न्यायिक क्षेत्रों में आजकल संविधान के अनुच्छेद 32 और उस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक ही सप्ताह में दो अलग-अलग पीठों द्वारा की गई व्याख्या के कारण बहस छिड़ गई है। लगभग सभी बड़े अखबारों ने अपने संपादकीय में इस बहस पर चर्चा की है और कानून के जानकारों ने लेख लिखे हैं। अर्णब गोस्वामी के मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ का यह कथन कि वे (सुप्रीम कोर्ट) किसी भी व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता के प्रति सचेत हैं, और वह यह सुनिश्चित करेंगे कि किसी भी व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता के आधार पर कोई आघात न हो। जस्टिस चंद्रचूड़ के ही शब्दों में उन्हें पढ़ना अधिक उचित होगा, “अगर राज्य सरकारें व्यक्तियों को टारगेट करती हैं, तो उन्हें पता होना चाहिए कि नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए शीर्ष अदालत है। हमारा लोकतंत्र असाधारण रूप से लचीला है, महाराष्ट्र सरकार को इस सब (अर्नब के टीवी पर ताने) को नजरअंदाज करना चाहिए।”
सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा, “यदि हम एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करेंगे, तो कौन करेगा?… अगर कोई राज्य किसी व्यक्ति को जानबूझ कर टारगेट करता है, तो एक मजबूत संदेश देने की आवश्यकता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में, निजी स्वतंत्रता के सिद्धांत को प्राथमिकता दी जो एक अच्छा दृष्टिकोण है और इसे सभी के लिए समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। राज्य को किसी भी नागरिक को प्रताड़ित करने का अधिकार नहीं है। पर यह चिंता सेलेक्टिव नहीं होनी चाहिए।
जस्टिस चंद्रचूड़ का, आम जन को, उनके मौलिक अधिकारों के प्रति सजग करता हुआ, यह कथन, रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक, अर्णब गोस्वामी के एक मुक़दमे में, उनकी जमानत पर सुनवाई करते समय का है। अर्णब पर जिला रायगढ़ में अन्वय नाइक द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप हैं और वे धारा 306 आईपीसी के मुल्ज़िम हैं। अन्वय ने अपने सुसाइड नोट में अर्णब गोस्वामी का नामोल्लेख किया है और यह भी कहा है कि अर्णब ने लगभग 80 लाख रुपये का उनका बकाया भुगतान नहीं किया है। सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब को राहत देते हुए उनकी अंतरिम जमानत की याचिका स्वीकार कर ली है। इसी संदर्भ में जस्टिस चंद्रचूड़ ने निजी आज़ादी की बात कही थी।
मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने कहा, “सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं की भरमार हो रही है और लोग अपने मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में संबंधित उच्च न्यायालय के पास जाने के बजाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर कर रहे हैं, जबकि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी ऐसे मामलों में रिट जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया है।”
संविधान का अनुच्छेद 32 क्या है?
अनुच्छेद 32, संवैधानिक उपचारों का अधिकार है। यह एक मौलिक अधिकार है, जो भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने का अधिकार देता है। यानी यह, वह मौलिक अधिकार है जो अन्य मौलिक अधिकारों के हनन के समय, नागरिकों को, उनके हनन हो रहे मूल अधिकारों की रक्षा करने का उपचार प्रदान करता है और इसी अनुच्छेद की शक्तियों के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट अपने नागरिकों के मौलिक अधिकार, सुरक्षित और संरक्षित रखता है। इसे इस प्रकार से कहा जा सकता है कि, संवैधानिक उपचारों का अधिकार स्वयं में कोई अधिकार न होकर, अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षोपाय है। इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में न्यायालय की शरण ले सकता है।
इसलिए डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद बताते हुए कहा था, “इसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह संविधान की आत्मा और हृदय है। सर्वोच्च न्यायालय के पास किसी भी मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिए निर्देश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) रिट, परमादेश (मैंडेमस) रिट, प्रतिषेध (प्रोहिबिशन) रिट, उत्प्रेषण रिट और अधिकार पृच्छा (क़्वा वारंटों) रिट जारी की जा सकती है।”
