Sunday, April 28, 2024

विपक्षी एकता की तस्वीर तो बनी हुई है, चुनौती है उसमें रंग भरने की

आगामी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने के लिए 14 विपक्षी दलों के नेताओं का एक साथ बैठना वैसे तो कोई बड़ी घटना नहीं है, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल में इसे कमतर भी नहीं माना जा सकता। भाजपा की ओर से इस बैठक के पहले विपक्षी दलों पर बेहद भद्दी भाषा में तंज करते हुए जो पोस्टर पटना शहर में लगाए गए और भाजपा के शीर्ष नेताओं तथा केंद्रीय मंत्रियों ने इस बैठक से पहले और बैठक के बाद जो बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया दी है, उससे भी इस बैठक की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। भाजपा और उसकी सरकार के प्रचारक की भूमिका निभाने वाले मीडिया ने जिस नकारात्मक अंदाज में इस बैठक की रिपोर्टिंग की है, वह भी इस विपक्षी दलों की इस पहलकदमी के महत्व को रेखांकित करने वाली है।

गठबंधन की राजनीति को लेकर कांग्रेस जिस तरह से अनिच्छा और उदासीनता दिखाती रही है, उसके तथा कई प्रादेशिक पार्टियों के नेताओं के बीच जिस तरह अहम का टकराव देखने में आता है, जिस तरह इन सभी पार्टियों के अपने छोटे-छोटे राजनीतिक स्वार्थ हैं और इनमें से कई पार्टियों के नेताओं व उनके रिश्तेदारों को केंद्रीय एजेंसियों ने अपने निशाने पर ले रखा है, उसे देखते हुए किसी को भी यह संदेह होना स्वाभाविक ही था कि एक व्यापक गठबंधन बनाने के मकसद से ये दल कभी एक साथ बैठ कर गठबंधन की दिशा में सोचेंगे या आगे बढ़ने का फैसला लेंगे। लेकिन पटना की बैठक ने यह संदेह काफी हद तक दूर करते हुए यह संदेश दिया है कि देश के समक्ष मौजूदा खतरे की गंभीरता को सभी पार्टियां शिद्दत से महसूस कर रही हैं। 

पटना की बैठक में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, द्रविड मुनैत्र कडगम (डीएमके), जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एमएल), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), झारखंड मुक्ति मोर्चा, शिव सेना (उद्धव ठाकरे), नेशनल कांफ्रेन्स और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के नेताओं ने भाग लिया।

आम आदमी पार्टी भी बैठक में शामिल हुई लेकिन उसने अपने एजेंडा को विपक्षी एकता का आधार बनाने की शर्त पर गठबंधन में शामिल होने की बात कही है। उसके इस रूख से जाहिर है कि वह विपक्षी एकता का हिस्सा बनने को लेकर गंभीर नहीं है। वैसे भी कांग्रेस सहित कई दूसरी पार्टियां आम आदमी पार्टी को संदिग्ध मानते हुए उसे गठबंधन में शामिल करने या उसके साथ चुनावी तालमेल करने के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि कई महत्वपूर्ण मौकों पर उसने सरकार और भाजपा के सुर में सुर मिलाया है या तटस्थ बनी रही है। 

हालांकि राष्ट्रीय लोकदल की ओर से उसका कोई प्रतिनिधि बैठक में कोई शामिल नहीं हुआ लेकिन उसके नेता जयंत चौधरी ने विपक्षी एकता का समर्थन करते हुए बनने वाले गठबंधन में रहने की बात कही है। बैठक में बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस को भी शामिल होने का न्योता दिया गया था लेकिन उन्होंने बैठक से दूरी बनाए रखी। बहुजन समाज पार्टी, तेलंगाना की भारत राष्ट्र समिति, सलाउद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को उनके एकता विरोधी रुझान को देखते हुए बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया था। 

इस बैठक में अगर विपक्षी गठबंधन पर, सीटों के बंटवारे पर और न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर अगर कोई फैसला नहीं हुआ, तो यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि इतने सारे लोगों की बैठक में कभी भी कोई सार्थक और निर्णायक बातचीत नहीं हो पाती है। गठबंधन बनाने के सिलसिले में यह शुरुआती बैठक थी। यह भी कहा जा सकता है कि यह मोटे तौर पर ऑप्टिक्स यानी दिखावे की कवायद थी, जिसका मकसद देश को यह संदेश देना था कि विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ एक व्यापक गठबंधन बनाने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि इस मकसद के लिहाजा से यह बैठक पूरी तरह कामयाब रही। इस संदर्भ में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बयान उल्लेखनीय है, जो उन्होंने पटना की बैठक के बाद प्रेस कांफ्रेन्स में दिया। उन्होंने कहा, ”हम एकजुट हैं, हम एकजुट होकर लड़ेंगे और हमारी लड़ाई को विपक्ष की लड़ाई नहीं कहा जाना चाहिए, बल्कि भाजपा सरकार की तानाशाही, उसके काले कानूनों और उसके राजनीतिक प्रतिशोध के खिलाफ लड़ाई कहा जाना चाहिए।’’  

