Tuesday, March 19, 2024

सरकारी दावों पर पानी फेरता झारखंड के पानी का सच

कहा जाता है कि पहाड़ से पानी का रिश्ता सदियों पुराना है। प्रकृति के इसी गठबंधन की वजह से पहाड़ और जंगल से घिरे इलाकों में कभी पानी की कमी नहीं रही। लेकिन झारखंड में पिछले तीस साल के दौरान तकरीबन 1500 पहाड़ खत्म कर दिए गए हैं। यह साफ दिखने लगा है कि जिन इलाकों में पहाड़ खत्म किए गए वहां के लोगों को पानी का संकट झेलना पड़ रहा है।

रांची के कांके प्रखंड के कई गांवों में पहाड़ खत्म हो चुके हैं, नतीजतन यहां के लोगों को पानी के बूंद-बूंद के लिए तरसना पड़ रहा है। कांके प्रखंड के पचफेड़िया और कुम्हरिया गांव में पिछले तीन साल में कई पहाड़ खत्म कर दिए गए। इसका नतीजा यह हुआ कि गांव में पानी पूरी तरह खत्म हो गया और ग्रामीण अब पहाड़ की तलहटी में थोड़ा-बहुत बचे पानी के सहारे जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं।

ग्रामीण बताते हैं कि तीन साल पहले तक इस क्षेत्र का मौसम इतना ख़ुशनुमा था कि गर्मी का जरा भी एहसास नहीं होता था, मौसम में ठंडाई बराबर बनी रहती थी। लेकिन जैसे-जैसे भू-माफियाओं और पत्थर-माफियाओं की कुदृष्टि यहां की जमीनों व पहाड़ों पर पड़ी और इसके साथ ही क्रशर उद्योग के जरिये पहाड़ों के खात्मे की शुरुआत हो गयी। जंगल अपना स्वरूप खोते गए और पहाड़ समतल होते गए। आज हाल यह है कि ग्रामीणों को नहाने-धोने के लिए चट्टानों के बीच जमा पानी ही एकमात्र सहारा है।

पचफेड़िया गांव के अकलू मुंडा पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि सालों पहले जब गांव के चारों तरफ पहाड़ थे, तब पानी को लेकर कभी परेशानी नहीं हुई। लेकिन पहाड़ खत्म होने के बाद गांव में पानी का जलस्तर ही खत्म हो गया। कांके प्रखंड के पचफेड़िया गांव के घरों में सरकारी शौचालय तो नजर आते हैं, लेकिन इनमें पानी का कोई कनेक्शन नहीं है क्योंकि गांव में जलापूर्ति योजना नहीं पहुंची है और न ही गर्मी में कुओं में पानी ही बचा है। ऐसे में शौचालय में ताले लटके नजर आते हैं। परम्परागत रूप से खुले में शौच अब पुनः सहारा बन गया है।

जाने माने पर्यावरणविद नीतीश प्रियदर्शी की मानें तो पहाड़ के किनारे बसे गांवों में पानी का संबंध सीधे चट्टानों से होता है। पहाड़ के दबाव से ही जमीन के नीचे का पानी ऊपर आता है और ग्रामीणों को पानी उपलब्ध हो पाता है। लेकिन जैसे ही पहाड़ खत्म होने लगे, दरारों से पहाड़ में पानी का रिचार्ज सिस्टम भी मॉनसून में खत्म होने लगा।

प्रियदर्शी बताते हैं कि पिछले तीन दशक में झारखंड में करीब डेढ़ हजार पहाड़ों को खत्म कर दिया गया है या फिर उनका स्वरूप छोटा कर दिया गया है। वे कहते हैं कि वर्तमान में करीब ढाई हजार पहाड़ राज्यभर में मौजूद हैं, जिसे हर हाल में बचाने की जरूरत है।

झारखंड की राजधानी रांची में जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है। इस स्थिति से उबरने के लिए सरकारी स्तर पर लगातार प्रयास भी किए जा रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो ये प्रयास फिलहाल नाकाफी हैं। इसके लिए जन जागरुकता अभियान चलाए जाने की जरूरत है ताकि इसे जन अभियान बनाया जा सके। जल व पर्यावरण संरक्षण को जिस गंभीरता व सक्रियता के साथ किया जाना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है। लिहाजा, इसका नकारात्मक असर अब देखने को मिल रहा है। जलस्तर नीचे जा रहा है और कई इलाकों में तो जल का गंभीर संकट है।