हालांकि, संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक, राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपातकाल (इमरजेंसी) के दौरान मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए किसी भी न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने के अधिकार को, आपातकाल की अवधि तक, निलंबित कर सकता है, लेकिन आपातकाल या इमरजेंसी के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थिति में इस अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता है। मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार तो है किंतु यह न्यायालय का विशेषाधिकार नहीं है।
न्यायालय के मूल क्षेत्राधिकार का अर्थ यह है कि इसके अंतर्गत कोई भी पीड़ित नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय में राहत प्राप्त करने के लिए जा सकता है, लेकिन यह सर्वोच्च न्यायालय का विशेषाधिकार नहीं है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी करने का अधिकार दिया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में कहा है कि जहां अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के माध्यम से राहत प्रदान की जा सकती है, वहां पीड़ित पक्ष को सर्वप्रथम उच्च न्यायालय के समक्ष ही जाना चाहिए। वर्ष 1997 में चंद्र कुमार बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि रिट जारी करने को लेकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय दोनों के अधिकार क्षेत्र संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा हैं।
इस व्यवस्था के विरुद्ध भी कई तर्क दिए गए हैं। ऐसा कई बार देखा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के मामलों को अपने पास स्थानांतरित कर दिया है। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हाल ही में तब देखने को मिला जब सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी के सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में भूमि उपयोग से जुड़े एक मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय से स्वयं को स्थानांतरित कर दिया, जबकि याचिकाकर्ताओं ने इस तरह के हस्तांतरण की मांग नहीं की थी।
जब मामलों का इस तरह स्थानांतरण किया जाता है तो याचिकाकर्त्ता अपील का अपना एक माध्यम खो देते हैं, जो मामले को स्थानांतरण न किए जाने की स्थिति में उपलब्ध होता। इस प्रकार हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ किसी पक्ष को अपील का जो एक स्वाभाविक विकल्प और अधिकार मिलता, वह याचिकाकर्ता या प्रतिवादी ने खो दिया है, क्योंकि यहां शीर्ष अपीली अदालत प्रथम सुनवाई की अदालत के रूप में बदल गई है। अपील के अधिकार का यह एक प्रकार से हनन है और उस अधिकार से पक्षकारों को वंचित करना है।
अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन अथवा ‘किसी अन्य उद्देश्य’ के लिए सभी प्रकार की रिट जारी करने का अधिकार प्रदान करता है। यहां ‘किसी अन्य उद्देश्य’ का अर्थ किसी सामान्य कानूनी अधिकार के प्रवर्तन से है। इस प्रकार रिट को लेकर उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में काफी व्यापक है। जहां एक ओर सर्वोच्च न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी कर सकता है, वहीं उच्च न्यायालय को किसी अन्य उद्देश्य के लिए भी रिट जारी करने का अधिकार है।
भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 32, उन्हीं मौलिक अधिकारों के साथ ही रखा गया है जो, समानता, अभिव्यक्ति, जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकार ‘हम भारत के लोगों’ को उपलब्ध कराते हैं। अगर इन मौलिक अधिकारों में से किसी एक का भी हनन होता है तो अनुच्छेद 32 के अंतर्गत ही सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार और शक्तियां प्राप्त हैं कि वह जनता के अन्य मौलिक अधिकारों की रक्षा करें। इस प्रकार यह सुप्रीम कोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है और अधिकार भी। दिसंबर 1948 में जब संविधान सभा में इस अनुच्छेद, जो ड्राफ्ट में अनुच्छेद 25 था, पर बहस चल रही थी तो, संविधान ड्राफ्ट कमेटी के चेयरमैन डॉ. बीआर अंबेडकर ने कहा था, “यदि मुझसे कोई यह पूछे कि संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद कौन सा है, और किस अनुच्छेद के अभाव में संविधान अपना महत्व खो देगा, तो मैं केवल इसी अनुच्छेद का नाम लूंगा। मैं इसके अतिरिक्त किसी अन्य अनुच्छेद का उल्लेख नहीं कर सकूंगा, क्योंकि यह संविधान की आत्मा है।”
