्गम स्थल अलग है। (हिन्दू राष्ट्रवाद, 1945, पृष्ठ 2) वर्तमान सरकार का नागरिकता संशोधन विधेयक 2019, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के मानने वाले अल्पसंख्यक समुदाय को 12 साल के बजाय छह साल भारत में गुजारने पर और बिना उचित दस्तावेजों के भी भारतीय नागरिकता प्रदान करेगा। इस प्रकार नागरिकता का आधार धर्म को बना दिया गया है। इस बिंदु पर भी गांधी और दक्षिणपंथी शक्तियां दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी नजर आती हैं।

गांधी जी की इतिहास दृष्टि में मध्य काल के इतिहास को हिन्दू मुस्लिम संघर्ष के काल के रूप में देखने की प्रवृत्ति बिल्कुल नहीं थी। वे यह मानते थे कि शासक किसी भी धर्म का हो, यदि वह अत्याचारी है तो उसका अहिंसक प्रतिकार किया जाना चाहिए। यदि आप सब प्रबुद्ध जन इतिहास का सावधानी पूर्वक अध्ययन करें तो आपको यह ज्ञात होगा कि चाहे राजा हिन्दू रहा हो या मुसलमान आम लोगों के जीवन में, किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया था। इन आम लोगों में हिन्दू भी सम्मिलित थे और मुसलमान भी। हिन्दू सैनिक मुसलमान राजाओं को ओर से युद्ध करते थे और मुसलमान सैनिक हिन्दू राजाओं की तरफ से लड़ा करते थे। गांधी जी की दृष्टि में साम्प्रदायिक एकता बनाए रखने का दायित्व बहुसंख्यक समुदाय पर अधिक है क्योंकि वह अधिक शक्तिशाली है, उसे अल्पसंख्यक समुदाय को विश्वास में लेना चाहिए।

किंतु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि जिस स्थान पर जो समुदाय अधिक समर्थ और मजबूत है उसका दायित्व बनता है कि वह अपने सामर्थ्य और सक्षमता का उपयोग दूसरे समुदाय की बेहतरी के लिए करे। गांधी जी यह भी संकेत करते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय यदि निरन्तर अत्याचार करता रहे तो अल्पसंख्यक हिंसा की ओर उन्मुख हो सकते हैं। गांधी जी के मतानुसार – अगर हिंदू लोग विविध जातियों के बीच एकता चाहते हैं तो उनमें अल्पसंख्यक जातियों का विश्वास करने की हिम्मत होनी चाहिए।

यदि हम सत्याग्रह का सही उपयोग करना सीख गए हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि उसका उपयोग किसी भी अन्यायी शासक के खिलाफ – वह हिंदू मुसलमान या अन्य किसी भी कौम का हो-  किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। इसी तरह न्यायी शासक या प्रतिनिधि, हमेशा और समान रूप से अच्छा होता है फिर वह हिंदू हो या मुसलमान। हमें सांप्रदायिक भावना छोड़नी चाहिए। इसलिए इस प्रयत्न में बहुसंख्यक समाज को पहल करके अल्पसंख्यक जातियों में अपनी ईमानदारी के विषय में विश्वास पैदा करना चाहिए। मेल और समझौता तभी हो सकता है जबकि ज्यादा बलवान पक्ष दूसरे पक्ष के जवाब की राह देखे बिना सही दिशा में बढ़ना शुरु कर दे। (यंग इंडिया, 29-05-1924)