शहर के पर्यावरणविद नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं कि यदि मानव का अस्तित्व और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को बचाना है तो व्यवहारिक रूप से हर व्यक्ति को जल व पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सकारात्मक प्रयास करना होगा। उन्होंने कहा कि जिस गंभीरता और सक्रियता से इस ओर प्रयत्न होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। शहर के कई इलाकों में जलस्तर नीचे जा चुका है। शहर के बीचोंबीच बहने वाली हरमू नदी नाले का रूप ले चुकी है। तालाब व कुएं सूख चुके हैं और वहां कांक्रीट का जाल बिछ चुका है। इसे हर हाल में रोकना होगा, नहीं तो आने वाली पीढ़ी पेयजल के लिए तरस जाएगी।

बता दें कि शहर के वार्ड नंबर 34 हरमू के विद्या नगर, गंगा नगर, यमुना नगर, कृष्णा नगर के लोगों को जलसंकट का सामना करना पड़ रहा है। जलस्तर नीचे जाने से उन्हें पानी के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है।

बुढ़मू प्रखंड में तपती गर्मी की वजह से अधिकांश, कुआं, तालाब, चापाकल दम तोड़ चुके हैं। प्रखंड क्षेत्र में बहने वाली भुर नदी इस वर्ष पूरी तरह से सूख चुकी है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से क्षेत्र में लगभग 1958 चापाकल हैं जिसमें 940 जलस्तर के नीचे चले जाने से बेकार पड़े हुए हैं। इस पर किसी सामाजिक संस्था ने अभी तक कोई सर्वे नहीं किया है। जलस्तर के गिरते इस भयावह स्थिति से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़ हुई है।

जिले के ओरमांझी प्रखंड में नदी और तालाब सूख चुके हैं। जिस नदी और तालाब में लबालब पानी भरे रहते थे वहां अब छोटे-छोटे बच्चे कीचड़ में मछली पकड़ रहे हैं। ग्रामीणों को पेयजल के लिए तरसना पड़ रहा है और सरकारी योजनाओं का मुंह ताकना पड़ रहा है। आलम यह है कि पेयजल के अलावे नहाने धोने के लिए भी पानी नसीब नहीं है। जिससे ग्रामीणों के बीच विषम स्थिति बनी हुई है।

खूंटी जिला अंतर्गत तोरपा प्रखंड में चुरगी नदी लगभग 5 से 6 सालों से सूख गई है। केवल बरसात के दिनों में ही इसमें पानी रहता है। इसके बाद यह नदी पूरी तरह से सूख जाती है। नदी में घास उग आए हैं और बालू निकासी के कारण नदी के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। यही हाल कारो नदी का भी है। यहां भी अवैध तरीके से बालू निकासी के कारण पानी गायब है। फिलहाल तोरपा व मरचा गांव के लोगों को पानी मुहैया कराने के लिए पुल के पास ट्रेंच काट कर पानी का ठहराव किया गया है। ताकि इन गांवों में जलापूर्ति हो सके।

सीयूजे रांची डिपार्टमेंट आफ वाटर इंजीनियरिंग एंड मैनेजमेंट के एचओडी प्रो. अजय सिंह का कहना है कि हमारे देश में वैश्विक आबादी का लगभग 16 प्रतिशत हिस्सा निवास करता है, लेकिन देश के पास दुनिया के ताजे पानी के संसाधनों का केवल 4 प्रतिशत ही है। जनसंख्या बढ़ रही है जबकि जल संसाधन सीमित हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और सूखे के कारण बदलते मौसम के मिजाज ने स्थिति को और भी खराब कर दिया है। अति निर्भरता के कारण भूजल संसाधनों का दोहन हो रहा है और इसने हमें दुनिया में जल-तनाव वाला देश बना दिया है।

प्रो अजय सिंह कहते हैं कि विभिन्न फसलों की सिंचाई के लिए 90 प्रतिशत से अधिक भूजल का उपयोग हो रहा है। देश का लगभग 85 प्रतिशत पेयजल आवश्यकताओं को भूजल से पूरा किया जा रहा है।

