सन् 2020, 2021 और 2022 के विधान सभा चुनावों के परिणामों के यदि देखें तो ये परिणाम कांग्रेस पार्टी के लिए काफी निराशाजनक रहे हैं। 2019 के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सरकार बनी थी। हालांकि इन विधान सभा चुनावों के कुछ महीनों बाद ही मई 2019 में हुए लोकसभा के आम चुनावों में भी कांग्रेस को बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ा था। उसे सिर्फ 52 सीटें मिलीं यानि 2014 की तुलना में सिर्फ 8 सीटों की वृद्धि हुई। इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि मई 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद चुनाव दर चुनाव परिणामों की दृष्टि से कांग्रेस पार्टी की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। देश के किसी हिस्से में कांग्रेस पार्टी के पुनर्जीवन या नए सिरे से उठ खड़े होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहे हैं। आखिर कांग्रेस का संकट क्या है?
सांगठनिक संकट
कांग्रेस पार्टी का संकट सिर्फ चुनावी हार तक सीमित नहीं है, वह सांगठनिक संकट से भी गुजर रही है। 2019 के लोकसभा के आम चुनावों के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। करीब तीन वर्ष होने को जा रहे हैं, कांग्रेस पार्टी के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं। बार-बार पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव की तिथियां-महीने घोषित होते हैं और विभिन्न कारणों से टलते रहते हैं। फिर एक बार अगस्त 2022 में नए पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव की तिथि घोषित की गई है। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष नहीं हैं, लेकिन व्यवहारिक तौर पर ज्यादातर निर्णय लेते हुए वही दिखाई देते हैं और अब उसमें प्रियंका गांधी की भूमिका बढ़ी है।
एक तरह की एडहॉक व्यवस्था के तहत कांग्रेस संचालित हो रही है। घोषित और अघोषित तौर पर कांग्रेस पार्टी की बागड़ोर पूरी तरह गांधी परिवार के हाथ में है। इसलिए पिछले वर्षों में पार्टी के परफॉर्मेंस की जवाबदेही शीर्ष स्तर पर गांधी परिवार की बनती है, इसी जवाबदेही के तहत पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में सोनिया गांधी ने यह प्रस्ताव रखा कि पूरा गांधी परिवार कांग्रेस के रास्ते से हटने को तैयार है, यदि पार्टी जनों को ऐसा लगता है कि गांधी परिवार के चलते पार्टी कमजोर हो रही है। सूत्रों के अनुसार सोनिया गांधी ने इस्तीफे की भी पेशकश की। हालांकि पार्टी का बड़ा हिस्सा गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं कर पाता है, उसे लगता है कि गांधी परिवार ही कांग्रेस की एकजुटता की रीढ़ है।
कांग्रेस का सांगठनिक संकट सिर्फ शीर्ष स्तर तक सीमित नहीं है, प्राथमिक इकाइयों से लेकर शीर्ष स्तर पर यह संकट है। अधिकांश प्रादेशिक इकाइयां गंभीर स्तर की गुटबाजी की शिकार हैं, यह सभी प्रदेशों में दिखाई दे रहा है। शीर्ष नेतृत्व इस गुटबाजी को खत्म कर पाने में पूरी तरह असफल दिखाई दे रहा है। यह गुटबाजी अभी हाल के पांच राज्यों के चुनावों में भी खुलकर सामने आ गई। पंजाब में यह सबसे बदतर रूप में प्रकट हुई, लेकिन उत्तराखंड़ में कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण पार्टी का विभिन्न गुटों में बंटवारा और वर्चस्व के लिए घात-प्रतिघात था।