डॉ. आंबेडकर आगे कहते हैं, “इस अनुच्छेद के द्वारा, सुप्रीम कोर्ट को जो शक्तियां दी गई हैं, वह सुप्रीम कोर्ट से जब तक संविधान ही पूरी तरह से बदल न जाए, छीनी नहीं जा सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट को इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्राप्त शक्तियां, किसी भी एक व्यक्ति को दी गई सबसे महत्वपूर्ण सुरक्षात्मक उपाय है।”
संविधान ड्राफ्ट कमेटी के अन्य सदस्यों ने भी, डॉ. बीआर अंबेडकर के उपरोक्त विचारों से सहमति जताई और कहा, “चूंकि यह प्राविधान, किसी भी व्यक्ति को, यह अधिकार देता है कि वह अपने मौलिक अधिकारों के हनन के संबंध में इस अनुच्छेद के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना कर सकता है, अतः यह सभी मौलिक अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण वह मौलिक अधिकार है जो संविधान देता है।
संविधान के प्राविधान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट, अनुच्छेद 32 एवं हाई कोर्ट, अनुच्छेद 226 के अंतर्गत रिट जारी कर सकते हैं। अनुच्छेद 32 (2) में निम्न रिटों की चर्चा की गई है, जिससे संवैधानिक उपचारों के अधिकार की महत्ता का पता चलता है।
● बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) रिट
इसके अंतर्गत अदालत गिरफ्तारी का आदेश जारी करने वाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बंदी को न्यायाधीश के सामने उपस्थित करें और उसके बंदी बनाए रखने के कारण बताए। अदालत, अगर उन कारणों से असंतुष्ट होता है तो बंदी को छोड़ने का आदेश भी दे सकता है।
● परमादेश (मैंडेमस) रिट
इसके द्वारा न्यायालय अधिकारी को आदेश देती है कि वह उस कार्य को करें जो उसके क्षेत्र अधिकार के अंतर्गत है।
● प्रतिषेध (प्रोहिबिशन) रिट
यह किसी भी न्यायिक या अर्द्ध-न्यायिक संस्था के विरुद्ध जारी हो सकता है, इसके माध्यम से न्यायालय के न्यायिक अर्द्ध-न्यायिक संस्था को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर निकलकर कार्य करने से रोकती है।प्रतिषेध रिट का मुख्य उद्देश्य किसी अधीनस्थ न्यायालय को अपनी अधिकारिता का अतिक्रमण करने से रोकना है तथा विधायिका, कार्यपालिका या किसी निजी व्यक्ति या निजी संस्था के खिलाफ इसका प्रयोग नहीं होता।
● उत्प्रेषण रिट
यह रिट किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक निकाय जो अपनी अधिकारिता का उल्लंघन कर रहा है, को रोकने के उद्देश्य से जारी की जाती है।प्रतिषेध और उत्प्रेषण में एक अंतर है। प्रतिषेध रिट उस समय जारी की जाती है जब कोई कार्यवाही चल रही हो। इसका मूल उद्देश्य कार्रवाई को रोकना होता है, जबकि उत्प्रेषण रिट कार्रवाई समाप्त होने के बाद निर्णय समाप्ति के उद्देश्य से की जाती है।
● अधिकार पृच्छा (क़्वा वारंटों) रिट
यह इस कड़ी में अंतिम रिट है, जिसका अर्थ ‘आप का क्या प्राधिकार है?’ होता है। यह अवैधानिक रूप से किसी सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया जाता है।
ये रिटें, अंग्रेजी कानून से लिए गए हैं, जहां इन्हें ‘विशेषाधिकार रिट’ कहा जाता था। इन्हें राजा द्वारा जारी किया जाता था, जिन्हें अब भी ‘न्याय का झरना’ कहा जाता है। उपरोक्त बिंदुओं से संवैधानिक उपचारों के अधिकार एवं उसकी महत्ता को देखा जा सकता है। संवैधानिक उपचारों का अनुच्छेद नागरिकों के लिहाज से भारतीय संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
अब एक चर्चा, अनुच्छेद 32 में दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए कुछ निर्णयों की करते हैं। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-
● केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन, जो हाथरस गैंगरेप कांड को कवर करने के लिए दिल्ली से हाथरस जाते हुए उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए हैं और अब भी यूएपीए की धाराओं के अंतेगत जेल में हैं का मामला, अर्णब गोस्वामी के मामले के बाद सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में उठा है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुए यह कहा कि याचिकाकर्ता ने हाई कोर्ट में अपनी याचिका क्यों नहीं दायर की? हालांकि अगली तिथि पर सुप्रीम कोर्ट ने सिद्दीक कप्पन के एडवोकेट के साथ ही राज्य सरकार को भी इस विषय मे अपना पक्ष रखने के लिए कहा है।
