Sunday, April 28, 2024

भारतीय अर्थव्यवस्था: सुर्खियां बनती खुशहाली की कहानी की हकीकत आंकड़ों की जुबानी

नरेंद्र मोदी सरकार के केंद्र की सत्ता में आने के बाद जल्द ही ये धारणा गहराने लगी थी कि इस सरकार की रुचि अर्थव्यवस्था को संभालने में नहीं, बल्कि आर्थिक सुर्खियों को संभालने या कहें- मैनेज करने में है। पिछले नौ साल में यही कहानी दोहराई गई है। मीडिया पर नियंत्रण के जरिए हुई ये कोशिश जन धारणाओं को गढ़ने में एक हद तक कामयाब भी बनी रही है। इसके बावजूद जो सच है, वो उसी मीडिया की सुर्खियों में ना सिर्फ जब-तब, बल्कि अक्सर अपनी झलक दे देता है।

यानी हेडलाइन मैनेजमेंट के जरिए भारतीय अर्थव्यवस्था की खुशहाल कहानी प्रचारित करने की कोशिशें तो रोजमर्रा के स्तर पर जारी रहती हैं, फिर भी, इनके बीच ही, देश के आम जन के असली हाल का इजहार भी उसी मुख्यधारा मीडिया की सुर्खियों से हो जाता है। शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरता हो, जब अखबारों में ऐसी कोई खबर देखने को ना मिले, जिनसे देश में घटती मांग, उपभोग के गिर रहे स्तर, रोजगार के मोर्चे पर बढ़ रही मुश्किलों, लोगों के घट रहे जीवन स्तर, और देश में बढ़ रही आर्थिक गैर-बराबरी की कहानी सामने ना आती हो।

मसलन, इस हफ्ते के पहले दो दिन (24 और 25 जुलाई) की कुछ अखबारी सुर्खियों पर गौर कीजिएः 

  • अखबार मिंट में छपी एक खबर के मुताबिक भारत में मोबाइल फोन की बिक्री गिर रही है। 2023 के पहले छह महीनों में पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में बिक्री की यह संख्या पांच करोड़ हैंटसेट से नीचे रही। यह लगभग 20 प्रतिशत की गिरावट है।
  • एक दूसरी खबर के मुताबिक भारत में दफ्तर स्थलों की मांग कमजोर हो गई है। इसका एक प्रमुख कारण यह बताया गया है कि कंपनियों ने नए कर्मियों की भर्ती का अपना अनुमान गिरा दिया है। अब चूंकि निकट भविष्य में दफ्तरों में कामकाज ही नहीं बढ़ने वाला है, तो नए कार्यालय स्थलों की जरूरत क्या रह जाएगी?
  • अगली खबर है कि स्टार्टअप्स में होने वाले निवेश की वृद्धि दर दस तिमाहियों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। ऐसे निवेशक जो स्टार्टअप्स यानी नए उद्यमों में निवेश करते हैं, उन्हें कारोबार की भाषा में Early Birds कहा जाता है। ये अर्ली बर्ड्स फिलहाल निवेश में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं।
  • यह भी बिगड़ते आर्थिक माहौल का ही असर है कि केंद्र सरकार की प्रिय पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव) योजना के तहत वित्त वर्ष 2024-25 के अंत तक 40 हजार करोड़ रुपये से भी कम व्यय होने का अनुमान लगाया गया है। जबकि सरकार ने इसके लिए एक लाख 97 हजार करोड़ रुपये का मद रखा है। इस आंकड़े के आधार पर संबंधित अखबारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि पीएलआई की सभी 14 योजनाओं पर पूरी तरह काम शुरू नहीं हो पाया है।
  • टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस वित्त वर्ष में मनरेगा के बजट में सरकार को भारी बढ़ोतरी करनी पड़ सकती है, क्योंकि इस वर्ष के बजट में जो 60 हजार करोड़ रुपये रखे गए थे, उसका 58 प्रतिशत हिस्सा वित्त वर्ष की पहली तिमाही में खर्च हो गया। इसके पहले 2022-23 के बजट में सरकार ने 73 हजार करोड़ रुपये की रकम रखी थी, जबकि असल खर्च 90 हजार करोड़ को पार कर गया था। अब यह तो एक आम जानकारी है कि मनरेगा में काम की मांग तभी बढ़ती है, जब शारीरिक श्रम के अवसर उपलब्ध कराने वाले अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में मंदी जैसा माहौल रहता है। 
  • आम परिवारों की बदहाली बताने वाली एक और खबर यह है कि जिन परिवारों को उज्ज्वला योजना के तहत रसोई गैस का कनेक्शन मिला था, उनमें से 12 प्रतिशत ने पिछले वित्त वर्ष में एक भी सिलिंडर नहीं भरवाया। नौ करोड़ 59 लाख परिवारों को इस योजना के तहत कनेक्शन मिला हुआ है, जिनके बीच पिछले वित्त वर्ष में सिलिंडर भरवाने की औसत सालाना दर 3.7 प्रतिशत रही। यह सूचना खुद सरकार की तरफ से राज्य सभा में दी गई। प्रश्न यह है कि सिर्फ पौने चार सिलिंडरों से किस परिवार का साल भर तक काम चल सकता है?
  • बेरोजगारी का आलम यह है कि गुड़गांव की ह्यूमन रिसोर्स टेक्नोलॉजी क्षेत्र की स्टार्टअप कंपनी स्प्रिगवर्क्स ने अपने यहां 15 से 20 पदों पर भर्ती के लिए इश्तहार निकाला। अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक विज्ञापन प्रकाशित होने के 48 घंटों के अंदर 13 हजार आवेदन कंपनी के पास आ गए।
  • बेरोजगारी की लगातार भीषण होती जा रही स्थिति का जिक्र इसी रविवार (23 जुलाई) को इंडियन एक्सप्रेस अखबार में लिखे अपने कॉलम में कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने भी किया। उनके कॉलम का यह पूरा पैराग्राफ ध्यान देने योग्य हैः