जहां तक गठबंधन का नाम, उसकी संचालन समिति और गठबंधन के संयोजक अथवा समन्वयक की घोषणा का सवाल है, संभव है शिमला में अगले महीने होने वाली दूसरे चरण की बैठक में यह काम हो जाएगा। रही बात सीटों के तालमेल और न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करने की तो ऐसे मामलों में समय लगता है। सीटों के बंटवारे और रणनीतिक तालमेल का फार्मूला तय करने और चुनावी एजेंडा व न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने का काम अलग-अलग कमेटियां करेंगी। इन कमेटियों की अलग-अलग बैठकें होती रहेंगी और उनकी सिफारिशों पर विचार करने के लिए सभी पार्टियों की एक नियमित बैठक हर महीने या दो महीने पर हो सकती है।

विभिन्न दलों के बीच सीटों का बंटवारा और रणनीतिक तालमेल सबसे अहम मसला है, लेकिन उतना जटिल नहीं, जितना मुख्यधारा का मीडिया बताता है। दरअसल प्रस्तावित गठबंधन में जितनी पार्टियों शामिल होना हैं, उनमें कांग्रेस के अलावा किसी भी दूसरी पार्टी की हैसियत एक से ज्यादा राज्यों में चुनाव लड़ने की नहीं है। सीपीएम को अपवाद कहा जा सकता है, लेकिन दो-तीन राज्यों के बाहर उसकी भी मौजूदगी सिर्फ प्रतीकात्मक ही है और उसमें भी केरल में उसे तालमेल नहीं करना है। वहां उसके और कांग्रेस के बीच मुकाबला होना है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, ओडिशा, हरियाणा, तेलंगाना, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, उत्तर पूर्व के लगभग सभी राज्यों और दिल्ली में कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला भाजपा अथवा विपक्षी गठबंधन से बाहर की प्रादेशिक पार्टियों से होना है, लिहाजा इन राज्यों में भी कोई समस्या नहीं आना है। 

तमिलनाडु, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र ऐसे राज्य हैं, जहां सीटों के बंटवारे में ज्यादा दिक्कत नहीं आना है, क्योंकि इन राज्यों में पहले से गठबंधन बना हुआ है। इनमें से पहले तीन राज्यों में तो अभी गठबंधन की सरकारें भी चल रही हैं और चौथे राज्य महाराष्ट्र में भी एक साल पहले तक गठबंधन सरकार चल रही थी। जम्मू-कश्मीर में भी ज्यादा समस्या नहीं आना है क्योंकि वहां परंपरागत प्रतिद्वंद्वदी रही दोनों पार्टियां नेशनल कांफ्रेन्स और पीडीपी अब मिल कर लड़ने के लिए तैयार हैं। समस्या सिर्फ दो राज्यों उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में आना है।

जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है, आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटों का गणित बिगाड़ने में यह सूबा भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इस समय सूबे की 80 सीटों में से 62 सीटें भाजपा और दो सीटे उसके सहयोगी अपना दल के पास है। पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी मिल कर चुनाव लड़े थे, जिसमें बसपा को 10 और सपा को 5 सीटें मिली थीं। उसके बाद विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां अलग-अलग लडीं, जिसमें बसपा का पूरी तरह सफाया हो गया जबकि सपा ने जबरदस्त रूप से अपनी ताकत में इजाफा किया।

विधानसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो लगभग निष्किय रहीं थीं और बाद में कई मौकों पर उन्होंने भाजपा और उसकी केंद्र सरकार का खुल कर समर्थन किया। उनके इस बदले हुए रूख से उन पर यह आरोप भी लग रहा है कि उन्होंने कुछ राजनीतिक और गैरराजनीतिक वजहों से भाजपा के आगे समर्पण कर दिया है। ऐसे में अगर वहां कांग्रेस अपनी जमीनी हकीकत कुबूल करते हुए ज्यादा सीटों पर लड़ने की जिद न करें तो उसका, समाजवादी पार्टी का और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन भाजपा को कड़ी चुनौती दे सकता है। 

रही बात पश्चिम बंगाल की तो इसमें कोई दो मत नहीं कि वहां पिछले विधानसभा में भाजपा और केंद्र सरकार की हर तिकड़म को नाकाम करते हुए उसे करारी शिकस्त देने का काम ममता बनर्जी ने अपने अकेले के दमखम पर किया है। वहां की राजनीति इस समय पूरी तरह दो ध्रुवों तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में बंटी हुई है, जिसके चलते सीपीएम और कांग्रेस का जनाधार लगभग पूरी तरह सिमट गया है।

वहां सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस के रिश्ते तो पहले से ही शत्रुतापूर्ण हैं और कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व ने भी जिस तरह से ममता बनर्जी और उनकी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन के लिहाज से सबसे पेचीदा स्थिति पश्चिम बंगाल की है। वहां बड़ा लक्ष्य हासिल करने के तीनों ही पार्टियों को अपने-अपने रूख में थोड़ा-थोड़ा लचीलापन लाना होगा। यह भी संभव है कि तीनों का अलग-अलग चुनाव लड़ना ही ज्यादा फायदेमंद हो।

कुल मिला कर विपक्षी गठबंधन की तस्वीर लगभग पूरी तरह बनी हुई है। जरूरत है सिर्फ उसमें सलीके से रंग भरने की। यह काम तभी हो सकता है जब सभी विपक्षी पार्टियों के नेता अपना अहंकार छोड़ कर ईमानदार इच्छाशक्ति के साथ आगे बढ़े।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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