● एक प्रकरण, नागपुर के एक व्यक्ति का है, जिसे कथित रूप से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ कुछ आपत्तिजनक रूप से सोशल मीडिया पर कुछ लिखने के लिए, गिरफ्तार कर लिया गया है, का भी मामला, अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा। इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि वे पहले हाई कोर्ट जाएं।
● इसी प्रकार भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार तेलुगू कवि वरवर राव के भी इसी अनुच्छेद 32 के अंतर्गत दायर याचिका में, जो उनकी पत्नी हेमलता द्वारा दायर की गई थी, में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही निर्देश दिया कि वे पहले बॉम्बे हाईकोर्ट जाएं। वरवर राव को फिलहाल, बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनके खराब स्वास्थ्य को देखते हुए, नानावटी अस्पताल में राज्य सरकार के व्यय पर इलाज कराने के लिए निर्देश दे दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट जाने के पहले राव की याचिका, हाई कोर्ट में ही सुनी जा रही थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब एक सक्षम न्यायालय, इसकी सुनवाई कर रहा है तो सुप्रीम कोर्ट के दखल का कोई औचित्य नहीं है।
● लेकिन एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इन सबसे अलग हट कर दृष्टिकोण अपनाया है। यह मामला भी अर्णब गोस्वामी से जुड़ा है। हुआ यह कि महाराष्ट्र विधानसभा ने अर्णब गोस्वामी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस जारी किया है। अर्णब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में चले गए। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें राहत मिली। इस पर विधानसभा के सहायक सचिव ने अर्णब को यह पत्र लिखा कि उन्होंने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका क्यों दायर की। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा के उक्त अफसर को अदालत के अवमानना की नोटिस जारी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह किसी भी व्यक्ति के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत प्राप्त मौलिक अधिकार कि वह न्यायालय की शरण में जा सकता है, का उल्लंघन है और यह न्यायालय की अवमानना है। सुप्रीम कोर्ट के इस स्टैंड से किसी को कभी आपत्ति नहीं हो सकती है, पर क्या यह नज़ीर और तर्क उन याचिकाओं में भी रहेगा या यह केवल अर्णब गोस्वामी की दायर याचिकाओं में ही यह वाक्य कि, “यह अदालत यह कह चुकी है कि, अनुच्छेद 32 के अंतर्गत प्रदत यह अधिकार कि हर व्यक्ति न्यायालय में अपनी व्यथा के लिए जा सकेगा, अपने आप में ही एक मौलिक अधिकार है और इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यदि कोई भी किसी नागरिक के इस अनुच्छेद के अंतर्गत, अदालत जाने से रोकता है या उसके इस संविधान प्रदत्त अधिकार पर प्रश्न उठाता है तो, यह एक गंभीर और न्यायिक प्रशासन में सीधे हस्तक्षेप का मामला बनता है।”
सुप्रीम कोर्ट के इस मन्तव्य का स्वागत किया जाना चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस ने इस विषय पर विस्तार से लिखा है और यह उदाहरण, वहीं से लिए गए हैं।
अब सुप्रीम कोर्ट के कुछ पुराने फैसलों को देखते हैं। 1950 में रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट की धारणा है कि अनुच्छेद 32, मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए एक गारंटीशुदा रक्षक उपकरण है। सुप्रीम कोर्ट के ही शब्दों में, “अदालत, मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान द्वारा गठित और शक्ति संपन्न की गई है, और उसकी यह जिम्मेदारी है कि वह किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर यदि कोई आक्षेप या अवरोध आता है तो वह उस व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के पक्ष में खड़ी हो।”
अनुच्छेद 32 के मामले हों या सुप्रीम कोर्ट में दर्ज अन्य कोई भी मामला, सबमें अलग-अलग जजों की अलग-अलग राय और व्याख्याएं होती हैं। यह कोई असामान्य बात है भी नहीं। पर आपत्ति तब उठती है जब कानून की व्याख्या एक ही आधार और प्रार्थना पर दायर अलग-अलग व्यक्तियों की याचिका पर अलग-अलग तरह से होती है। तब संदेह के स्वर भी उभरते हैं और अदालत की निष्पक्षता पर सवाल भी उठते हैं। इन समस्याओं से निपटने का भी दायित्व अदालतों का है न कि किसी अन्य का।
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)