Sunday, April 28, 2024

तो अब जरा न्यूयॉर्क टाइम्स की भी बात कर लें!

अमेरिका के सबसे बड़े अखबारों में से एक न्यूयॉर्क टाइम्स ने बीते पांच अगस्त को एक लंबी रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक हैः चीनी प्रोपेगेंडा के विश्वव्यापी जाल के तार एक बड़े अमेरिकी टेक्नोलॉजी कारोबारी से जुड़े हैं। मीडिया के छात्रों के लिए यह रिपोर्ट खास दिलचस्पी का टॉपिक होना चाहिए- इसलिए कि इसे पढ़ कर समझा जा सकता है कि बिना कोई ऐसा साक्ष्य सामने रखे, जिससे किसी कानून के उल्लंघन की बात सामने आती हो, किसी व्यक्ति या संस्था को कलंकित करने की कहानी कैसे गढ़ी और प्रकाशित की जा सकती है।

कहानी श्रीलंकाई मूल के अमेरिकी कारोबारी नेविल रॉय सिंघम की है, जो अब अपना कारोबार चीन तक फैलाते हुए शंघाई में भी अपना एक दफ्तर चला रहे हैं। अखबार ने आरोप लगाया है कि सिंघम आज दुनिया भर में बहुत से संगठनों और मीडिया संस्थानों को चंदा दे रहे हैं। कहा गया है कि ‘सिंघम चीन सरकार की मीडिया मशीन के साथ निकट संबंध बना कर काम करते हैं और दुनिया भर में चीनी प्रोपेगैंडा के लिए धन उपलब्ध करवा रहे हैं।’ साक्ष्य के तौर पर बताया गया है कि 69 वर्षीय सिंघम पिछले महीने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से आयोजित के एक कार्यशाला में शामिल हुए थे।

न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक सिंघम पर ये आरोप हैः वे लंबे समय से माओवाद के प्रशंसक हैं- उस विचारधारा के जिसकी वजह से आधुनिक चीन का उदय हुआ। उन्होंने वेनेजुएला में वामपंथी राष्ट्रपति उगो चावेज के शासन की तारीफ की थी और वेनेजुएला को ‘अनोखा लोकतांत्रिक स्थान’ कहा था। एक दशक पहले जब वे चीन गए, तब उन्होंने कहा था कि दुनिया शासन के प्रति चीन के नजरिए से सीख ले सकती है। शंघाई में उनके दफ्तर में एक ऐसी कंपनी का भी दफ्तर है, जिसका लक्ष्य दुनिया को चीन में हुए चमत्कारी विकास के बारे में जानकारी देना है।

इसी रिपोर्ट में भारत के वेब पोर्टल न्यूज-क्लिक का भी उल्लेख हुआ है। इसका जिक्र उन मीडिया संस्थानों की सूची में हुआ है, जिन्हें सिंघम से चंदा मिला है। कहा गया है कि न्यूज-क्लिक के कवरेज में चीन सरकार के “टॉकिंग प्वाइंट्स” भरे पड़े हैं। उसके एक वीडियो में कहा गया- ‘चीन का इतिहास श्रमिक वर्ग के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।’

न्यूज-क्लिक ने अपने जवाबी बयान में कहा है कि विदेशी स्रोत से चंदा लेने के मामले में उस पर भारतीय जांच एजेंसियों ने छापा मारा था। यह मामला न्यायालय के विचाराधीन है। इसलिए उसने इस बारे में कुछ कहने से इनकार किया है। चूंकि मामला न्यायालय में है, इसलिए इस वेबसाइट विशेष के बारे में कुछ कहना उचित नहीं होगा। वैसे भी हमारी राय है कि न्यूज-क्लिक अपना बचाव खुद करने में सक्षम है।

उधर अमेरिका में सिविल सोसायटी के जिन संगठनों और मीडिया संस्थानों का जिक्र न्यूयॉर्क टाइम्स ने किया है, उनकी तरफ से सात अगस्त को एक बयान जारी किया गया। इसमें कहा गयाः ‘जिस समय अमेरिकी सरकार वैधता के एक बड़े संकट से जूझ रही है, उसमें यह भय समा गया है कि युवा वर्ग दुनिया को बदलने के लिए जागरूक और संगठित होने लगेगा। न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे मीडिया घरानों ने परिवर्तन के इन पैराकारों को धमकाने के लिए दक्षिणपंथी चरमपंथियों से हाथ मिला लिया है। उसका खराब प्रभाव ना सिर्फ वामपंथी शक्तियों पर, बल्कि उन तमाम लोगों पर पड़ रहा है, जो अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक अधिकारों में यकीन करते हैं।’