अगर स्थिति यह हो कि बड़े संप्रदाय को छोटे संप्रदाय से डर लगता हो तो वह इस बात की सूचक है या तो (1) बड़े संप्रदाय के जीवन में किसी गहरी बुराई ने घर कर लिया है और छोटे संप्रदाय में पशु बल का मद उत्पन्न हुआ है (यह पशु बल राजसत्ता की बदौलत हो या स्वतंत्र हो) अथवा (2) बड़े संप्रदाय के हाथों कोई ऐसा अन्याय होता आ रहा है जिसके कारण छोटे संप्रदाय में निराशा से उत्पन्न होने वाला मर मिटने का भाव पैदा हो गया है। दोनों का उपाय एक ही है बड़ा संप्रदाय सत्याग्रह के सिद्धांतों का अपने जीवन में आचरण करे। वह अपने अन्याय, सत्याग्रही बनकर चाहे जो कीमत चुका कर भी दूर करे और छोटे संप्रदाय के पशु बल को अपनी कायरता को निकाल बाहर करके सत्याग्रह के द्वारा जीते।

छोटे संप्रदाय के पास यदि अधिक अधिकार, धन, विद्या, अनुभव आदि का बल हो और इस बड़े संप्रदाय को उससे डर लगता रहता हो तो छोटे संप्रदाय का धर्म है कि शुद्ध भाव से बड़े संप्रदाय का हित करने में अपनी शक्ति का उपयोग करे। सब प्रकार की शक्तियां तभी पोषण योग्य समझी जा सकती हैं जब उनका उपयोग दूसरे के कल्याण के लिए हो। दुरुपयोग होने से वे विनाश के योग्य बनती हैं और चार दिन आगे या पीछे उनका विनाश होकर ही रहेगा। यह सिद्धांत जिस प्रकार हिंदू- मुसलमान- सिख आदि छोटे-बड़े संप्रदायों पर घटित होते हैं उसी प्रकार अमीर-गरीब, जमींदार-किसान, मालिक-नौकर, ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर इत्यादि छोटे-बड़े वर्गों के आपस में संबंधों पर भी घटित होते हैं।(किशोर लाल मशरूवाला, गांधी विचार दोहन, पृष्ठ 73-74)

हिंदू इतिहासकारों और मुसलमान इतिहासकारों ने उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि जब अंग्रेजों का शासन नहीं था तब हम -हिंदू मुसलमान और सिख- आपस में मिल जुल कर रहते थे। उन दिनों हम बिल्कुल ही नहीं लड़ते थे। यह लड़ाई झगड़ा पुराना नहीं है। (यंग इंडिया 24-12-1931)

गांधी जी को एक पॉलिटिकल थ्योरिस्ट मान कर उनका आकलन करना उनके साथ अन्याय होगा। वह मूलतः एक आध्यात्मिक व्यक्ति थे। भौतिकवाद की बुनियाद पर टिके पूंजीवाद और साम्यवाद से वे कभी सहमत नहीं हो पाए। गाँधी जी ने विनम्रतापूर्वक यह स्वीकारते हुए भी कि वे बोल्शेविज्म को पूर्णतः समझने में असफल रहे हैं इसके बारे में सारगर्भित टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसा कोई भी विचार जो हिंसा और ईश्वर के नकार पर आधारित हो मेरी प्रकृति से मेल नहीं खाता और हिंसा की बुनियाद पर जनकल्याण का कोई स्थायी कार्य नहीं हो सकता। निजी स्वामित्व की समाप्ति यदि स्वैच्छिक और अहिंसक विधि से हो तभी वह वरेण्य है। कालांतर में अनेक साम्यवादी देशों के अप्रिय अनुभव ने यह सिद्ध किया कि गांधी जी की आपत्तियां अकारण और आधारहीन नहीं थीं। साम्यवाद पर आधारित शोषण मुक्त विश्व व्यवस्था बनाने का स्वप्न अधूरा ही रह गया।