कांग्रेस ने लंबे समय से अखिल भारतीय स्तर पर कोई सदस्यता अभियान नहीं चलाया है। किसी पार्टी के प्राथमिक सदस्य पार्टी की बुनियाद होते हैं। कांग्रेस पार्टी में ऐसे सक्रिय और प्रतिबद्ध नए प्राथमिक सदस्यों की संख्या कम होती जा रही है, जो पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध हों और कांग्रेस पार्टी में ऐसे सदस्यों को जोड़ने की कोई पहलकदमी नहीं दिखाई दे रही है। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं-नेताओं का आम जनता से जीवंत नाता कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने इस स्थिति को तोड़ने की थोड़ी कोशिश करती दिखाई दीं, भले ही वे उसे चुनावी जीत में तब्दील न कर पाई हों।
राहुल गांधी में चाहे अन्य जो खूबियां हों, लेकिन वे जन नेता के रूप में खुद को स्थापित नहीं कर पा रहे हैं, उनका व्यापक भारतीय जन के साथ कोई सीधा संवाद नहीं है। एक नेता के प्रति जनता का जो भावात्मक लगाव होता है, वह लगाव भारतीय जन का राहुल गांधी के प्रति नहीं दिखाई देता है। वे खुद को लोगों की आशा-आकांक्षाओं के प्रतीक रूप में प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं, जैसे नरेंद्र मोदी और एक हद तक अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, योगी आदित्यनाथ, नवीन पटनायक और एक हद तक तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन और जगन मोहन रेड्डी आदि ने किया। राष्ट्रीय स्तर पर राहुल राहुल गांधी को सिर्फ 6.8 प्रतिशत लोग प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं (इंडिया टुड़े सर्वे, 2021)।
कांग्रेस के भीतर सांगठनिक संकट उम्रदराज नेताओं और सापेक्षिक तौर पर युवा नेताओं के बीच के संघर्ष के रूप में भी सामने आर रहा है, जहां लंबे समय से राहुल गांधी यह कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस पुराने नेताओं से छुटकारा पाए और नए युवा लोगों को मौका दिया जाए, वहीं पुराने नेता किसी भी सूरत में अपना स्थान छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। राहुल गांधी नरेंद्र मोदी की स्थिति में नहीं हैं कि भाजपा के पुराने नेताओं को विभिन्न तरीकों से किनारे लगा सकें और अपने मनमाफिक टीम बना सकें। राहुल गांधी ने शुरुआती वर्षों में इसकी भरपूर कोशिश भी की, लेकिन उन्हें निर्णायक तौर सफलता नहीं मिली। इसी बीच राहुल गांधी के अधिकांश भरोसेमंद युवा नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा या अन्य पार्टियों में शामिल हो गए। जिसे राहुल की युवा टीम कहा जाता था, उसके शीर्ष नेताओं में सिर्फ सचिन पायलट बचे हैं, वे भी राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने की चाहत में भाजपा में जाते-जाते रह गए। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह जैसे राहुल के विश्वसनीय सहयोगी भाजपा का हाथ थाम चुके हैं।
इस बीच पुराने नेताओं के विरोध को दरकिनार करते हुए राहुल गांधी ने कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी जैसे युवा नेताओं को कांग्रेस से जरूर जोड़ा। पुराने दिग्गज कहे जाने वाले कांग्रेसी नेताओं के प्रति राहुल गांधी की बेरुखी देखकर लगता है कि वे इनसे पिंड छुड़ाना चाहते हैं और युवाओं को लेकर एक नई कांग्रेस खड़ी करना चाहते हैं, लेकिन उनका यह प्रयास परवान चढ़ता दिखाई नहीं दे रहा है। इसका एक कारण सोनिया गांधी का पुराने नेताओं पर भरोसा भी है। खुद गांधी परिवार के भीतर कांग्रेस को किस दिशा में, कैसे और किसको लेकर जाना इसको लेकर एक राय नहीं है। सोनिया गांधी कांग्रेस की आंतरिक समस्याओं को जैसे हल करना चाहती हैं और राहुल गांधी जैसे करना चाहते हैं, दोनों में काफी भिन्नता है। यह समय-समय पर सतह पर आता रहता है। प्रियंका गांधी अभी मां-भाई को फालो करती ही दिखाई दे रही हैं।
