Sunday, April 28, 2024

अविश्वास प्रस्ताव से INDIA को क्या मिला?

लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान INDIA गठबंधन में शामिल अधिकांश विपक्षी नेताओं ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि उन्हें ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि इस प्रस्ताव के जरिए वे नरेंद्र मोदी सरकार को गिरा देंगे। उन्होंने जोर दिया कि अगर प्रधानमंत्री मोदी मणिपुर मामले में सदन में आकर बयान देने पर राजी हो गए होते, तो वे यह प्रस्ताव लाने के लिए मजबूर नहीं होते। यानी INDIA गठबंधन का मकसद प्रधानमंत्री को सदन में मणिपुर के हालात पर बयान देने के लिए मजबूर करना था।

इसी बीच तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने अपने भाषण के दौरान यह महत्वपूर्ण टिप्पणी की- ‘इस अविश्वास प्रस्ताव का मकसद किसी को गिराना नहीं, बल्कि कुछ खड़ा करना है।’ उन्होंने कहा- सरकार को गिरा देने का हमें कोई गुमान नहीं है, लेकिन इस प्रस्ताव के जरिए हम INDIA को उठाना चाहते हैं।

तो अविश्वास प्रस्ताव से विपक्ष को क्या हासिल हुआ, इस प्रश्न का उत्तर हमें इन्हीं दो मकसदों के बरक्स ढूंढना चाहिए। कहा जा सकता है कि इन दोनों उद्देश्यों में INDIA कामयाब हुआ। संसद सत्र में लगभग तीन हफ्तों तक सदन से गायब रहने के बाद 10 अगस्त को मोदी वहां आए। फिर 133 मिनट लंबा भाषण दिया। इसमें मणिपुर के सवाल पर वे चार मिनट ही बोले, लेकिन आखिरकार उन्हें संसद में इस मुद्दे पर अपनी जुबान खोलनी पड़ी।

नरेंद्र मोदी जब बोलेंगे, तो क्या और किस अंदाज में बोलेंगे, इसका इस देश के लोगों को अब भली-भांति अंदाजा लग चुका है। प्रधानमंत्री के भाषण से कई घंटे पहले कर्नाटक की कांग्रेस सरकार में मंत्री प्रियांग खड़गे ने एक न्यूज एजेंसी को बाइट दी। इसमें उन्होंने जो भविष्यवाणियां की, वे गुरुवार शाम सही साबित हुईं। खड़गे ने कहा कि प्रधानमंत्री के भाषणों का एक एस.ओ.पी. (स्टैडंर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर) है। इसके आधार पर उन्होंने अनुमान लगाया कि नरेंद्र मोदी जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक पर बरसेंगे और उन्हें तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराएंगे। सत्तर साल में कुछ ना होने की बात करेंगे, लेकिन अपने नौ साल के कार्यकाल की जवाबदेही पर कुछ नहीं कहेंगे।

वैसे भी यह सत्तर साल का डिस्कोर्स शुरू से बेतुका रहा है और इसका बेतुकापन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। भारत की आजादी के बाद के 76 वर्षों में अगर देखा जाए, तो भारतीय जनता पार्टी 19 साल तक (प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से) सत्ता में भागीदार रही है। इस लिहाज से कांग्रेस की जवाबदेही कुल 57 वर्षों की ही बनती है। लेकिन जब जुमलों से नैरेटिव गढ़े जाते हों, तो उसका पहला शिकार तथ्य ही बनते हैं।

वैसे प्रधानमंत्री के भाषण में एक नई बात थी। चूंकि इस बार प्रमुख मुद्दा मणिपुर से जुड़ा था, तो उन्होंने मिजोरम का मसला भी उछाल दिया। नगालैंड के बाद मिजोरम ऐसा दूसरा प्रदेश था, जहां आजादी के बाद निर्मित हो रहे आधुनिक भारतीय राष्ट्र को अलगाववादी जन-विद्रोह का सामना करना पड़ा था। फरवरी 1966 में ‘मिजो नेशनल फ्रंट’ की अगुआई में वहां अचानक विद्रोह भड़का। विद्रोहियों ने राजधानी आइजोल पर कब्जा जमा लिया। उसके बाद, यह सच है जैसा कि मोदी ने सदन में कहा, कि भारतीय वायु सेना ने वहां बमबारी की थी। बल्कि मिजोरम के कई इलाकों में ऐसा किया गया और कई जगहों पर पूरी आबादी का स्थानातंरण कराया गया।   

