Saturday, April 20, 2024

एक ऐतिहासिक विवाद का पटाक्षेप करने के लिए राजनाथ सिंह को धन्यवाद!

इसे स्थिति का व्यंग्य कहा जाए या व्यंग्य की स्थिति कि जो व्यक्ति महात्मा गांधी की हत्या का मास्टर माइंड माना गया था लेकिन अदालत में तकनीकी कारणों से संदेह का लाभ पाकर बरी हो गया था, उसे महान देशभक्त और स्वाधीनता सेनानी साबित करने के लिए उसके समर्थकों को अब महात्मा गांधी का ही सहारा लेना पड़ रहा है। देश के रक्षा मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह ने दावा किया है कि विनायक दामोदर सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने पर अंग्रेज हुकूमत से माफी मांगी थी। राजनाथ सिंह ने यह दावा सावरकर पर लिखी गई एक पुस्तक के विमोचन समारोह में किया।
दरअसल सावरकर का अंग्रेजी हुकूमत को माफीनामा लिख कर जेल से छूटना और फिर 60 रुपए मासिक पेंशन लेते हुए खुद को आजादी की लड़ाई से अलग कर लेना एक सुस्थापित तथ्य है।

यह तथ्य जब-जब चर्चा में आता है तब-तब सावरकर को अपना वैचारिक पुरखा मानने वाले आरएसएस और भाजपा के नेता बगलें झांकने लगते हैं या फिर वे इस तथ्य को ही खारिज करने लगते हैं कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। लेकिन राजनाथ सिंह ने सावरकर के माफी मांगने की बात स्वीकार कर एक तरह से हमेशा के लिए इस विवाद का समापन कर दिया कि सावरकर ने माफी मांगी थी या नहीं। इस मौके पर आरएसएस के सुप्रीमो मोहन भागवत ने कहा कि सावरकर के बारे में सही जानकारी का अभाव है और आजादी के बाद से ही उन्हें बदनाम करने की मुहिम जारी है।

गौरतलब है कि सावरकर की मृत्यु देश की आजादी के करीब 18 वर्ष बाद 26 फरवरी, 1966 को हुई थी। सवाल उठता है कि अगर सावरकर इतने ही महान थे, जितना कि राजनाथ सिंह और मोहन भागवत बता रहे हैं तो आजादी के बाद जब तक सावरकर जीवित रहे उस दौरान जनसंघ (वर्तमान भाजपा) या आरएसएस ने उनसे दूरी बना कर क्यों रखी? उनकी सुध क्यों नहीं ली? उन्हें गुमनामी में क्यों मरना पड़ा?
बहरहाल, राजनाथ सिंह के बयान का मोहन भागवत ने भी न तो खंडन किया और न ही उससे किसी तरह की असहमति जताई। यानी आरएसएस ने भी आधिकारिक तौर पर यह मान लिया है कि सावरकर ने जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी। अब भविष्य में आरएसएस या भाजपा का कोई भी नेता सावरकर के माफी मांगने की बात को नकार नहीं पाएगा।

हालांकि राजनाथ सिंह का यह कहना सरासर बकवास है कि सावरकर ने गांधीजी के कहने पर माफी मांगी थी। सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत से एक बार नहीं, कई बार माफी मांगी और जेल से बाहर आए, इस बात के तो ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं, जिन्हें कोई नकार नहीं सकता। लेकिन उन्हें माफी मांगने की सलाह महात्मा गांधी ने दी थी, इस बात का कोई ऐतिहासिक आधार या साक्ष्य नहीं है।

ऐतिहासिक और जगजाहिर तथ्य यह है कि सावरकर ने अप्रैल 1911 में अंडमान-निकोबार की सेल्यूलर जेल जिसे कालापानी कहा जाता है, में जाने के कुछ ही दिनों बाद अपनी रिहाई के लिए दया याचिका दायर कर दी थी। उसके बाद उन्होंने कुल चार और दया याचिकाएं दायर कीं। सावरकर को जब जेल में डाला गया था तब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। वे 1915 में भारत लौटे थे, तब तक सावरकर कुल तीन दया याचिकाएं दायर कर चुके थे। इसलिए सवाल उठता है कि उन्होंने गांधी के कहने पर माफी कैसे मांगी? उस समय तो संचार के साधन भी आज जैसे उन्नत नहीं थे और न ही सावरकर को जेल में किसी से फोन पर बात करने या पत्र-व्यवहार करने की सुविधा उपलब्ध थी।

राजनाथ सिंह के दावे के परिप्रेक्ष्य में सवाल यह भी उठता है कि जिन महात्मा गांधी ने पूरे स्वाधीनता संग्राम के दौरान खुद कभी भी अंग्रेजी हुकूमत से किसी भी बात के लिए माफी नहीं मांगी और न ही अपने किसी सहयोगी को माफी मांगने के लिए प्रेरित किया, वे महात्मा गांधी सावरकर को माफी मांगने की सलाह कैसे दे सकते थे? और फिर एक तथ्य यह भी है कि दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी जी की सावरकर से कभी कोई मुलाकात नहीं हुई। उनकी सावरकर से एकमात्र मुलाकात 1906 में लंदन के इंडिया हाउस में हुई थी। इसलिए यह कहना बेबुनियाद है कि गांधी जी ने सावरकर को माफी मांगने की सलाह दी थी।

