Sunday, April 28, 2024

G-20: यूक्रेन युद्ध के बाद दो गुटों में गोलबंद देशों के बीच आम सहमति बनाना असंभव

नई दिल्ली जब जी-20 के शिखर सम्मेलन के लिए सज कर तैयार है, इस समूह के सामने कई अहम सवाल खड़े नजर आ रहे हैं। उनमें सबसे बड़ा प्रश्न तो इसकी प्रासंगिकता का ही है। अगर ऐसे किसी समूह से जुड़े देश किसी साझा बयान पर सहमत ना हो सकें, तो यह प्रश्न तात्कालिक महत्व का बन जाता है।

यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से दुनिया में दो गुटों में गोलबंद हुए देशों के बीच आम सहमति तैयार कराना असंभव-सा हो गया है। यह बात पिछले साल नवंबर में इंडोनेशिया के बाली में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के समय ही साफ हो गई थी। भारत के इस समूह का अध्यक्ष बनने के बाद देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मुद्दों पर हुई जी-20 देशों की बैठकों में कहीं भी आम सहमत वक्तव्य जारी नहीं हो पाया, तो यह उसी नई स्थिति का परिणाम है।

शिखर सम्मेलन में भी ऐसा होने की संभावना नहीं है। दो बयानों पर गौर कीजिएः जी-20 शिखर सम्मेलन के लिए भारत की तरफ से नियुक्त शेरपा अमिताभ कांत ने कहा है कि नई दिल्ली सम्मेलन के दौरान भारत विकास एजेंडे पर चर्चा पर जोर लगाएगा। उन्होंने कहा कि जी-20 को अपना ध्यान विकास पर केंद्रित रखना चाहिए, ना कि राजनीति पर। जिस रोज अमिताभ कांत ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में यह बात कही, उसी रोज एक अन्य भारतीय अखबार को दिए इंटरव्यू में नई दिल्ली स्थित जर्मनी के राजदूत जोर्ग कुकीस ने दो टूक कहा कि जर्मनी ऐसे किसी साझा बयान पर दस्तखत नहीं करेगा, जिसमें ‘यूक्रेन पर रूस के हमले’ की निंदा नहीं की गई हो। यानी जर्मनी का प्रमुख एजेंडा राजनीतिक है।

चूंकि रूस और (यूक्रेन मसले पर पश्चिम से अलग नजरिया रखने वाला) चीन भी जी-20 का सदस्य हैं, इसलिए ऐसे किसी बयान पर उनका सहमत होना नामुमकिन है, जिसमें ‘यूक्रेन पर रूस के हमले’ की निंदा की गई हो। दरअसल, भारत और अनेक दूसरे देशों को भी वैसे बयान पर सहमत कराना एक मुश्किल काम है, जिन्होंने इस मसले पर तटस्थ नजरिया अपनाए रखा है। इसलिए जी-20 की बैठक से कुछ ठोस निकलेगा, यह उम्मीद खुद इस मौके पर नई दिल्ली पहुंच रहे विभिन्न देशों के नेताओं को भी नहीं होगी।

जी-20 के नेता (एक साथ या अपने अनुकूल अलग-अलग खेमों में बैठ कर) अगर विचार करें कि इस मंच का यह हाल क्यों हुआ है, तो बेशक इसके वास्तविक कारणों की पहचान वे कर पाएंगे। मगर उसके लिए सबसे पहले उन्हें यह ज़रूर इस बात को याद करना होगा कि इस समूह की स्थापना क्यों हुई थी? उसके बाद उनके साथ प्रश्न आएगा कि जिन सहमतियों के साथ यह समूह बना, वे न सिर्फ विभिन्न देशों के बीच, बल्कि बहुत से विकसित देशों के अंदर भी क्यों टूट गईं?

इस समूह के अस्तित्व में आने का सीधा संबंध 1991 के बाद से भूमंडलीकृत (globalized) अर्थव्यवस्था में दुनिया को शामिल और संगठित करने के प्रयासों से जुड़ा था। निजीकरण, उदारीकरण और मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार इस नई यानी नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग थे। जबकि इन्हीं तीन बातों पर आज सहमतियां टूट गई हैं।

वैसे ध्यान देने की बात यह है कि विभिन्न देशों के बीच इन सहमतियों के भंग होने के पहले नव-उदारवाद पर इसके सूत्रधार देशों के अंदर ही सहमतियां टूटने लगी थीं। 2008 की बड़ी आर्थिक मंदी के बाद उन नीतियों के औचित्य पर वहां गंभीर सवाल उठाए जाने लगे थे।