“भारत की कुल आबादी में कामकाजी उम्र (15 वर्ष से अधिक उम्र वर्ग) के व्यक्तियों की संख्या 61 प्रतिशत है- लगभग 84 करोड़ लोग इस श्रेणी में हैं। यह प्रतिशत 2026 तक घट जाएगा। यानी जिस डेमोग्रैफिक डिविडेंट (युवा आबादी के लाभ) का ढोल पीटा जाता है, उसकी उम्र छोटी है। अत्यधिक चिंता की बात श्रम भागीदारी दर (लेबर पार्टिशिपेशन रेट-एलपीआर) है। जून 2023 में यह गिरकर 40 प्रतिशत के नीचे चली गई। (चीन में यह 67 प्रतिशत है)। महिला एलपीआर की स्थिति तो और बदतर है, जो 32.8 प्रतिशत पर थी। कामकाजी उम्र का 60 प्रतिशत हिस्सा (पुरुष और महिला) और 67.2 फीसदी महिलाएं क्यों काम नहीं कर रही हैं या काम की तलाश में नहीं हैं? अब एलपीआर के ऊपर 8.5 प्रतिशत की बेरोजगारी दर जोड़ें (15 से 24 वर्ष उम्र वर्ग में तो बेरोजगारी दर 24 प्रतिशत है।) तब आपको बिना उपयोग के पड़े मानव संसाधन की गंभीर स्थिति का अंदाजा मिल सकेगा। जीवन प्रत्याशा में वृद्धि या शिक्षा के प्रसार का कोई लाभ नहीं है, अगर 60 प्रतिशत लोग काम ढूंढ पाने में विफल रहते हैं।”

जब इतनी बड़ी संख्या में लोगों के पास रोजगार नहीं होगा, तो यह लाजिमी है कि बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी। जब महंगाई दर ऊंचे स्तर पर रहेगी, यह भी लाजिमी है कि आम परिवार उपभोग घटाएंगें। उस हाल में कौन-सी कंपनी निवेश और अतिरिक्त उत्पादन के लिए प्रेरित होगी? उत्पादन का सीधा संबंध मांग और उपभोग से होता है। मांग और उपभोग बढ़ने का सीधा संबंध रोजगार दर में बढ़ोतरी और आम परिवारों की वास्तविक आय में वृद्धि से होता है।

खुद अखबारी रिपोर्टों में घटती मांग के कारणों का जिक्र हुआ है। मसलन, ऊपर हमने मोबाइल हैंडसेट्स की बिक्री में गिरावट का जिक्र किया, उसी खबर में उसके कारणों का उल्लेख भी हुआ। अखबार ने ये कारण बताएः अनिश्चित आर्थिक माहौल, ऊंची महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, औसत वेतन में कम बढ़ोतरी और अर्थव्यवस्था की (अंग्रेजी अक्षर) K शक्ल की रिकवरी।