दक्षिण अफ्रीका से गांधी जी के भारत लौटने से पहले सावरकर ने 1913 में जो दया याचिका दायर की थी, उसमें उन्होंने लिखा था:
”अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक और अंग्रेज़ सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है।’’
इसी दया याचिका यानी माफी अर्जी में सावरकर ने आगे लिखा, ”जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारों वफ़ादार प्रजाजनों के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में नारे लगाएंगे, उस सरकार के पक्ष में जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है।’’

सावरकर ने आगे लिखा, ”इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा। मुझे जेल मे रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है।’’इसी माफ़ी की अर्ज़ी मे सावरकर ने यह भी लिखा, ”जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है। आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे।’’

इस माफी अर्जी के बाद 1918 और1920 में भी सावरकर ने दया याचिकाएं दायर कीं। किसी भी देशभक्त को शर्मसार करने वाली उनकी दया याचिकाओं की भाषा के आधार पर क्या कोई कह सकता है कि ये याचिकाएं सावरकर ने गांधी जी की सलाह पर दायर की होंगी?

मई 1921 में सावरकर माफी मांग कर जेल से बाहर आए और उसके बाद उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जो अंग्रेजी हुकूमत को नागवार गुजरे। यही नहीं, 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’शुरू होने के साथ ही जब भारतीय स्वाधीनता संग्राम अपने निर्णायक दौर में पहुंच गया था, तब भी सावरकर उस आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों की तरफदारी कर रहे थे। यही नहीं, उन्होंने जेल से छूटने के बाद अपना पूरा समय हिंदुओं और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के काम में लगाया, जो कि अंग्रेजी हुकूमत की मंशा के अनुरूप था।
मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र यानी पाकिस्तान बनाने की खब्त मुस्लिम लीग के नेताओं के दिमाग पर तो 1936 में सवार हुई थी, जिससे बाद में मुहम्मद अली जिन्ना भी सहमत हो गए थे। पाकिस्तान बनाने का संकल्प या औपचारिक प्रस्ताव 1940 में 22 से 24 मार्च तक लाहौर में हुए मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पारित किया गया था। लेकिन इससे पहले भी तीन साल पहले हिंदुत्ववादियों की ओर से औपचारिक तौर पर दो राष्ट्र का सिद्धांत पेश कर दिया गया था।

गांधी की हत्या के मास्टर माइंड के तौर पर अभियुक्त रहे विनायक दामोदर सावरकर ने 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में साफ-साफ शब्दों में कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं, जो कभी साथ रह ही नहीं सकते। हालांकि यह विचार वे 1921 में अंडमान की जेल से माफी मांगकर छूटने के बाद लिखी गई अपनी किताब ‘हिंदुत्व’में पहले ही व्यक्त कर चुके थे।

गांधी के नाम का दुरुपयोग कर सावरकर को महान देशभक्त और स्वाधीनता सेनानी बताना स्पष्ट रूप से इतिहास से मुंह चुराने या उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश है, लेकिन ऐसी कोशिश करने वाले यह भूल जाते हैं कि इतिहास कलंकित हो या गौरवशाली, वह हमेशा हमारे सामने रहता है, उससे पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। राजनाथ सिंह या मोहन भागवत इस तथ्य को कैसे नकार सकते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जिस समय नेताजी सुभाषचंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने की रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी समय सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में हर तरह की मदद दिए जाने के पक्ष में थे।

1941 में बिहार के भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का ऐलान किया था। उन्होंने कहा था, ”देश भर के हिदू संगठनवादियों (हिन्दू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिन्दुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है, वह एक ख़तरा भी है और एक मौका भी।’’ इसके आगे सावरकर ने कहा था, ”सैन्यीकरण आंदोलन को तेज किया जाए और हर गांव-शहर में हिन्दू महासभा की शाखाएं हिन्दुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में तथा सैन्य सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा देने के काम में सक्रियता से जुड़े।’’

इससे पहले 1940 के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में हिन्दू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिन्दुओं को अंग्रेजों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं। जब आज़ाद हिन्द फ़ौज जापान की मदद से अंग्रेजी फ़ौज को हराते हुए पूर्वोत्तर में दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने अपनी उसी सैन्य टुकड़ी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर ने अहम भूमिका निभाई थी।
लगभग उसी दौरान यानी 1941-42 में बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर सरकार बनाई थी। हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस साझा सरकार में वित्त मंत्री बने थे। उस सरकार के प्रधानमंत्री मुस्लिम लीग के नेता एके फजलुल हक थे, जिन्होंने भारत का बंटवारा कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पेश किया था।

कुल मिलाकर सारे ऐतिहासिक तथ्य यही बताते हैं कि अंग्रेजों से माफी तो मांगी थी लेकिन इसके लिए उन्हें गांधीजी ने कोई सलाह नहीं दी थी। सावरकर ने जेल से बाहर आने के लिए जो माफी मांगी थी वह आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए नहीं बल्कि आजादी की लड़ाई को कमजोर करने के लिए मांगी थी। जेल छूटने के बाद उन्होंने ऐसा किया भी, जिसके बदले में अंग्रेज हुकूमत से उन्हें पुरस्कार स्वरुप 60 रुपए प्रतिमाह पेंशन भी मिली जो देश के आजाद होने तक मिलती रही।

बहरहाल राजनाथ सिंह ने सावरकर के माफी मांगने की बात स्वीकार कर लंबे समय से चले आ रहे एक विवाद का आधिकारिक तौर पर पटाक्षेप कर दिया है, लिहाजा इसके लिए उनको धन्यवाद दिया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्होंने महात्मा गांधी के नाम से जिस सफेद झूठ और मनगढंत तथ्य का सहारा लिया है वह निहायत ही शर्मनाक और निंदनीय है।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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