इस तरह से तो न कांग्रेस का भला होने जा रहा, न ही देश का  

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कांग्रेस नेता राहुल गांधी पिछले दिनों गुजरात में पार्टी कार्यकार्ताओं को संबोधित करते हुए पार्टी के भीतर की गंभीर खामियों का खुलासा कर रहे थे। उन्होंने ऐलान किया कि पार्टी में कांग्रेस की विचारधारा और बीजेपी आरएसएस की विचारधारा के लोगों को अलग-अलग श्रेणीबद्ध करने की जरूरत है। आज के समय में यह दुर्लभ है कि नेता पार्टी के भीतर की खामियों को खुलकर स्वीकार करें।

राहुल के भाषण पर पार्टी कार्यकताओं ने जमकर तालियां बजाई। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि एक दशक से मर्ज की पहचान कर लेने के बावजूद यदि सर्जन की भूमिका में भी खुद गांधी परिवार ही था, तो अब तक ऑपरेशन क्यों नहीं किया गया? साधारण कार्यकर्ता या आम जनता तो करने से रही।

यह एक ऐसी पहेली है, जो कांग्रेस को दीमक की तरह दिनोंदिन खाए जा रही है। अभी भी भाजपा की जीत में यदि किसी का सबसे बड़ा हाथ है, तो वह खुद कांग्रेस की वजह से ही है। कांग्रेस और बीजेपी का सीधा मुकाबला गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में रहा है, और राजस्थान तथा हरियाणा को छोड़ दें तो पिछले 3 लोकसभा चुनावों में बीजेपी को एकतरफा जीत हासिल हुई है। 

और इन सभी राज्यों (यूपी, बिहार, ओडिशा और झारखंड को भी जोड़ सकते हैं) में कांग्रेस का संगठन बुरी तरह से चरमराया हुआ है। पार्टी हाईकमान को इस बीमारी के बारे में दशकों से पता है, लेकिन शायद कांग्रेस के काम करने का तरीका ही कुछ ऐसा है, जिसमें बड़े संरचनात्मक बदलाव के बगैर इस बीमारी से निपट पाना असंभव है। 

पार्टी अध्यक्ष के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे को भी दो वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन उदयपुर चिंतन शिविर में लिए गये प्रस्तावों को जमीन पर नहीं लाया जा सका है। कांग्रेस पार्टी खुद को लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहक बताने से नहीं चूकती, लेकिन पार्टी नेता यदि एक विषय पर ही विपरीत राय सार्वजनिक रूप से पेश करें तो यह लोकतंत्र के नाम पर अवसरवाद ही है। 

राहुल गांधी देश के गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों की आवाज लगातार उठा रहे हैं, और उनकी दावेदारी को चैंपियन कर रहे हैं। हाल के दिनों में पार्टी संगठन में कुछ फेरबदल भी किए गये हैं, लेकिन लगभग हर राज्य में संगठन पर मजबूत पकड़ अभी भी उन लोगों के हाथों में है, जो गांधी, नेहरू और अंबेडकर के विचारों से नहीं बल्कि राजसुख भोगने का सपना पाले हुए हैं।

हरियाणा का ही उदाहरण ले लें। कहा जाता है कि विधानसभा चुनाव से पहले भूपिंदर सिंह हुड्डा ने साफ़ कहा था कि यह उनका आखिरी चुनाव है, जिस पर राहुल गांधी का कहना था कि यही बात पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह कहते थे। हुड्डा ने कहा था, वे जो कह रहे हैं उसका मान रखने वाले हैं। आज हरियाणा विधानसभा चुनाव खत्म हुए 5 महीने से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन माना जा रहा है कि हुड्डा ही नेता विपक्ष के लिए ताल ठोंक रहे हैं। उनका दावा है कि उनके पीछे 30 विधायक और 4 सांसद हैं।

समय बीता जा रहा है, राहुल हुड्डा के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन हुड्डा गुट अड़ा हुआ है। हरियाणा हुड्डा, शैलजा और सुरजेवाला लॉबी के खेमों में बंटा हुआ है। हरियाणा में कांग्रेस कहां है फिर? इसी तरह राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या अन्य राज्यों का हाल है। यदि पिछले दस वर्षों से केंद्र की नीतियों से क्षुब्ध आम नागरिक राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और नैरेटिव के आधार पर कांग्रेस कार्यकर्ता के तौर पर काम करने की कोशिश भी करें, तो उन्हें इन्हीं गुटों में से किसी एक के सहारे संघर्ष करना होगा। कोई भी ईमानदार कार्यकर्ता ऐसे नेताओं के पीछे खुद को क्यों झोंके, जिनकी आस्था निजी स्वार्थ सिद्धि से ऊपर नहीं है?