वे बताते हैं कि 9 अगस्त 2021 को जारी इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि मानव प्रभाव ने वातावरण, महासागर और भूमि को गर्म कर दिया है। निरंतर ग्लोबल वार्मिंग से वैश्विक जल चक्र को और तेज करने का अनुमान है। जिसमें इसकी परिवर्तनशीलता, वैश्विक मानसून वर्षा और गीली और सूखी घटनाओं की गंभीरता शामिल है। हमें अपने जल संसाधनों के प्रबंधन को बेहतर कार्ययोजना तैयार करने की जरुरत है।

प्रो सिंह ने कहा कि झारखंड में पहले से मौजूद झीलों और तालाबों का जीर्णोद्धार करना होगा। तालाबों की भंडारण क्षमता को बहाल करने की जरूरत है और कई और नए जल निकायों का विज्ञानी रूप से निर्माण किया जाना चाहिए। इससे भूजल स्तर में वृद्धि होगी। झारखंड राज्य वर्षा जल संचयन की विशाल क्षमता के साथ अपने जल संग्रहण को बढ़ा सकता है।

बताते चलें कि झारखंड में भूमिगत जल का लगातार वर्षों तक अत्यधिक दोहन किया जाता रहा है, जिससे उसका स्तर हर वर्ष तेजी से नीचे जा रहा है। राज्य के 19 जिलों में पिछले 20 सालों में दो से छह मीटर तक जलस्तर नीचे चला गया है।

जिसमें रांची, धनबाद, गुमला, लोहरदगा, पश्चिमी और पूर्वी सिंहभूम, चतरा, गिरिडीह, बोकारो, पलामू, गढ़वा, लातेहार, दुमका, जामताड़ा, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज और पाकुड़ जिले शामिल हैं। झरिया, धनबाद, जमशेदपुर, गोड्डा, रामगढ़ और राजधानी रांची का कांके इलाका अत्यधिक जलदोहन क्षेत्र घोषित किये गये हैं।

राज्य भूगर्भ जल निदेशालय के आंकड़ों के मुताबिक राज्य भर में 23,800 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) पानी सरफेस वाटर (सतही जल) से आता है, वहीं 500 एमसीएम पानी भूमिगत जल स्तर से आता है। राज्य भर में औसतन 1100 मिमी से लेकर 1442 मिमी बारिश होती है।

मई 2020 के आंकड़ों के मुताबिक पिछले तीन वर्षों से अनियमित बारिश के कारण भूगर्भ जल का स्तर 4.35 मीटर से 4.50 मीटर तक कम हुआ है। इस कारण गरमी में राज्य भर के 90 प्रतिशत कुएं सूख जाते हैं और डैमों का जलस्तर भी गिरता चला जाता है।

भूमिगत जल का स्तर उठाने के लिए बारिश के पानी को बचाना जरूरी है। राज्य की भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार 80 प्रतिशत सरफेस वाटर और 74 फीसदी भूमिगत जल बह जा रहा है।

बताते चलें कि पलामू प्रमंडलीय मुख्यालय मेदिनीनगर में जल संकट का आलम यह है कि निगम क्षेत्र के कई ऐसे इलाके हैं, जो ड्राइजोन के रूप में चिन्हित किए गए हैं। जल स्तर नीचे चले जाने के कारण उस क्षेत्र के चापानल भी जवाब दे चुके हैं। ऐसी स्थिति में जलापूर्ति ही उन लोगों का सहारा बना है।

बता दें कि निगम क्षेत्र के वार्ड संख्या 19 के कांदू मोहल्ला में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। जहां जल स्तर नीचे जाने के कारण चापानल से पानी नहीं मिल रहा है। वहीं जलापूर्ति का पाईप कुछ जगहों पर तो बिछा है, लेकिन वह सिर्फ दिखावे के लिए है। वर्ष 2005 में पाइप को बिछाया गया, लेकिन सिर्फ एक माह ही पानी मिला। वहीं देवी मंदिर व आसपास के इलाके में पाइप बिछाया ही नहीं गया है। वार्ड पार्षद द्वारा प्रयास भी किया गया, लेकिन सफलता नहीं मिली। जल संकट झेल रहे लोग पानी के जुगाड़ में भटकते रहते हैं। कोयल नदी में चुआड़ी खोदकर लोग पानी लाने को विवश हैं।