गांधी जी वर्ण व्यवस्था के समर्थक रहे, वे जाति प्रथा के वर्तमान स्वरूप से असहमत एवं असन्तुष्ट रहे और अस्पृश्यता के घोर विरोधी एवं कटु आलोचक रहे। भारतीय समाज की दुर्दशा, विघटन और पतन के लिए वर्ण व्यवस्था और जातिवाद को उत्तरदायी मानने वाले आम्बेडकर आदि मनीषियों ने इस कारण गांधी जी की कटु आलोचना भी की। भारतीय समाज के एकीकरण के मार्ग की इन सबसे बड़ी बाधाओं के प्रति गांधी जी का दृष्टिकोण बहुत से लोगों को चकित करता रहा। वे यह समझ पाने में असमर्थ रहे कि सामाजिक गतिशीलता में बाधक और अंतहीन शोषण एवं हिंसक दमन के औजार के रूप में प्रयुक्त होने वाली वर्ण व्यवस्था का समर्थन गांधी जी कैसे कर सकते हैं।

जन्मना जाति और वर्ण के निर्धारण की अनुचित परिपाटी को जिसमें कर्म और योग्यता के लिए कोई स्थान नहीं है, वे कैसे स्वीकार कर सकते हैं। किंतु गांधी जी अपने विचारों पर दृढ़ रहे। उन्होंने दि मॉडर्न रिव्यु में अक्टूबर 1935 में लिखा – वर्ण का नियम आदमियों की अपनी स्वाभाविक सीमाएं तो मानता है किंतु उनमें वह ऊंचे और नीचे का भेद नहीं मानता। कभी कभी ऐसा लगता है कि असमानता प्रकृति प्रदत्त है किंतु समानता के लिए प्रयास करना भी मनुष्यता की रक्षा के लिए उतना ही आवश्यक है।

समानता अप्राप्य है और असमानता की समाप्ति की कोशिश अंतहीन। गांधी जी ने असमानता को मिटाने की चेष्टा धर्म और परंपरा के दायरे में रह कर की। उन्होंने सांसारिक और भौतिक सुविधाओं के समान बंटवारे से अधिक महत्व समाज को समदर्शी बनाने की कोशिशों को दिया  – एक ऐसा समाज जो हर वर्ण और हर वर्ग के लोगों को समान आदर एवं सम्मान प्रदान करता था, जिसकी दृष्टि में कोई भी छोटा-बड़ा नहीं था, कोई भी घृणा या तिरस्कार का पात्र नहीं था। किंतु समाज की नैतिक चेतना को अपने स्वयं के स्तर तक उठाने का उनका ईमानदार प्रयास अनेक आध्यात्मिक पुरुषों की पिछली कोशिशों की भांति नाकामयाब ही रहा।

गांधी जी के लिए विश्व शांति आंतरिक शांति का प्रक्षेपण मात्र थी। उनके आर्थिक दर्शन का मूल मंत्र था- केवल अपनी जरूरत भर के लिए अनाज और अन्य आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, आवश्यकता से अधिक संचय न करना। वे यह मानते थे कि लोभ हमारी अशांति का मूल कारण है। लोभ ही समाज में गैर बराबरी और पारस्परिक वैमनस्य के लिए उत्तरदायी है। लोभ ही विस्तारवादी सोच के लिए जिम्मेदार है जिसने अनंत युद्धों को जन्म दिया है। लोभ के वशीभूत होकर हम प्रकृति के साथ हिंसक छेड़छाड़ करते हैं। हमने मनुष्य विरुद्ध प्रकृति का एक हिंसक दर्शन प्रतिपादित कर मनुष्य और प्रकृति के साहचर्य एवं सहज आंतरिक एकता को भंग कर दिया है।

गांधी जी यह विश्वास करते थे कि हिंसा अशांत करती है, तोड़ती है, बांटती है। हिंसा नाभिकीय चेन रिएक्शन की भांति है- एकबार शुरू हो गई तो फिर रोकना असंभव है। अहिंसा स्थायी शांति का स्रोत है। यह लोगों को जोड़ती है। उनमें संवाद स्थापित करती है। हो सकता है कि प्रकृति ने किसी को अधिक और किसी को कम योग्य बनाया हो किंतु हम तो समदर्शी और समवर्ती बन सकते हैं और पूरे विश्व को अपना परिवार समझ सकते हैं। गांधी जी ने विश्व शांति एवं विश्व व्यवस्था के अपने स्वप्न को बार बार अभिव्यक्ति दी है- 