कांग्रेस के भीतर जी-23 के रूप में जो गुट सक्रिय दिखाई दे रहा है, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर उसके निशाने पर राहुल गांधी और उनके करीबी हैं। इन्हें राहुल गांधी और उनके वर्तमान करीब कांग्रेस पार्टी के संगठन मंत्री केसी वेणुगोपाल, कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला और महासचिव अजय माकन फूटी आंख नहीं सुहाते। जी-23 के अधिकांश नेता जनाधार विहीन नेता हैं। जी-23 में शामिल हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को छोड़कर किसी का कोई बड़ा जनाधार नहीं है, इसमें कई सारे लंबे समय से दिल्ली केंद्रित राजनीति कर रहे हैं और राज्य सभा के रास्ते नेता बने हुए हैं, जैसे आनंद शर्मा और गुलाम नवी आजाद। इनकी नाराजगी की मुख्य वजह राहुल गांधी द्वारा इनको महत्व न दिया जाना और इनका खुद का अनिश्चित राजनीतिक भविष्य है। फिलहाल जी-23 कांग्रेस के लिए कोई बड़ा संकट नहीं है। जी-23 के पास भी कांग्रेस की भविष्य की दिशा को लेकर कोई रोडमैप नहीं है। इन्हें कांग्रेस की चिंता कम खुद के भविष्य की चिंता ज्यादा सता रही है।
नेतृत्व के स्तर पर कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट यह है कि उसके पास कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसकी भारतीय जनता के बीच एक व्यापक अपील हो, जो भारतीय जन के साथ खुद को कनेक्ट कर सके और उसे भरोसा दिला सके कि वह उसकी समस्याओं को हल कर सकता है और उनके सपनों का भारत रच सकता है। जनता के बीच खुद से उम्मीद पैदा करना जन नेता की सबसे बड़ी खूबी होती है। कांग्रेस नेता के रूप में राहुल गांधी खुद को आम लोगों के बीच उम्मीद पैदा करने में बहुत सफल नहीं रहे हैं।प्रियंका गांधी भी फिलहाल कांग्रेस के इस गतिरोध को तोड़ नहीं पाई हैं।
जनाधार का संकट
वर्ण-जाति आधारित सामाजिक विभाजन और धर्म आधारित धार्मिक विभाजन भारतीय समाज के बुनियादी विभाजन हैं। विभिन्न पार्टियों के वोट बैंक के निर्धारण में इन दो तत्वों की निर्णायक भूमिका है। आजादी के बाद कहने के लिए कांग्रेस पार्टी भले ही सबकी पार्टी रही हो, लेकिन उसका मुख्य वोट बैंक सामाजिक तौर पर अपरकॉस्ट और दलित थे। धार्मिक तौर पर मुसलमान थे। अपरकॉस्ट, दलित और मुसलमान कांग्रेस के मुख्य आधार थे। गणित में भले ही अपरकॉस्ट संख्या में आनुपातिक तौर पर कम रहा हों, लेकिन अपने सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक वर्चस्व के चलते वोट की दिशा को प्रभावित करने की उसकी क्षमता उसकी जनसंख्या की तुलना में कई गुना अधिक रही है और अभी भी है।
जहां अपरकॉस्ट आनुपातिक तौर कम संख्या में था, वहां कांग्रेस का मुख्य आधार उस प्रदेश या क्षेत्र विशेष की प्रभावशाली जातियां रही हैं, जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चरण सिंह के नेतृत्व में जाट या महाराष्ट्र में कभी शरद पवार के नेतृत्व में मराठा या आंध्र प्रदेश में रेड्डी और अभी हाल तक पंजाब में अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में जाट सिख। इसी तरह की स्थिति देश भर में थी। लेकिन धीरे-धीरे यह स्थिति बदली और पिछले तीन दशकों में इस स्थिति में निर्णायक परिवर्तन आया। अपरकॉस्ट कमोवेश पूरी तरह भाजपा के साथ गोलबंद हो चुका है।