लोग पीने का पानी पंपूकल या दो नंबर टीओपी के पास लगे स्टैंड पोस्ट से लाते हैं। लोगों का कहना है कि स्टैंड पोस्ट पर भी काफी भीड़ रहती है। पानी लेने के लिए लोग आपस में तू- तू , मैं- मैं करते हैं। जलापूर्ति का लाभ मिले इसके लिए सांसद, विधायक एवं नगर निगम के प्रतिनिधियों से भी प्रयास किया गया। काली मंदिर से देवी मंदिर तक पाइप बिछाने के लिए राशि भी उपलब्ध करायी गयी थी। लेकिन कई अड़चन के कारण पाइप नहीं बिछा। जलापूर्ति व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए प्रशासनिक पहल नहीं हुई और न ही पेयजल व स्वच्छता विभाग गंभीर हुआ।

वार्ड पार्षद सुषमा कुमारी आहूजा बताती हैं कि कांदू मोहल्ला के लोग वास्तव में जल संकट से जूझ रहे हैं। पेयजल एवं स्वच्छता विभाग ने जिस तरह जलापूर्ति के लिए पाइप बिछाया है उससे लोगों को लाभ नहीं मिल पा रहा है। पंपूकल से निचले इलाके में भी जलापूर्ति पर्याप्त नहीं होती है। काली मंदिर से देवी मंदिर तक पाइप नहीं बिछाया गया इस कारण भी लोगों को जलापूर्ति का लाभ नहीं मिल पाता है। इस समस्या के समाधान के लिए प्रयास किया गया, लेकिन निगम प्रशासन के उदासीन रवैये के कारण जलापूर्ति पाइप जोड़ने का कार्य पूरा नहीं हुआ।

कांदू मोहल्ले के राजू जायसवाल का कहना है कि न तो पुरानी जलापूर्ति का लाभ मिला और न ही नयी जलापूर्ति योजना का। वर्षों से लोग जलापूर्ति का लाभ लेने के लिए परेशान हैं। विभागीय एवं प्रशासनिक उदासीनता के कारण यह स्थिति बनी है।

वर्मा चौक निवासी प्रदीप गुप्ता का कहना है कि पंपूकल नजदीक होने के बाद भी इस मोहल्ले के लोग प्यासे हैं। अपनी प्यास बुझाने के लिए कोयल नदी का दौड़ लगाते हैं। इस समस्या से कब छुटकारा मिलेगा, प्रशासन कब उन लोगों के दर्द को समझेगा? इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

यह रही राजधानी के सटे इलाकों और राज्‍य के अन्य शहरों की कहानी लेकिन जब हम झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्र की ओर निगाह डालते हैं तो दुष्यंत कुमार की निम्न पंक्ति जेहन में स्वतः कौंध जाती है –

कहां तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये

कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

एक तरफ सरकार दावा करती है कि लघु जलापूर्ति योजना के तहत पंचायत/टोला स्तर पर ग्रामीणों को सौर ऊर्जा आधारित बोरिंग के माध्यम से जल उपलब्ध कराया जा रहा है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति यह है कि लोग आज भी नदी, पहाड़ी क्षेत्रों से गिरता हुआ पानी, खेतों में बना हुआ चुंआ वगैरह का पानी पीने को मजबूर हैं।

उदाहरण के लिए हम चलते हैं झारखंड के गुमला जिले के घाघरा प्रखंड में जंगल व पहाड़ों के बीच स्थित एक गांव है झलकापाठ। इस गांव में 15 परिवार बसते हैं कोरवा आदिम जनजाति के। यह आदिम जनजाति विलुप्त प्राय 8 आदिम जनजातियों में एक है। इस जनजाति को बचाने के लिए सरकार कई प्रकार की योजनाएं चला रही है। परंतु झलकापाठ गांव की कहानी सरकार की डपोरशंखी योजनाओं की पोल खोलने के लिए काफी है। जिस जनजाति के उत्थान के लिए सरकार ने करोड़ों रुपये गुमला जिला को आवंटित किया है। आज यह जनजाति सरकार की जनाकांक्षी योजनाओं के साथ-साथ मूलभूत सुविधाओं से जहां पूरी तरह वंचित है और आज भी यह आदिम युग में जीने को मजबूर है वहीं पीने के पानी के लिए पहाड़ पर निर्भर है।

बताते चलें कि झलकापाठ गांव में तालाब, कुआं व चापानल नहीं है। पहाड़ के खोह में जमा पानी ही इन 15 कोरवा जनजाति परिवारों की प्यास बुझाता है।