शुरुआती वर्षों में जी-20 की बैठकें वित्त मंत्री और सेंट्रल बैंकों के गवर्नरों के स्तर पर होती थी। 2008 की मंदी के बाद इसका दर्जा बढ़ा कर इसे शिखर सम्मेलन में तब्दील किया गया। इस समूह की स्थापना के पीछे सोच यह थी कि नई भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के संचालन में उन देशों की भी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए, जिनकी अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बढ़ रही हैं। 2009 में दुनिया की अर्थव्यवस्था में 80 फीसदी से भी अधिक योगदान इन 20 देशों की अर्थव्यवस्थाओं का था। 2008 की मंदी ने पश्चिम के विकसित देशों को अहसास कराया कि वे अकेले नए संकट से विश्व अर्थव्यवस्था को निकालने में सक्षम नहीं रह गए हैं। इसलिए जी-20 की बैठक का दर्जा बढ़ाना जरूरी है।

उस समय जी-20 की भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण मानी जाने लगी कि उसके पहले बने जी-7 (दरअसल, यह उस समय जी-8 था, क्योंकि रूस को 1997 में उसमें शामिल कर लिया गया था, लेकिन 2014 में क्रीमिया युद्ध के बाद रूस को उससे निकाल दिया गया और जी-8 फिर से जी-7 हो गया) की प्रासंगिकता पर सवाल उठने लगे थे। जी-7 (अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान) का गठन 1975 में किया गया था। तब उन सात देशों की स्थिति इतनी मजबूत थी कि उन्हें सहज ही (सोवियत खेमे के अलावा) विश्व अर्थव्यवस्था का संचालक माना जाता था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जी-7 देशों का राज एक तरह से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर हो कायम गया।

लेकिन 2008 की मंदी ने फिर से युग परिवर्तन की नींव डाल दी। अगर बारीक नजर डालें, तो इस उस परिवर्तन के जिस सबसे प्रमुख कारण को हम समझ सकते हैं, वह नव उदारवादी नीतियों के तहत तेजी से बढ़ी आर्थिक गैर-बराबरी है। 2008 की मंदी ने विकसित देशों के अंदर नव उदारवादी अर्थव्यवस्थाओं से आम जन के मोहभंग की स्थिति पैदा की। उसने वहां के आम जन का परिचय उन हालात से कराया, जिसमें उनकी आर्थिक हालत बिगड़ी थी, और कथित रूप से लोकतंत्र में रहने के बावजूद सरकार की नीतियों को प्रभावित करना उनकी क्षमता से बाहर हो गया था।

इस अहसास की पहली प्रतिक्रिया Occupy Wall Street मूवमेंट के रूप में देखने को मिला। यह आंदोलन अमेरिका से शुरू होकर पूरे यूरोप में फैल गया। चूंकि वॉल स्ट्रीट अमेरिकी शेयर बाजार का केंद्र है, इसलिए बाकी देशों इसे Occupy मूवमेंट के नाम से जाना गया। इस मूवमेंट के कारण ही अमेरिका में बर्नी सैंडर्स, ब्रिटेन में जेरमी कॉर्बिन, स्पेन में यूनिदास पोदेमॉस, ग्रीस में सिरिजा, फ्रांस में ला फ्रांस इसोमाई ग्रुप, जर्मनी में डाय लिंके आदि जैसी परिघटनाएं देखने को मिलीं। ये सभी परिघटनाएं अपनी चमक अब खो चुकी हैं, लेकिन उन्होंने जो बहस छेड़ी, उससे समाज में हुआ ध्रुवीकरण कायम है।

दूसरी तरफ इन सभी देशों में धुर दक्षिणपंथी ताकतें भी उभरीं, जो लगातार मजबूत होती चली गई हैं। इनके बीच अमेरिका में इसके परिणामस्वरूप डोनाल्ड ट्रंप और उनके जैसे नेताओं के उदय और ब्रिटेन में ब्रेग्जिट की खास चर्चा रही है। लेकिन इन दोनों तरह के ध्रुवीकरण का सार यह है कि बढ़ती जा रही गैर-बराबरी ने इन समाजों के अंदर आम-सहमति को तोड़ दिया हैः भले यह विंडबना मालूम पड़े, लेकिन यह सच है कि धुर दक्षिणपंथ और धुर वामपंथ दोनों का घोषित एजेंडा भूमंडलीकरण के खिलाफ जाता है। भूमंडलीरण को वे अपने देश की बहुसंख्यक जनता की आज की तमाम मुसीबतों के लिए जिम्मेदार मानते हैँ।

नतीजा यह है कि भूमंडलीकरण की नीतियों को तमाम विकसित देशों में छुट्टी पर भेज दिया गया है। वहां मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार को हतोत्साहित करने वाले कदम रोजमर्रा के स्तर पर उठाए जा रहे हैं। जब हकीकत यह है, तो इसमें क्या कोई हैरत की बात है कि भूमंडलीकरण को सहज ढंग से चलाने के लिए बने मंच जी-20 की प्रासंगिकता आज संदिग्ध हो गई है?