यहां रिकवरी से मतलब कोरोना काल में अर्थव्यवस्था के गर्त में जाने के बाद से उसमें हुए सुधार से है। लेकिन हकीकत यह है कि आज अब बात K शक्ल रिकवरी की नहीं रह गई है। असल में भारतीय अर्थव्यवस्था का ही आकार K जैसा हो गया है। यानी अर्थव्यवस्था का स्वरूप ऐसा बन गया है, जिसमें जो धनी हैं, उनके पास देश के धन का लगातार अधिक संग्रहण हो रहा है, जबकि गरीब और मध्य वर्गीय लोगों की वास्तविक आय और संपत्ति में लगातार गिरावट आ रही है। असल में ये दोनों परिघटनाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

हालांकि K शक्ल की अर्थव्यवस्था की चर्चा अब नई नहीं रही है, लेकिन इससे भारतीय समाज की जो सूरत बनी है, उसका जिक्र इसी हफ्ते द इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक छोटी-सी टिप्पणी में हुआ। यह टिप्पणी Islands of Prosperity यानी समृद्धि के द्वीप शीर्षक से छपी। द्वीप आस-पास अथाह जल के बीच होते हैं। यानी इस शीर्षक का दूसरा पहलू यह है कि जिन द्वीपों की पहचान इस टिप्पणी में की गई, उसके अलावा बाकी देश अभाव का एक विशाल समुद्र है।

इस टिप्पणी के एक पैराग्राफ का उद्धरण हम यहां दे रहे हैः ‘एक मध्य आय वाले देश में, जहां श्रम-शक्ति के एक बड़े हिस्से का दैनिक वेतन 400 रुपये (पांच डॉलर) से भी कम है, वहीं अब भारत में उच्च मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका अस्तित्व में आ गया है। भारत में अपनी चीजें बेचने या कोरोबार लगाने में विदेशी कंपनियों की बढ़ रही दिलचस्पी भारत के इसी दोहरे यथार्थ को जाहिर करती है।’

इस रिपोर्टनुमा टिप्पणी में बताया गया है कि हालांकि भारत का औसत प्रति व्यक्ति आय दो लाख रुपये (2,400 डॉलर) है, लेकिन देश के कई इलाके ऐसे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय देश के औसत से बहुत ऊपर है। जाहिर है, ये वो इलाके हैं, जहां धनी और उच्च मध्य वर्गीय लोग रहने लगे हैं। इनमें जिन स्थानों का जिक्र है, उनमें अधिकांश दिल्ली, मुंबई, बंगलुरू, हैदराबाद, अहमदाबाद, चेन्नई, कोलकाता और इन महानगरों के उपनगर हैं।

अब चूंकि कुछ इलाकों में औसत राष्ट्रीय आय से बहुत ऊंची आय वाले परिवार रहते हैं, तो यह खुद जाहिर है कि बाकी इलाकों में रहने वाली विशाल आबादी की आमदनी का स्तर औसत राष्ट्रीय आय अर्थात दो लाख रुपये सालाना यानी लगभग पौने 17 हजार रुपये प्रति माह से बहुत कम है। 

तो कुल सूरत यह उभरती है कि अगर पूरे भारत को ध्यान में रखकर अर्थव्यवस्था की बात करें, तो बदहाली की एक तस्वीर सामने आती है, जिसकी झलक रोजमर्रा के स्तर पर अखबारी सुर्खियों में देखने को मिल रही है। लेकिन अगर सिर्फ K अक्षर की ऊपरी या ऊपर की तरफ वाली डंडी पर स्थित आबादी के एक छोटे से हिस्से पर ध्यान केंद्रित रखें, तो बेशक भारत की अर्थव्यवस्था खुशहाल है। ऊपरी डंडी पर स्थित यही वो वर्ग है, जिसके निवेश से भारत के शेयर सूचकांक रोज नए रिकॉर्ड बना रहे हैं, और जिनके बीच महंगी कारें, महंगे मकान, महंगे मोबाइन फोन की आदि की मांग बहुत ऊंची बनी हुई है।

लेकिन जहां तक आम (30 हजार रुपये से कम कीमत वाले) मोबाइल हैंडसेट पर ध्यान दें, तो उस सच से सामना होगा, जिससे संबंधित अखबारी रिपोर्ट की चर्चा से हमने इस लेख में बात शुरू की थी। और बात सिर्फ मोबाइल फोन की नहीं है। यही हाल हर आम उपभोग का है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

1 COMMENT

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Ajay partap tiwari
Ajay partap tiwari
Guest
9 months ago

बहुत शानदार विश्लेषण और सत्य खबरें जनचौक की।

Latest Updates

Latest

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...

Related Articles

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...