गांव में तालाब, कुआं व चापानल नहीं होने के कारण गांव के लोग पहाड़ के खोह में जमा पानी से प्यास बुझाते हैं। इन्हें पानी के लिए सबसे बड़ी समस्या तब खड़ी हो जाती है, जब एक पहाड़ की खोह में पानी सूख जाता है और वे दूसरे खोह में पानी की तलाश में भटकते रहते हैं। गांव से पहाड़ की दूरी डेढ़ से दो किमी है। हर दिन लोग पानी के लिए पगडंडी व पहाड़ से होकर पानी खोजते हैं और पीते हैं।

वहीं गांव तक पहुंचने के लिए सड़क नहीं है। ग्रामीणों को पैदल ही आना जाना पड़ता है। गाड़ी का गांव तक जाना सपना के समान है।

स्थिति यह है कि इन 15 कोरवा परिवारों को डीलर के पास से राशन लाने के लिए 10 किमी पैदल चलना पड़ता है। जबकि मुख्यमंत्री डाकिया योजना के तहत आदिम जनजाति परिवारों को बोरा बंद अनाज पहुंचाने का नियम है। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।

एक तरफ सरकार ने कहा है कि आदिम जनजाति परिवार के घर तक पहुंचाकर राशन दें। परंतु इस गांव में आज तक एमओ व डीलर द्वारा राशन पहुंचाकर देना तो दूर, प्रखंड के किसी भी अधिकारी या कर्मचारी ने भी इस गांव की ओर आज तक कदम नहीं रखा है।

झारखंड सरकार द्वारा आदिम जनजाति को दिया जाने वाला बिरसा आवास का लाभ भी इस गांव के किसी को नहीं मिला है। अतः सभी लोग झोपड़ी के घर में रहते हैं। यह गांव पूरी तरह सरकार व प्रशासन की नजरों से ओझल है।

गांव के लोग मिलने वाले सरकारी अनाज के अलावा जंगली कंद मूल खाना खाते हैं। इसके साथ ही चावल के साथ साग-सब्जी एवं नमक मसाला के लिए वे लोग लकड़ी बेचने का काम करते हैं। इसके अलावा मजदूरी के लिए गांव के हर युवक युवती दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं, इनकी जीविका का यह भी एक माध्यम है।

इस गांव के हर एक परिवार के युवक-युवती काम करने के लिए दूसरे राज्यों में पलायन कर गये हैं। इसमें कुछ युवतियां लापता हैं, जिनका आज तक पता नहीं चल पाया है। वहीं कुछ युवक साल-दो साल में घर आते हैं।

बता दें गांव में मनरेगा के तहत एक परिवार को 100 दिन के काम की गारंटी होती है, लेकिन झलकापाठ में मनरेगा का किसी भी परिवार का रोजगार कार्ड नहीं है। अतः पलायन करने की वजह गांव में काम नहीं है। गरीबी व लाचारी में लोग जी रहे हैं। पेट की खातिर व जिंदा रहने के लिए युवा वर्ग पढ़ाई लिखाई छोड़ पैसा कमाने गांव से निकल जाते हैं।

कागजी कार्रवाई की बात करें तो केन्द्र सरकार की स्वच्छ भारत अभियान योजना के तहत गांव के किसी के घर में शौचालय नहीं है। महिला पुरुष सभी लोग खुले में शौच करने जाते हैं। मगर गुमला के पीएचईडी विभाग के फाइल में हर घर में शौचालय बन गया है।

गांव के सुकरा कोरवा, जगेश्वर कोरवा, पेटले कोरवा, विजय कोरवा, लालो कोरवा, जुगन कोरवा, भिनसर कोरवा, फुलो कोरवा ने बताया कि हमारी जिंदगी कष्टों में कट रही है। परंतु हमारा दुख दर्द देखने व सुनने वाला कोई नहीं है। लोकसभा हो या विधानसभा या फिर पंचायत का चुनाव, हर चुनाव में हम वोट देते हैं। हम भारत के नागरिक हैं। परंतु हमें जो सुविधा मिलनी चाहिए, वह सुविधा नहीं मिल पाती है। गांव के बच्चे चार व पांच क्लास में पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं और कामकाज में लग जाते हैं।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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