यह आधुनिक भारत के इतिहास का एक बेहद दुखद और अंधकार भरा अध्याय है। जिस समय यह विद्रोह भड़का, भारतीय राज्य एक अभूतपूर्व संकट से जूझ रहा था। 1962 के युद्ध में चीन से पराजित हुए अभी मुश्किल से साढ़े तीन वर्ष भी नहीं गुजरे थे। इस अवधि में देश के दो प्रधानमंत्रियों- जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री का निधन हुआ था। इसी बीच 1965 में पाकिस्तान से युद्ध हो चुका था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब देश में अनिश्चय और अस्थिरता की कैसी मनोदशा रही होगी।

इस बीच तब ऐसी शिकायतें आम थीं कि उत्तर पूर्व के विद्रोहियों को पूर्वी पाकिस्तान और चीन से मदद मिल रही है। मिजो विद्रोहियों ने जितने आधुनिक ढंग से हथियारों का इस्तेमाल किया था, उससे ऐसे आरोपों को और गंभीरता से लिया जाने लगा था। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बने अभी बमुश्किल छह हफ्ते गुजरे थे, जब मिजो विद्रोहियों ने भारत से अलग होने का एलान करते हुए हिंसक विद्रोह छेड़ दिया।

उन हालात में तत्कालीन भारत सरकार ने एक निर्णय लिया, जिसके बारे में हम सभी अपनी-अपनी राय रखने को स्वतंत्र हैं। मगर देश के प्रधानमंत्री अगर यह सवाल तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी को घेरने के लिए सदन में उठाएं, तो बात गंभीर हो जाती है। प्रधानमंत्री पद पर आसीन व्यक्ति जब बोलता है, तो वह सिर्फ अपनी व्यक्तिगत या अपनी पार्टी की राय जाहिर नहीं कर रहा होता है। बल्कि वह भारतीय राज्य की तरफ से बोल रहा होता है। तो क्या अब यह माना जाना चाहिए कि 1966 और उसके बाद के दस वर्षों में मिजो विद्रोह से निपटने के लिए जो तरीका तब अपनाया गया था, भारतीय राज्य ने अब उसे मानवाधिकारों का घोर हनन मान लिया है? और बात सिर्फ मिजोरम तक नहीं है। बल्कि मोदी ने उसमें पंजाब का संदर्भ भी जोड़ दिया।

प्रधानमंत्री ने कहा- ‘पांच मार्च 1966 को निर्दोष नगारिकों पर भारतीय वायु सेना ने हमला किया। हमारी अपनी वायु सेना ने हमारे अपने नागरिकों पर हमला किया, इसकी कल्पना कीजिए। क्या उनकी सुरक्षा भारत सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी? तब कौन सत्ता में था?’ इस बात के जवाब में खुद इंदिरा गांधी का नाम लेते हुए मोदी ने आगे कहा- ‘यह बात लोगों से छिपा कर रखी गई है। यह कार्रवाई अकाल तख्त में सेना भेजने का रिहर्सल (पूर्वाभ्यास) थी।’

वैसे यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है। इस प्रकरण की लंबे समय से चर्चा होती रही है। इसका उल्लेख अनेक किताबों में है। हम यहां इस गंभीर बात को उस रूप में तू तू-मैं मैं का हिस्सा नहीं बनाना चाहते, जैसा भाजपा के नेता करते हैं। मगर यह सवाल जरूर है कि जब मिजोरम में या पंजाब में अकाल तख्त पर सैनिक कार्रवाई हुई थी, तब क्या भाजपा/ भारतीय जनसंघ के नेताओं और इस पार्टी के मातृ संगठन आरएसएस ने उन कार्रवाइयों का समर्थन और स्वागत नहीं किया था?