इससे भी जरूरी, यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ये सभी नेता किसी न किसी तरह इंदिरा फिर राजीव और हाल तक सोनिया गांधी के गुड बुक में नाम लिखाकर ही राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में अपना मुकाम हासिल करने में सफल रहे हैं। आज भी यदि इनके खिलाफ कोई कड़ा कदम उठाने की बात उठती है तो गांधी परिवार के बीच ही मामला उलझकर रह जाता है। 

ऐसा भी माना जाता है कि राहुल गांधी जिन युवा नेताओं के साथ मिलकर पिछले दो दशक से कांग्रेस की सूरत बदलने के लिए निकले थे, उनमें से अधिकांश भाजपा की गोदी में खेल रहे हैं। सत्ता का सुख भोग चुके अधिकांश वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी के कार्यकाल में फले-फूले, जिनके रहते राहुल की कांग्रेस और नैरेटिव इन राज्यों में आगे नहीं बढ़ सकती। राहुल की ब्रिगेड तो नदारद हो गई, लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, यूपी, राजस्थान और उत्तराखंड हर जगह पुराने घाघ कांग्रेसियों का दबदबा कायम है। 

ऐसा आकलन है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने इस बार गुजरात और असम में बड़ा उलटफेर करने का लक्ष्य लिया हुआ है। गुजरात तो 2017 में कांग्रेस जीतते-जीतते रह गई, और 2022 में आम आदमी पार्टी के अवतरण ने उसका लगभग सफाया ही कर दिया। इसी तरह असम में भी मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा के खिलाफ भारी जन असंतोष के बावजूद कांग्रेस के लिए ब्रेकथ्रू कर पाना एक कठिन चुनौती बना हुआ है।

इन दोनों ही राज्यों में भाजपा-आरएसएस का नेटवर्क और मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इतने बड़े पैमाने पर बना हुआ है कि इंदिरा-राजीव के समय की ओल्ड कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व इसका कोई मुकाबला नहीं कर सकती। गुजरात में पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल से ही माना जाता था कि विपक्ष भी सत्ता पक्ष के सुर में सुर मिलाया करता था। हाल के वर्षों में गुजरात कांग्रेस से जिस तादाद में नेता भाजपा में गये हैं, उसे देखते हुए आम गुजराती को कांग्रेस को मुकम्मल विपक्ष मानने में भी संशय हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है।

बताया जा रहा है कि कांग्रेस के पूर्व विधायक, मनहर पटेल ने राहुल गांधी को एक पत्र लिखकर अवगत कराया था कि पिछले दो दशक से अब तक राज्य के 75 वरिष्ठ नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं।  इनमें से अधिकांश राज्य स्तरीय वरिष्ठ नेता थे। राहुल ने जो कहा, उसे गुजरात में आम कांग्रेस कार्यकर्ता पहले से जानता है। 

खुद राहुल गांधी ने अल्पेश ठाकुर और हार्दिक पटेल जैसे युवा नेताओं को राज्य कांग्रेस में प्रमुखता दी, लेकिन ये दोनों ही बीजेपी की शरण में जा चुके हैं। और यह सब किया गया परेश धनानी जैसे कर्मठ कांग्रेसी नेता की कीमत पर। और तो और, 4 दशक तक कांग्रेस कार्यकर्ता और प्रदेश अध्यक्ष रहे अर्जुन मोढवाडिया तक अपने साथ दो पूर्व विधायकों को लेकर बीजेपी की शरण में जा चुके हैं। 

गुजरात को पिछले दो दशक से भी अधिक अर्से से मजबूत विपक्ष की कमी अखर रही है। इसके अभाव में आम लोगों के सामने बीजेपी से ही काम चलाने की विवशता बनी हुई है, जिसके पास हर समस्या के लिए मुस्लिम समुदाय निशाने पर बना रहता है। गुजरात के लिए गर्व करने के लिए देश के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के अलावा, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई और देश पर अपनी मजबूत पकड़ बनाते जा रहे अंबानी और अदानी हैं। 

भारत जैसे देश में, जहां पिछड़ी सोच और क्षेत्रीय भावना को हवा देकर प्रदेश के आम लोगों को लंबे समय तक बरगलाए रखना बेहद आसान रहा है, उसमें राहुल गांधी अगर सिर्फ इमोशनल अपील के माध्यम से बाजी पलटने की सोच रहे हैं, तो यह दूर की कौड़ी है। पार्टी नेतृत्व को चाहिए कि वह सबसे पहले स्वंय को टटोले और पार्टी के भीतर सुसंगत लोकतंत्र की परिपाटी की नींव रखे। 

जिन प्रदेशों में पार्टी की कमान को आज भी सत्तालोलुप नेताओं ने जकड़ रखा है, उसे मुक्त कराकर जिला स्तर से नीचे तक पार्टी का पुनर्गठन और स्वतंत्र कामकाज करने की ताकत दे। यह नहीं कि पार्टी में हर काम के लिए हाई कमान का मुंह ताका जाये, जिसके पास खुद तो समय कभी नहीं रहता, इसलिए अंततः सब कुछ उस संगठन महासचिव की झोली में चला जाता है, जिनका कार्यकाल खुद खत्म हो चुका है। ऐसे में सारी कवायद और मेहनत पानी में फिरना स्वाभाविक है, जो गुजरात की तरह धीरे-धीरे पूरे देश में छा रही है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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