यह परिघटना दो तरह से घटित हुई। पहला अपरकॉस्ट मतदाताओं का भाजपा की ओर तेजी से झुकाव और दूसरा अपरकॉस्ट कांग्रेसी नेताओं के एक बड़े हिस्से का भाजपा में शामिल होना। देश के एक बड़े हिस्से, विशेषकर लोकसभा में सबसे अधिक सांसद भेजने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में दलित मतदाताओं का मजबूती से बसपा के साथ खड़े होना। मुसलमान भी पूरे देश में निर्णायक तरीके से कांग्रेस के साथ नहीं हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि भाजपा की मुसलमान के प्रति घृणा आधारित आक्रामक राजनीति के चलते मुसलमान हर उस पार्टी को वोट करने को मजबूर हैं, जो जिस प्रदेश या क्षेत्र में भाजपा को हराने की क्षमता रखती हो। कांग्रेस ऐसी स्थिति में कई प्रदेशों और राज्यों में नहीं रह गई है, क्योंकि सिर्फ मुसलमान अपने वोटों के दम पर किसी भी प्रदेश में भाजपा को हरा नहीं सकते हैं। इसके चलते मुसलमान पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल कांग्रेस को वोट देते हैं, उत्तर प्रदेश में सपा को और बिहार में मुख्यत: राजद को, तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी को और जिन प्रदेशों में कांग्रेस मजबूत है उन प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी को या भाजपा को हराने में जो सक्षम है, उस पार्टी को। इस तरह कांग्रेस का यह वोट बैंक भी उससे खिसक गया है।
मोदी युग ( 2014) के आगमन के बाद बहुत तेजी से अपरकॉस्ट कांग्रेस को छोड़कर भाजपा के साथ खड़ा हुआ है, क्योंकि भाजपा खुले तौर पर उनके सभी तरह के हितों की पूर्ति कर रही है। दलित वोट उत्तर प्रदेश में और आस-पास के प्रदेशों में बसपा या अन्य छोटी-मोटी दलित पार्टियों के साथ है या भाजपा और कांग्रेस में बंटता है और मुसलमान भाजपा विरोधी सबसे ताकतवर पार्टी को वोट देते हैं, ऐसे में कांग्रेस के पास कई प्रदेशों में कोई स्थायी वोट बैंक नहीं रह गया है। कांग्रेस का परंपरागत स्थायी वोट बैंक उससे छिटक चुका है, टूट-बिखर गया है। कांग्रेस वोटों का कोई नया सामाजिक समीकरण नहीं बना पा रही है। जीतने में कामयाब समीकरण नहीं होने से मुसलमान भी उसके साथ निर्णायक तरीके से गोलबंद नहीं हो रहे हैं। इसके साथ ही पिछले दो-तीन दशकों में कांग्रेस से निकल क्षेत्रीय क्षत्रपों या प्रभावशाली नेताओं ने अपनी-अपनी पार्टियां खड़ी कर ली हैं, जैसे महाराष्ट्र में शरद पवार, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी आदि।
विचारधारात्मक संकट
कांग्रेस गहरे स्तर पर विचार धारात्मक संकट की भी शिकार है। इस संकट को आरएसएस-भाजपा खुली हिंदुत्वादी राजनीति ने और गहरा कर दिया है। कांग्रेस की छवि लेफ्ट-राइट के बीच तालमेल बनाकर चलने वाली एक सेंट्रिस्ट पार्टी की रही है। धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों मामलों में वह लेफ्ट-राइट के बीच एक तालमेल बनाकर चलती थी। पहले उसके सामने मुख्य चुनौती लेफ्ट ओरिएंटेड राजनीति थी, खासकर आर्थिक मामलों में। आज उसके सामने आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक तीनों मामलों में एक खुली दक्षिणपंथी पार्टी से मुकाबला है। कांग्रेस यह तय नहीं कर पा रही है कि वह धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों में कौन सी विचारधारात्मक अवस्थिति ले।