जब भारत स्वावलंबी और स्वाश्रयी बन जाएगा और इस तरह न तो खुद किसी की संपत्ति का लोभ करेगा और ना अपनी संपत्ति का शोषण होने देगा तब वह पश्चिम या पूर्व के किसी भी देश के लिए- उसकी शक्ति कितनी भी प्रबल क्यों न हो- लालच का विषय नहीं रह जाएगा और तब वह खर्चीले शस्त्रास्त्रों  का बोझ उठाए बिना ही अपने को सुरक्षित अनुभव करेगा। उसकी यह भीतरी स्वाश्रयी अर्थव्यवस्था बाहरी आक्रमण के खिलाफ सुदृढ़तम ढाल होगी। ———— यदि मैं अपने देश के लिए आजादी की मांग करता हूं तो आप विश्वास कीजिए कि मैं यह आजादी इसलिए नहीं चाहता कि मेरा बड़ा देश जिसकी आबादी संपूर्ण मानव जाति का पाँचवाँ हिस्सा है, दुनिया की किसी भी दूसरी जाति का या किसी भी व्यक्ति का शोषण करे।————– मेरी आकांक्षा का लक्ष्य स्वतंत्रता से ज्यादा ऊंचा है।

भारत की मुक्ति के द्वारा मैं पश्चिम के भीषण शोषण से दुनिया के कई निर्बल देशों का उद्धार करना चाहता हूं। भारत के अपनी सच्ची स्थिति को प्राप्त करने का अनिवार्य परिणाम यह होगा कि हर एक देश वैसा ही कर सकेगा और करेगा। यदि मैं अपने देश की आजादी चाहता हूं तो मुझे यह मानना ही चाहिए कि प्रत्येक दूसरी सबल या निर्बल जाति को भी आजादी का वैसा ही अधिकार है।————– मैं अत्यंत नम्रता पूर्वक यह सुझाने का साहस करता हूं कि यदि भारत ने अपना लक्ष्य सत्य और अहिंसा की राह से प्राप्त करने में सफलता पाई तो उसकी यह सफलता जिस विश्व शांति के लिए दुनिया के तमाम राष्ट्र तड़प रहे हैं उसे नजदीक लाने में मूल्यवान कदम सिद्ध होगी। ———-दुनिया के सुविचारशील लोग आज ऐसे पूर्ण स्वतंत्र राज्यों को नहीं चाहते जो एक दूसरे से लड़ते हैं बल्कि एक दूसरे के प्रति मित्र भाव रखने वाले अन्योन्याश्रित राज्यों के संघ को चाहते हैं। भले ही इस उद्देश्य की सिद्धि का दिन बहुत दूर हो। (यंग इंडिया, ,02-07-1931,01-10-1931, 12-01-1928,12-03-1931,26-12-1924)

आज जिस भारत के निर्माण का प्रयास हो रहा है वह गांधी जी के सपनों का भारत तो कदापि नहीं है। संकीर्ण और उग्र धार्मिक बहुसंख्यकवाद को राष्ट्रवाद के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और इस प्रकार हमारी बहुलवादी सामासिक सर्वसमावेशी संस्कृति का घोर निरादर किया जा रहा है। बहुसंख्यक धर्मावलंबियों की मनमानी का तर्क शायद हममें से बहुत से लोगों को अपने लिए सुविधाजनक, लाभकारी और आकर्षक लगे किंतु न तो यह हमारी आध्यात्मिक परंपरा से संगत है, न ही मनुष्यता की बुनियादी कसौटियों पर खरा उतरता है। सबसे बढ़कर यह हमारे देश के बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी विन्यास को देखते हुए आत्मघाती है। 