इस बयान में कहा गया कि अमेरिकी विदेश नीति की आलोचना करने वाले व्यक्तियों और संगठनों के खिलाफ मैकार्थी युग जैसे हमले शुरू कर दिए गए हैं। ठीक उसी तरह जैसे एक समय रेड स्केयर (कम्युनिस्ट/सोशलिस्ट विचार को लेकर भय) फैलाया गया था। जोसेफ मैकार्थी 1940 और 1950 के दशकों में अमेरिका में सीनेटर थे, जिनकी पहल और अगुआई में तब वहां कम्युनिस्ट विचार के व्यक्तियों और संगठनों के खिलाफ दमन का अभियान चलाया गया था। इस दरम्यान सैकड़ों लोगों को निशाना बनाया गया। बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों को विश्वविद्यालयों और अन्य स्थलों से नौकरी से निकाला गया और कम्युनिस्ट होने के शक में अनेक लोग जेल में भी डाल दिए गए थे।

अब जबकि अमेरिका और चीन के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है, ऐसी एक धारणा बनी है रेड स्केयर का वही दौर अमेरिका में वापस लौट रहा है। इसमें एक बार फिर अमेरिकी मीडिया बड़ी भूमिका निभा रहा है। पिछले सात दशकों में दुनिया में अमेरिका का वर्चस्व और प्रभाव बनने और बने रहने का एक बड़ा कारण उसका कथित सॉफ्ट पॉवर है, जो सारी घटनाओं और सोच को अमेरिकी हितों के नजरिए से दुनिया भर में प्रचारित करता रहा है। वहां का मेनस्ट्रीम मीडिया इस पॉवर का एक बड़ा स्तंभ है।

यह एक बड़ा विषय है और इस बारे में अनगिनत किताबें लिखी गई हैं। नॉम चोम्स्की जैसे विद्वानों ने अपने शोध और विश्लेषणों से दुनिया को बताया है कि अमेरिकी मीडिया ने अपने धुआंधार प्रचार से (अमेरिकी शासक वर्ग के हितों के अनुरूप) “सहमति के निर्माण” में कैसी भूमिका निभाई है। इसमें हर बड़े अमेरिकी और पश्चिमी मीडिया की संस्थान की भूमिका इतनी विस्तृत है कि उसका उल्लेख किसी एक लेख में नहीं समा सकता। बहरहाल, चूंकि रिपोर्ट न्यूयॉर्क टाइम्स ने छापी है, तो सिर्फ हाल के दशकों में उसकी रही भूमिका की कुछ बानगियों पर नजर डाल लेना यहां उपयोगी होगा।

भारत जैसे देशों में न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबारों की बहुत प्रतिष्ठा है। चूंकि यहां सूचना और एक हद तक ज्ञान के स्रोत भी पश्चिमी संस्थान रहे हैं, जिस कारण बौद्धिक जगत पर पश्चिम का उपनिवेश आज भी लगभग कायम है, इसलिए वहां के मीडिया की प्रतिष्ठा बरकरार रहने में हैरत की कोई बात नहीं है। यही कारण है कि भारत में भारतीय मीडिया के स्वरूप और चरित्र पर तो खूब चर्चा होती है, लेकिन अक्सर पश्चिमी मीडिया के ठीक वैसे ही स्वरूप और चरित्र का उल्लेख नहीं होता।

नतीजा है, भारतीय मीडिया बेहिचक उन्हीं मीडिया संस्थानों से सूचना प्राप्त कर उनकी मनमाफिक सहमति निर्माण में एम्प्लीफायर की भूमिका निभाता रहता है। विडंबना यह है कि भारतीय मीडिया के अनेक आलोचक भी पश्चिमी मीडिया के प्रशंसक बने रहते हैं। उन पश्चिमी मीडिया घरानों में न्यूयॉर्क टाइम्स का विशेष स्थान है।

लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स की असली भूमिका क्या है? कुछ बानगी देखते हैः

जून 2019 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया था कि वह अपनी कुछ स्टोरीज को प्रकाशन से पूर्व मंजूरी के लिए अमेरिका सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारियों के पास भेजता है।

इसके पहले इसी अखबार के संवाददाता जेम्स राइजेन और कुछ अन्य पत्रकार यह आरोप लगा चुके थे कि न्यूयॉर्क टाइम्स और अन्य मीडिया घराने अमेरिका सरकार के साथ मिलीभगत के अंदाज में काम करते हैं और उन रिपोर्टों को प्रकाशित नहीं करते, जिन्हें बड़े अधिकारी रोकना चाहते हैं।

अमेरिका में मीडिया की पड़ताल करने वाली एक वेबसाइट ने अपनी एक शोध-परक रिपोर्ट में बताया था कि अमेरिका में सरकार, सेना और मीडिया दरअसल एक ही प्रतिष्ठान के रूप में काम करते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स और वॉशिंगटन पोस्ट जैसे अखबारों के ज्यादातर विशेषज्ञ उन्हीं थिंक टैंक्स से आते हैं, जिनसे विभिन्न प्रशासनों में सेवा देने वाले विशेषज्ञ भी जाते हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़े और उग्र सैन्य रुख वाले थिंक टैंक सेंटर फॉर ए न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी की पृष्ठभूमि वाले विशेषज्ञों का खास उल्लेख इस रिपोर्ट में किया गया था।

यह भी बताया गया था कि इन थिंक टैंक्स को अमेरिका रक्षा मंत्रालय पेंटागन से चंदा मिलता है। साथ ही हथियार बनाने वाली कई बड़ी कंपनियां भी इन्हें चंदा देने वालों में शामिल हैं। ये वो कंपनियां हैं, जिनका हित युद्ध का माहौल गरमाए रखने से जुड़ा हुआ है।

इस आधार पर यह धारणा प्रचलित है कि अमेरिकी शासक वर्ग और वहां के मिलटरी-इंडस्ड्रियल कॉम्पलेक्स के हितों के मुताबिक थिंक टैंक्स खास नैरेटिव तैयार करते हैं, जिन्हें अमेरिकी (दरअसल, पूरा पश्चिमी) मीडिया एम्प्लीफाई कर प्रचारित करता है।

न्यूयॉर्क टाइम्स की युद्ध का माहौल गरमाने में क्या भूमिका रही है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो 2003 में इराक पर हुए अमेरिकी हमले के लिए बनाया गया माहौल ही है। इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के पास ‘व्यापक विनाश करने में सक्षम हथियार हैं’ इस बारे में इस अखबार ने लंबी रिपोर्टें छापी थीं।

तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के प्रशासन ने उन्हीं हथियारों का बहाना बना कर इराक पर हमला किया, जिस कारण कम से कम दस लाख लोगों की जान गई। इराक जैसा फूलता-फलता देश उस युद्ध के कारण तबाह हो गया। लेकिन वहां व्यापक विनाश में सक्षम एक भी हथियार नहीं मिला। उस युद्ध अपराध में अपनी भूमिका को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स ने आज तक माफी नहीं मांगी है।

इस तरह इस अखबार से और कितने विवाद जुड़े हैं, उसको लेकर विकीपीडिया पर एक लंबा अध्याय ही मौजूद है।

हाल में इस अखबार ने वामपंथी पत्रकार बेन नॉर्टन को ‘कलंकित करने’ के उद्देश्य से एक रिपोर्ट छापी। बेन नॉर्टन ने अपनी चर्चाओं में जिक्र किया था कि किस तरह 2014 में यूक्रेन में वहां के तत्कालीन निर्वाचित राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के तख्ता पलट को अमेरिकी योजना के तहत अंजाम दिया गया था। इस पर न्यूयॉर्क टाइम्स ने नॉर्टन पर ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’ (षडयंत्र की झूठी कहानी) फैलाने का आरोप लगाया। तब नॉर्टन ने यह खुलासा किया, उन्होंने जिन तथ्यों का उल्लेख किया, 2014 में खुद न्यूयॉर्क टाइम्स ने उन्हें प्रकाशित किया था। लेकिन अब चूंकि यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध चल रहा है, तो टाइम्स को अपनी ही पुरानी रिपोर्टें ‘षडयंत्र’ नजर आने लगीं।