हम ऐसी तमाम कार्रवाइयों को समग्र रूप से आधुनिक भारतीय राज्य के उदय की प्रक्रिया और उसके वर्ग चरित्र की व्याख्या करते हुए देखते और समझते हैं। सामान्य स्थितियों में अगर भारतीय राज्य अपने अतीत की किसी “गलती” को स्वीकार कर आगे उसमें सुधार का संकल्प जताता है, तो दुनिया के तमाम अमन पसंद और जम्हूरियत समर्थक लोग उसका स्वागत करेंगे। लेकिन दुर्भाग्यवश प्रधानमंत्री का मकसद ऐसा नहीं था। अगर ऐसा था, तो फिर उन्हें भारतीय राज्य की तरफ से मिजोरम और पंजाब दोनों राज्यों की जनता से उस दौर के लिए माफी भी मांगनी चाहिए थी।

नरेंद्र मोदी आज भारतीय राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन संभवतः इस अहसास और जिम्मेदारी की भावना के साथ बोलना उनके एस.ओ.पी. का हिस्सा नहीं है। इसलिए अपने लंबे भाषण के ज्यादातर हिस्से में वे विपक्ष पर कटाक्ष करते रहे। फब्तियां कसते रहे। नतीजतन, INDIA गठबंधन के नेताओं को उनके भाषण के बीच में ही वॉकआउट करना पड़ा। उसके बाद मोदी मणिपुर के मसले पर बोले। इस रूप में अविश्वास प्रस्ताव पेश करने की विपक्ष की रणनीति कामयाब हुई। इससे देश को पता चला कि इस अत्यंत गंभीर और ज्वलंत प्रश्न पर कहने के लिए प्रधानमंत्री के पास क्या है।

महुआ मोइत्रा ने जो दूसरा मकसद बताया, अगर उस कसौटी पर देखें, तो कहा जा सकता है कि बंगलुरू बैठक में 26 विपक्षी दलों का INDIA गठबंधन बनने के बाद से इन दलों में अब एक खास प्रकार की केमेस्ट्री उभर रही है। इसका साफ संकेत संसद के मानसून सत्र के दौरान देखने को मिला है। आम आदमी पार्टी के राज्य सभा सदस्य संजय सिंह के सदन से निलंबन के विरोध में आयोजित धरने में कांग्रेस के बड़े नेताओं ने भी भाग लिया और तथाकथित फ्लाइंस किस विवाद पर राहुल गांधी के बचाव में AAP की नेता स्वाति मालिवाल या समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव बोलते नजर आए, तो इसे इसी केमेस्ट्री का संकेत माना जाएगा।

दरअसल, इस सत्र के दौरान दिखा कि INDIA में शामिल दलों के नेता एक इकाई रूप में प्रतिक्रिया जताते देखे गए हैं। यह बात लोक सभा में राहुल गांधी के बहु प्रतीक्षित भाषण के दौरान भी देखने को मिली। दरअसल, अविश्वास प्रस्ताव पर होने वाले भाषणों में सर्वाधिक पूर्व जिज्ञासा जिस नेता के भाषण के बारे में थी, तो वे राहुल गांधी ही हैं। आठ अगस्त को- यानी जिस रोज अविश्वास प्रस्ताव पेश हुआ- उसी दिन राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता बहाल हुई थी। मीडिया ऐसे अनुमानों से भरा पड़ा था कि क्या बहस की शुरुआत राहुल गांधी करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राहुल गांधी नौ अगस्त को बोले।