गांधी को परास्त किए बिना उग्र धार्मिक राष्ट्रवाद की हिमायत करने वाली दक्षिणपंथी शक्तियों का हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना साकार नहीं हो सकता। इस विचारधारा के उन्माद से ग्रस्त एक हिंसक अपराधी ने गांधी जी के शरीर की हत्या कर दी, किंतु गांधी जी के विचार इन ताकतों की राह का रोड़ा बने हुए थे। अब जो अभियान चल रहा है वह गांधी जी को वैचारिक रूप से समाप्त करने पर केंद्रित है।

उनकी अपार जन स्वीकृति एवं लोकप्रियता के रहते ऐसा करना असंभव है। इसलिए सोशल मीडिया के माध्यम से उनकी चरित्र हत्या का एक सुनियोजित घृणित अभियान चलाया जा रहा है। मुख्यधारा के मीडिया का उपयोग गांधी जी की एक ऐसी छवि गढ़ने के लिए किया जा रहा है जिसकी भौतिक रूपाकृति तो गांधी जी से मिलती जुलती है लेकिन जिसकी आत्मा गांधी की नहीं है।

हम बुद्धिजीवियों को इन कुप्रयासों का प्रतिरोध गांधीवादी तरीके से ही करना होगा। हमें गांधी को उनकी समग्रता में यथारूप युवा पीढ़ी के सम्मुख रखना होगा। जिस विचारधारा से हमारा मुकाबला है वह हमें हिंसा और प्रतिशोध के रास्ते पर धकेलने की कोशिश करेगी। हम बुद्धिजीवी हैं, शारीरिक हिंसा में हमारा विश्वास नहीं है किंतु भाषिक और वैचारिक हिंसा जरूर हमें आकर्षित कर सकती है। हमें अपने प्रतिरोध को प्रतिशोध में बदलने से रोकना होगा। एक बड़ी गलती हमसे यह हो रही है कि हमारे अधिकांश बौद्धिक प्रयास कट्टरपंथी शक्तियों द्वारा बनाए जा रहे नैरेटिव की प्रतिक्रिया स्वरूप ही हैं। हम न तो कोई वैचारिक इनिशिएटिव ले रहे हैं न ही अपने विचारों को फैलाने के लिए कोई नई सकारात्मक पहल कर पा रहे हैं। दूसरे हमने स्वयं को सोशल मीडिया की दुनिया तक सीमित कर लिया है।

जिस प्रकार गांधी जी रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिए आम लोगों से जुड़ने का परामर्श देते थे उसी प्रकार हमें विभिन्न गतिविधियों द्वारा समाज के अलग अलग तबकों को गांधीवाद की अहमियत से परिचित कराना होगा। तीसरी गलती हमसे यह हो रही है कि हम अपनी तेजस्विता का उपयोग ऐसे राजनीतिक दलों को मजबूती देने के लिए कर रहे हैं जो स्वयं इस दक्षिणपंथी उभार के आगे खुद को बेबस और लाचार पा रहे हैं। यदि हमने गांधीवाद को जरा भी आत्मसात किया है तो अन्याय का अहिंसक प्रतिकार और सत्याग्रह अभी और यहीं प्रारंभ किया जा सकता है, अपने प्रयासों को किसी राजनीतिक संगठन की प्रतीक्षा में स्थगित रखने की कोई आवश्यकता नहीं है।

कई बार हमारा वैचारिक शुद्धता का आग्रह हमें वैचारिक अस्पृश्यता की ओर खींच लेता है। हम अपने से विरोधी विचार रखने वालों से संवाद ही बंद कर देते हैं। यह गांधी की विधि नहीं है, संवाद और विचार विनिमय कभी बंद नहीं होना चाहिए। आइए गांधी को स्मारकों, संग्रहालयों और भव्य प्रतिमाओं की कैद से बाहर निकालें और उन्हें जन जन तक पहुंचा दें। गांधी की पूजा हम सब बहुत कर चुके अब जरा उन्हें जीकर देखें।

समाप्त

(लेखक डॉ. राजू पाण्डेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में रहते हैं।)

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