गैर-बराबरी का साया किस हद तक मौजूदा अर्थव्यवस्थाओं के संचालकों दिमाग पर भी मंडराता रहता है, इसकी झलक जी-20 शिखर सम्मेलन से पहले हुई बी-20 की बैठक में देखने को मिली। इस बैठक में अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठनों के बड़े अधिकारियों और दुनिया भर की बड़ी कंपनियों के संचालकों ने हिस्सा लिया। इस बैठक में जो बात सबसे ज्यादा चर्चित रही, वह विषमता ही है। वेतन में बढ़ती गैर-बराबरी का मुद्दा भी वहां उठा और लैंगिक एवं नस्लीय विषमताओं पर भी चर्चा हुई।

इस बैठक से संबंधित प्रकाशित एक खबर में बताया गया कि बैठक में आए अधिकारियों ने यह स्वीकार किया कि बढ़ती गैर बराबरी दुनिया की नंबर एक समस्या है। यह ऐसी समस्या है, जो दुनिया के आर्थिक विकास की दिशा को पलट सकती है। उन्होंने स्वीकार किया कि विभिन्न देशों के अंदर आर्थिक गैर बराबरी बढ़ी है। अमेरिका की जानी-मानी कंपनी मैकिंसे एंड कंपनी के ग्लोबल मैनेजिंग पार्टनर बॉब स्टर्नफेल्स ने कहा- ‘आज जिन मुद्दों का हम सामना कर रहे हैं, उनमें गैर बराबरी नंबर एक है। दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी वैसे देशों में रह रही है, जहां आमदनी की विषमता बढ़ रही है।’ स्टर्नफेल्स ने कहा- भारत में आबादी के दस फीसदी आबादी की संपत्ति निचली आधी आबादी की तुलना में 100 ज्यादा रफ्तार से बढ़ी है।

अब इसे सच्चाई पर परदा डालने का प्रयास ही माना जाएगा कि इस हकीकत को स्वीकार करने के बाद कॉरपोरेट अधिकारियों इस हालत के लिए प्रमुख रूप से जिन कारणों को जिम्मेदार ठहराया, उनमें कोरोना महामारी, रूस-यूक्रेन युद्ध, और संरक्षणवादी नीतियां हैँ। समाधान के तौर पर उन्होंने उन्हीं उपायों का जिक्र किया, जिनकी वजह से गैर बराबरी बढ़ी है। मसलन, इंटरनेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स (आईसीसी) के महासचिव जॉन डेनटॉन ने स्वीकार किया- ‘हमारी राय में व्यापार का आर्थिक वृद्धि और समावेशन (inclusion) से संतुलन नहीं बैठाया गया है। हमें यह अवश्य स्वीकार करना चाहए कि व्यापार गैर बराबरी घटाने और समावेशन बढ़ाने का एक अहम संचालक है।’ उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि मुक्त व्यापार के दौर में ही सबसे ज्यादा गैर बराबरी क्यों बढ़ी?

असलियत को ढकने के लिए कुछ भागीदारों ने अप्रासंगिक तथ्यों की चर्चा की। मसलन Kyndryl, USA नाम की कंपनी के सीईओ मार्टिन श्रोएटर ने कहा कि भारत सरकार ने इंटरनेट टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल आम जन और निजी संस्थाओं को एक दूसरे के करीब लाने और लोगों को शिक्षित करने के लिए किया है। बैठक में नीति आयोग के इस दावे का उल्लेख किया गया कि भारत सरकार 2015-16 से 2019-20 के बीच साढ़े 13 करोड़ लोगों को मल्टी-डायमेंशन पॉवर्टी (बहुआयामी गरीबी) से बाहर निकालने में सफल रही। इन तमाम दावों को तथ्यों के साथ चुनौती दी जा चुकी है। लेकिन लाजिमी ही है कि उनका उल्लेख वहां नहीं किया गया।

आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ता के हलकों में चूंकि मकसद समस्या की गंभीरता को समझना या समझाना नहीं, बल्कि उस पर बात करने की रस्म-अदायगी करना रहता है, इसलिए गैर बराबरी बढ़ने की बुनियादी वजहों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। जबकि Occupy आंदोलनों के बाद शुरू हुई बहस में उन कारणों का विस्तार से जिक्र हुआ था। उसे पूरे विमर्श को फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने बेहतर ढंग से समेटा। 2013 में आई उनकी किताब Capital in 21st Century को इसीलिए एक नई समझ देने वाली पुस्तक बताया गया था। हालांकि मार्क्सवादी अर्थशास्त्री लंबे समय से उन कारणों की तरफ इशारा कर रहे थे, लेकिन पिकेटी ने मौजूं प्रश्नों पर अपनी किताब को केंद्रित रखा और देखते-देखते गैर-बराबरी के एक बेहतरीन व्याख्याता के रूप में अपनी छवि स्थापित कर ली।

पिकेटी का मुख्य योगदान यह फॉर्मूला थाः g<r. यहां g का मतलब ग्रोथ रेट और r का मतलब जायदाद है (इसमें भौतिक और वित्तीय जायदाद दोनों शामिल हैं)। मतलब यह कि अगर किसी अर्थव्यवस्था में रियल एस्टेट के किराए, शेयर, बॉन्ड और ब्याज से आमदनी की दर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर से अधिक हो जाए, तो उसका स्वाभाविक परिणाम समाज में आर्थिक गैर बराबरी बढ़ने के रूप में सामने आता है। ऐसी अर्थव्यवस्था को rentier economy कहा जाता है, क्योंकि इसमें निवेशक उत्पादक कार्यों में निवेश से नहीं, बल्कि वित्तीय संपत्तियों या रियल एस्टेट जैसे जायदातों से rent कमा (या वसूल कर) भारी मुनाफा कमाते हैं।

नव उदारवादी नीतियों ने जिस वित्तीय पूंजीवाद का मार्ग प्रशस्त किया, उसमें सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में g<r एक सामान्य परिघटना बना रहा है। इसके अपवाद सिर्फ चीन या वे देश हैं, जहां राज्य (state) ने अर्थव्यवस्था में अपनी बड़ी भूमिका बनाए रखी है। लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ने की ललक में इन देशों ने भी जैसी आर्थिक या व्यापार नीतियां अपनाईं, उसका परिणाम वहां भी आर्थिक गैर बराबरी बढ़ने के रूप में सामने आया है। निष्कर्ष यह है कि गैर बराबरी की जड़ें rentier economy में छिपी हुई हैं।

तो सार यह है कि जी-20 आज अगर एक अप्रासंगिक मंच बन गया है, एक ऐसा मंच बन गया है जो विश्व अर्थव्यवस्था को मौजूदा संकट से निकालने में अक्षम नजर आता है, तो उसका कारण यह है कि गैर बराबरी को बढ़ाने वाली नीतियों को फैलाने की कोशिश में ही यह मंच बना था। जब गैर बराबरी एक हद से ज्यादा बढ़ गई, तो इन नीतियों के खिलाफ अलग-अलग रूपों में जन विद्रोह के संकेत देखने को मिले हैं।

इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार पश्चिमी शासक वर्ग है, जिसने दुनिया भर में नव उदारवाद थोपा। जी-20 उनकी इस कोशिश में ही एक उपकरण था। इसीलिए अब जबकि उन नीतियों का परिणाम सामने है, तो उन देशों की भी इस मंच में ज्यादा दिलचस्पी नहीं बची है। वरना, वे विश्व अर्थव्यवस्था के संचालन में मददगार बनने के लिए बने मंच पर राजनीतिक मुद्दे उठाकर वहां टकराव पैदा नहीं करते।

सच यह है कि उन देशों ने नई परिस्थितियों में अपने एजेंडे को फैलाने या थोपने के लिए फिर से जी-7 में नवजीवन फूंकने को प्राथमिकता बना लिया है। दूसरी तरफ बाकी देश ब्रिक्स-11 और यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन जैसे मंचों पर आपसी सहयोग से अपने विकास का रास्ता तैयार करने की कोशिश कर रहे हैँ। तो अब यह बेहिचक कहा जा सकता है कि गैर बराबरी के घुन ने जी-20 की जड़ें कुतर दी हैं। इस सूरत में इस लड़खड़ाते मंच का अब शायद ही कोई भविष्य बचा है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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