नॉर्टन ने उसके बाद अनेक उदाहरणों का जिक्र करते हुए लिखाः “यह एक सिद्ध तथ्य है कि न्यूयॉर्क टाइम्स अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा विभाग से मिल कर काम करता है।..अमेरिका में युद्ध विरोधी आवाजों की आलोचना करने का उसका लंबा और अगरिमापूर्ण इतिहास है। दूसरी तरफ वियतनाम से लेकर इराक, लीबिया और सीरिया तक के युद्धों के मामले में उसका इतिहास गोपनीय सरकारी अधिकारियों के झूठे दावों को फैलाने का रहा है, ताकि उन युद्धों को जायज ठहराया जा सके।”

अब न्यूयॉर्क टाइम्स ने चीन के टॉकिंग प्वाइंट्स को आगे बढ़ाने वाले मीडिया संस्थानों का दुनिया भर में जाल फैलने और उसे मदद देने में सिंघम की भूमिका पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। सिंघम के पिता मार्क्सवादी कार्यकर्ता थे। सिंघम खुद को भी सोशलिस्ट बताते हैं। हालांकि बाद में उन्होंने अमेरिकी की नागरिकता ले ली और वहां सॉफ्टवेयर और हाई टेक के कारोबार में करोड़ों डॉलर का बिजनेस खड़ा कर लिया। अब जैसा कि ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि वे शंघाई से अपना कारोबार चला रहे हैं और चीन समर्थक विश्वव्यापी प्रचार में भूमिका निभा रहे हैं। संकेतों और वक्रोक्तियों के जरिए यह संदेश दिया गया है कि सिंघम असल में चीन सरकार के फ्रंट मैन हैं।

हालांकि न्यूयॉर्क टाइम्स ने सिंघम का स्पष्टीकरण भी अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है, लेकिन हम इस बारे में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं कि सिंघम की चीन सरकार के प्रचार विभाग से कितनी निकटता है, या उससे उनका किस तरह का संबंध है। बहरहाल, न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट की मुश्किल यह है कि उसमें यह नहीं बताया गया है कि सिंघम ने चंदा देकर अमेरिका या किसी अन्य देश के किस कानून का उल्लंघन किया या जिन्हें उन्होंने चंदा दिया, वे अपने देशों में किन कानूनों को तोड़ रहे हैं।

अधिक से अधिक सिंघम और उन संगठनों के बारे में यह बात कहने की कोशिश की गई है कि वे सभी चीन के व्यापक प्रचार तंत्र का हिस्सा हैं। अब यह सिंघम और इन संगठनों पर है कि वे इस बारे में अपनी सफाई दुनिया के सामने विश्वसनीय ढंग से रखें, ताकि जिसे उन्होंने ‘कलंकित करने का प्रयास’ बताया है, उस पर लोग भरोसा ना करें।

लेकिन यहां हमारा विषय यह नहीं है। मुमकिन है कि सिंघम और जिन्हें उन्होंने चंदा दिया है वे सभी या उनमें से कुछ संगठन सचमुच चीन का प्रचार या उसकी तरफ से दुष्प्रचार कर रहे हों। मगर हमारा विषय सिर्फ इस तथ्य को चर्चा में लाना है कि खुद न्यूयॉर्क टाइम्स भी एक बड़े दुष्प्रचार तंत्र का हिस्सा है, जिसकी अनगिनत मिसालें सार्वजनिक दायरे में हैं।

जब अमेरिका और चीन के बीच ‘शीत युद्ध’ छिड़ गया है, तो बेशक चीन ने भी अपनी तरफ से प्रचार का तंत्र बनाया होगा। ठीक उसी तरह जैसा अमेरिका ने (कम से कम रूस के खिलाफ तो ज़रूर ही) किया है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के नदेशक विलियम बर्न्स ने इसी वर्ष मार्च में सीनेट की खुफिया समिति की सुनवाई में पुष्टि की थी कि अमेरिका रूस के खिलाफ “सूचना युद्ध” में शामिल है। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

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