अपने भाषण के आरंभ में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि इस मौके पर वे दिमाग से नहीं, बल्कि दिल से बोलेंगे। मतलब साफ था। राहुल ने यह कहा कि मणिपुर जाकर जो उन्होंने देखा और महसूस किया, यह उनके भाषण का केंद्रीय बिंदु होगा। इसके लिए उन्होंने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के अनुभवों का उल्लेख करते हुए पृष्ठभूमि तैयार की। बात को इस बिंदु पर ले आए कि भारत असल में एक आवाज है- यहां के सभी निवासियों की आवाज ही भारत है। इस आवाज को किस तरह मणिपुर में कुचला गया है, इसका जिक्र उन्होंने किया। और इसके आधार पर आरोप लगाया कि भाजपा कि विचारधारा ने भारत की आवाज की “हत्या” की है, इस रूप में उसने भारत की “हत्या” की है। यह विचारधारा मणिपुर से हरियाणा तक केरोसीन छिड़क रही है। मतलब यह कि ऐसे हालात हैं कि एक चिंगारी भर से आग सुलग सकती है।

यह एक शक्तिशाली भाषण था। बेशक यह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी ने संसद के मंच का इस्तेमाल भारत के लोगों को अपना राजनीतिक संदेश देने के लिए किया। लेकिन जिस समय संसद में तथ्यपरक बहस की गुंजाइशें बेहद सीमित हो गई हों और सत्ताधारी पार्टी के नेता खुद सियासी मकसद से ही संसद का उपयोग करते हों, तो इस ऐसी शिकायतों से सिर्फ राहुल गांधी को घेरना कहीं से भी न्याय नहीं होगा।

राहुल गांधी के भाषण की विशेषता यह रही कि उन्होंने राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भाजपा पर आक्रमण किया। इसे एक तरह से बात को पलट देना कहा जाएगा। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उभरी राष्ट्रवाद की भौगोलिक-साझा हित अवधारणा को भाजपा के हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद के बीच जारी संघर्ष में रूप में पेश किया और इस लड़ाई में भाजपा को रक्षात्मक रुख पर धकेलने की कोशिश की। यह बात INDIA में तकरीबन तमाम शामिल दलों को अपनी एकता और मजबूत करने का आधार प्रदान कर सकती है।

इसके बावजूद इस बात पर जोर देना जरूरी है कि यह एकता या उभरती दिख रही केमेस्ट्री संघ परिवार के राजसत्ता और समाज पर कस चुके शिकंजे को परास्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। जब तक इस एकता और कमेस्ट्री के साथ INDIA गठबंधन जनता के एक बड़े हिस्से के बीच राष्ट्रवाद की अपनी धारणा के लिए सकारात्मक समर्थन हासिल नहीं करता है, उसके वादे महज एक संभावना बने रह जाएंगे। राष्ट्रवाद की कोई धारणा तब जनता में उत्साह पैदा करती है, जब वह अपने साथ लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने का भरोसा भी जगा पाती है। विपक्ष को इस हकीकत को स्वीकार करना चाहिए कि उसने अभी ऐसा करने की कोई पहल नहीं की है।

INDIA गठबंधन अभी जिस रूप में है, उसमें वह सिर्फ एक चुनावी तालमेल का प्रयास है- वह भी ‘मोदी या भाजपा हराओ’ के नकारात्मक आधार पर। ऐसी सिसायत अक्सर कामयाब नहीं होती है। इसलिए जिस रूप में INDIA खड़ा हुआ है- उससे वह परिवर्तन का माध्यम बनने की संभावना जगा नहीं पाया है। (अगर राहुल गांधी को छोड़ दें) तो अभी इन दलों और उनके नेताओं को संभवतः यह अहसास ही नहीं है कि नरेंद्र मोदी के काल में भाजपा ने सियासी जमीन को कितना बदल दिया है।

रेखांकित करने की बात यह है कि इस बदलाव का मुकाबला केवल लंबे जन संघर्ष की रणनीति के साथ किया जा सकता है, जिसमें चुनाव सिर्फ एक मुकाम है। INDIA गठबंधन की मुश्किल यह है कि उसने अभी तक चुनाव को ही मंजिल मान रखा है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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Pushpendra Singh
Pushpendra Singh
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8 months ago

No doubt it’s the best description of political scenario.

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