वह भाजपा के उग्र हिंदुत्व का जवाब नरम हिंदुत्व से दे या हिंदुत्व की राजनीति को खारिज करे और निर्णायक तरीके से धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पक्ष में खड़ी हो। कांग्रेस के सबसे प्रभावी नेता राहुल गांधी के भाषणों-बयानों में यह दुविधा सबसे अधिक दिखती है, अक्सर वे कट्टर हिंदुत्व के मुकाबले उदार एवं नरम हिंदुत्व की पैरवी करते दिखते हैं। पिछले दिनों संसद में दिए अपने चर्चित भाषण में जब वे देश के सामने उपस्थित गंभीर चुनौतियों का जिक्र कर रहे थे, तो उन्होंने बढ़ती आर्थिक असमानता और संघीय ढांचे के समक्ष उपस्थित चुनौती का जिक्र तो किया, लेकिन मुसलमानों को किस तरह हाशिए पर धकेल दिया गया है, इसकी उन्होंने कोई चर्चा तक नहीं की। एक तरह से आरएसएस-भाजपा द्वारा तैयार राजनीतिक पिच पर खड़े होकर बल्लेबाजी करने जैसा है।
सामाजिक मामले में भी कांग्रेस दुविधा में है, जहां आरएसएस के नेतृत्व में भाजपा पिछड़े और दलितों को अपना राजनीतिक चेहरा बनाकर प्रस्तुत कर रही है और उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि चुनावी राजनीति बहुसंख्या का खेल है। लेकिन कांग्रेस वर्णों-जातियों में विभाजित भारतीय समाज के संदर्भ में वैचारिक स्थिति तय नहीं कर पा रही है। स्वयं राहुल गांधी कई बार अपना जनेऊ दिखाकर खुद को अपरकॉस्ट हिंदू के रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। कांग्रेस की वैचारिक दुविधा आर्थिक नीति के संदर्भ में भी दिखाई दे रही है, जहां राहुल गांधी एक ओर क्रोनी कैपिटलिज्म की बात करते हुए अडानी-अंबानी को टारगेट करते हुए दिखते हैं, लेकिन समग्रता में पार्टी को वैकल्पिक आर्थिक एजेंड़ा नहीं दिखाई देता है।
यह वैचारिक दुविधा कांग्रेस शासित राज्यों में सबसे अधिक दिखाई देती है। कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान और छत्तीसगढ़ विकास और शासन-प्रशासन का कोई वैकल्पिक या तुलनात्मक तौर पर बेहतर मॉडल नहीं प्रस्तुत कर पाए। जिसके आधार पर कांग्रेस यह कह सके कि वह ऐसा मॉडल राज्य बनाना चाहती है। 2017 में पंजाब में लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ कांग्रेस को सत्ता सौंपी थी, लेकिन पंजाबी लोगों के जीवन में किसी तरह का बड़ा मात्रात्मक या गुणात्मक परिवर्तन नहीं दिखा। कांग्रेस ने भी यथास्थिति कायम रखी। 2022 में उन्होंने आम आदमी पार्टी के रूप में एक नया विकल्प चुना।
पिछले करीब आठ वर्षों से केंद्रीय सत्ता से बाहर रहने और अधिकांश प्रदेशों में सरकार बनाने में असफल कांग्रेस आर्थिक संकटों में भी गुजर रही है। इसके आंकड़े समय-समय पर आते रहते हैं।
इन सारे संकटों के बावजूद कांग्रेस भाजपा के बाद सबसे अधिक जनाधार वाली पार्टी है और उसके पास एक देशव्यापी सांगठनिक ढांचा है। मोदी लहर के बावजूद 2014 और 2019 के लोक सभा के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को करीब कुल पड़े वोटों का 20 प्रतिशत मिला था। 2014 में उसे 19.3 प्रतिशत और 2019 में उसे 19.5 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। आज भी कांग्रेस को मिलने वाला वोट प्रतिशत सभी विपक्षी पार्टियों के साझे वोट प्रतिशत से भी बहुत अधिक है। सभी लोग खुले और दबे स्वर में यह स्वीकार करते हैं कि कांग्रेस पार्टी के बिना भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बेदखल करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)